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मनःपर्यय
२. ऋजु व विपुलमति ज्ञान निर्देश
उज्जुववयणपत्तीए अभावादो। प्रश्न-ऋजुवचनगत मन पर्ययज्ञानकी ऋजुमतिमन पर्ययज्ञान संज्ञा नही प्राप्त होती. उत्तर-नही, क्योंकि, यहॉपर भी ऋजुमनके बिना ऋजु वचनकी प्रवृत्ति नही होती।
७. विपुलमति सामान्यका लक्षण स. सि./१/२३/१२६/४ विपुला मतिर्यस्य सोऽयं विपुलमति ।-जिसकी
मति विपुल है वह विपुलमति कहलाता है। (रा. वा./९/२३/-1 ८४/१), (ध/४,१,११/१)। घ. ६/४,१,११/६६/२ परकीयमतिगतोऽर्थो मतिः। विपुला विरतीर्णा ।
-दूसरेकी मतिमें स्थित पदार्थ मति कहा जाता है। विपुलका अर्थ विस्तीर्ण है। गो.जी./जी. प्र./४३६/८५८/१७ विपुला कायवाड्मन कृतार्थस्य परकीयमनोगतस्य विज्ञान्निर्वतिता अनिर्वतिता कुटिला च मतिर्यस्य स विपुलमतिः । स चासौ मन पर्ययश्च विपुलमतिमन पर्यय । सरल या वक्र मनवचन कायके द्वारा किया गया कोई अर्थ; उसके चिन्तबन युक्त किसी अन्य जीवके मनको जाननेसे निष्पन्न या अनिष्पन्न मतिको विपुल कहते है। ऐसी विपुल या कुटिल मति है जिसको सो विपुल मति है।
८. विपुलवका अर्थ ध.६/४,१,११/६६/२ कुतो वैपुल्यम ! यथार्थमनोगमनात अयथार्थमनोगमनात् उभयथापि तदबंगमनात्, यथार्थवचोगमनात् अयथार्थबचोगमनात उभयथापि तत्र गमनात्, यथार्थ कायगमनान अयथार्थकायगमनाव ताभ्या तत्र गमनाच्च वैपुल्यम् । प्रश्न-विपुलता किस कारणसे है । उत्तरन्यथार्थ, अयथार्थ व उभय तीनो प्रकारके मन, तीनो प्रकारके वचन व तीनों प्रकारके कायको प्राप्त होनेसे विपुलता है। ( और भी दे० मनःपर्यय/२/१०/१) ।
९. विपुलमतिके भेद व उनके लक्षण म. म. १/३/२६/१ यं तं विउलमदिणाण तं ठियह-उज्जुग मणोगद जाणदि, उज्जुग वचिगद जाणदि, उज्जुगं कायगदं जाणदि, अणुज्जुर्ग मणोगदं जाणदि, एवं वचिगद कायगदं च । एवं यात्र वत्तमाणाणं पि जीवाणं जाणदि । जो विपुलमनि मन.पर्ययज्ञान है, वह छह प्रकारका है। वह सरल मनोगत पदार्थको जानता है, सरल वचनगत पदार्थको जानता है, सरलकायगत पदार्थको जानता है, कुटिल मनोगत पदार्थ को जानता है, कुटिल वचनगत पदार्थ को जानता है, कुटिल कायगत पदार्थको जानता है, यह वर्तमान जीव तथा अवर्तमान जीवोके अथवा व्यक्त मनवाले तथा अव्यक्त मनवाले जीवोके सुखादिको जानता है (दे० मन पर्यय/२/१०/१): (ष ख, १३/५,५/
सूत्र ७०/३४०) (गो. जो./भू./४४०/८५६)। रा, वा./९/२३/८/८५/११ द्वितीयो विपुलमति षोढा भिद्यते। कुत । अजुवक्रमनोवावकायविषयभेदात् । भृजविक्पा पूर्वोक्ता बक्र विकपाश्च तद्विपरीता योज्याः। द्वितीय विपुलमति ऋजु व वक्र मन वचन व कायके विषय भेदसे छह प्रकारका है। इनमेसे अजुके तीन विकल्प पहले कह दिये गये है। (दे० मन पर्यय /२/३)। उसी प्रकार वक्रके तीनो विकल्पोमे भी लागू कर लेना चाहिए । (गो. जी./जी. प्र./४४०/८६०/१)। दे. मन'पर्यय/२/१०/१ (अपने मनके द्वारा दूसरेके द्रव्यमनको जानकर पीछे तद्गत अर्थको जानता है। चिन्तित. अर्धचिन्तित, अचिन्तित व विपरीत चिन्तितको, उक्त, अर्धउक्त, अनुक्त, व विपरीत उक्तको,
और इसी प्रकार चारो विकल्परूप अभिनयगत अर्थको जानता है)। दे, मनापर्यय/२/- ( यथार्थ, अयथार्थ व उभय तीनो प्रकारके मन वचन कायको प्राप्त अर्थ को जानता है)।
१०. विपुलमतिका विषय १. मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषयकी अपेक्षा ष ख १३/५,५/सूत्र ७१-७३/३४०-३४२ मणेण माणसं पडिविदइत्ता ७१ परेसि सण्णा सदि मदि चिन्ता जीविदमरण लाहालाहं मुहदु वरवं णयरविणासं देसविणास.. अदिबुट्ठि अणावुट्ठि सुबुठ्ठि दुवुट्ठि सुभिवं दुम्भिव खेमामं भयरोग कालसपजुत्ते अत्ये जाणदि ।७२। किच भूओ-अप्पणो परेसि च बत्तमाणाण जीवाणं जाणदि अवत्तमाणाण जीवाणं जाणदि ।७३-मनके द्वारा मानसको जानकर (अर्थात् अपने मतिज्ञानके द्वारा दूसरेके द्रव्यमनको जानकर, तत्पश्चात मन पर्ययज्ञानके द्वारा-टीका) दूसरे जीवोके कालसे विशेषित सज्ञा (शब्दकलाप ), स्मृति (अतीत कालगत दृष्टश्रुत व अनुभूत विषय, मति (अनागतकालगत विषय ), चिन्ता (वर्तमानकालगत विषय) इन सबको; तथा उनके जीवित्त-मरण, लाभ-अलाभ, व सुख-दुःखको, तथा नगर, देश, जनपद्, खेट कर्वट आदिके विनाशको; तथा अतिवृष्टि-अनावृष्टि, सुवृष्टि-दुर्वृष्टि, सुभिक्ष-दुभिक्ष, क्षेम-अक्षेम, भय और रोग रूप पदार्थोंको भी (प्रत्यक्ष) जानता है ७१-७२। और भी-व्यक्त मनवाले अपने और दूसरे जीवोसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थको जानता है, तथा अव्यक्त मनवाले जीवोसे सम्बन्ध रखसेवाले अर्थ को जानता है ।७३ (कोष्ठकगत शब्दोके अर्थोके लिए दे० मन:पर्यय/२/४/१)। दे० मन'पर्यय/२/८ ( यथार्थ, अयथार्थ व उभय तीनों प्रकारके मन,
वचन व कायको प्राप्त अर्थको जानता है । ) दे० मन पर्यय/२/8 सरल व कुटिल मन, वचन, काय गत अर्थको तथा वर्तमान ध अवर्तमान जीवोके व्यक्त व अव्यक्त मनोगत अर्थको जानता है। रा. वा/२/२३/८/८/१३ तथा आत्मन' परेषा च चिन्ताजीवितमरणसुखदु खलाभालाभादीच अव्यक्तमनोभिर्व्यक्तमनो भिश्च चिन्तिताद अचिन्तितान् जानाति विपुलमति । = यह अपने और परके व्यक्त मनसे या अव्यक्त मनसे चिन्तित या अचिन्तित (या अर्धचिन्नित) सभी प्रकारके चिन्ता, जीचित-मरण, सुख-दुख, लाभ-अलाभ
आदिको जानता है। घ. १३/५,५,७३/३ चिंताए अद्धपरिणयं बिस्सरिद चितियवस्थु चिताए
अवाबदं च मणमव्यत्त, अवरं वत्तं। बत्तमाणाणमवत्तमाणाण वा जीवाण चिताविसय मणपज्जवणाणी जाण दि। जं उज्जुवाणुज्जुवभावेण चितितमद्धचितिदं चिंतिजमाणमद्धचितिज्जमाणं चितिहिदि अद्ध चितिहिदि वा तं सव्वं जाणदि त्ति भणिद होदि। -चिन्तामें अर्ध परिणत, चिन्तित वस्तुके स्मरणसे रहित और चिन्तामे अव्यापृत मन अव्यक्त कहलाता है, इससे भिन्न मन व्यक्त कहलाता है। व्यक्त मनवाले और अव्यक्त मनवाले जीबोके चिन्ताके विषयको मन पर्ययज्ञानी जानता है। ऋजु और अनृजु रूपसे जो चिन्तित या अर्धचिन्तित है, वर्तमानमें जिसका विचार किया जा रहा है, या अर्ध विचार किया जा रहा है, तथा भविष्यमै जिसका विचार किया जायेगा उस सब अर्थको जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। (और भी दे० मन पर्यय/१/१); (गो. जी./म् /४४६/८६४) । गो. जी मू/४४१/८६० तियकालबिसयरूवि चितितं बट्टमाण जीवेण ।
ऋजुमतिज्ञान जानाति भूतभविष्यच्च विपुलमति । -भूत, भविष्यत् व वर्तमान जीवके द्वारा चिन्तवन किये गये त्रिकालगत रूपी पदार्थको विपुलमति जानता है ।
२ द्रव्यकी अपेक्षा ध १/४,१.१२/६६/७ दबदो जहण्णेण एगसमयमिदियणिज्जरं जाणदि ।
उक्कस्सदव्यजाणावणठं तप्पाओग्गासखेज्जाणं कप्पाण समए सलागभूदे ठवियमणदव्यवग्गणाए अणं तिमभाग विरलिय अज्ज
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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