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मनःपयंय
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३. मनःपर्यय ज्ञानमें स्व व पर मनका स्थान
हष्णुक्कस्समैगसमयपबद्ध विस्सासोवचयविरहिदमट्ठकम्मपडिबद्धं समरखंड करिय दिण्णे तत्थ एगखंड विदियवियप्पो होदि । सलाग
सीदो एगरूवमवणेदव्वं । एवमणेण विहाणेण णेदव्व जाव सलागरासी समत्तो त्ति। एत्थ अपच्छिमदव्ववियप्पमुक्कस्सविउमदी जाणदि । जहण्णुक्कस्सदव्याण मज्झिमवियप्पे तव्वदिरित्तविउलमदि जाणदि। -द्रव्यकी अपेक्षा वह जघन्यसे एक समयरूप इन्द्रिय निर्जराको (अर्थात् चक्षु इन्द्रियको निर्जराको-दे० मन'पर्यय/२/४/२) जानता है। उत्कृष्ट द्रव्यके ज्ञापनार्थ उसके योग्य असख्यात कल्पोंके समयोको शलाकारूपसे स्थापित करके, मनोद्रव्यवर्गणाके अनन्तवे भागका बिरलनकर विससोपचय रहित व आठ कमोसे सम्बद्ध अजधन्यानुत्कृष्ट एक समयप्रबद्धको समरखण्ड करके देनेपर उनमें एक खण्ड द्रव्यका द्वितीय विकल्प होता है। इस समय शलाका राशिमेसे एक रूप कम करना चाहिए। इस प्रकार इस विधानसे शलाकाराशि समाप्त होने तक ले जाना चाहिए ।(दे० गणित//२), इनमे अन्तिम द्रव्य विकल्पको उत्कृष्ट विपुलमति जानता है । जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्यके मध्यम विकल्पोंको तस्यतिरिक्त अर्थात मध्यम विपुलमति जानता है। (गो. जो./मू./४५२-४५४१८६७) ।
१२.विशुद्धि व प्रतिपातकी अपेक्षा दोनों में अन्तर त सू./१/२४ विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥१२४। स. सि./१/२४/१३१/४ तत्र विशुद्ध्या तावत-अजमतेविपुलमतिर्द्रव्य
क्षेत्रकालभावै विशुद्धतर। कथम् । इह य' कार्मणद्रव्यानन्तभागोऽन्त्य सर्वावधिना ज्ञातस्तस्य पुनरनन्तभागीकृतस्यान्त्यो भाग ऋजुमतेविषयः। तस्य ऋजुमतिविषयस्यानन्तभागीकृतस्यान्त्यो भागो विपुलमतेविषय । अनन्तस्यानन्तभेदत्वात्। द्रव्यक्षेत्रकालतो विशुद्विरुक्ता । भावतो विशुद्धिः सूक्ष्मतरद्रव्यविषयत्वादेव वेदितव्या प्रकृष्टक्षयोपशमविशुद्धियोगात् । अप्रतिपातेनापि विपुलमतिविशिष्ट. स्वामिना प्रवर्द्धमानचारित्रोदयत्वात् । शृजमति. पुन. प्रतिपाती; स्वामिना कषायोद्रेकाद्धीयमानचारित्रोदयत्वात् । = विशुद्धि और अप्रतिणतकी अपेक्षा इन दोनों (अजमति व विपुलमति) में अन्तर है । २४ । तहाँ विशुद्धि की अपेक्षा तो ऐसे है कि-ऋजुमतिसे विपुलमति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा विशुद्धतर है। वह ऐसे कि यहाँ जो कार्मण द्रव्यका अनन्तवाँ अन्तिम भाग सविधिका विषय है, उसके भी अनन्त भाग करनेपर जो अन्तिम भाग प्राप्त होता है, वह ऋजुमतिका विषय है। और इस ऋजुमतिके विषयके अनन्त भाग करनेपर जो अन्तिम भाग प्राप्त होता है वह विपुलमतिका विषय है। अनन्तके अनन्त भेद है, अत ये उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषय बन जाते है इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र और कालकी अपेक्षा विशुद्धि कही। भावकी अपेक्षा विशुद्धि उत्तरोत्तर सूक्ष्म द्रव्यको विषय करनेवाला होनेसे ही जान लेनी चाहिए, क्योकि, इनका उत्तरोत्तर प्रकृष्ट क्षयोपशम पाया जाता है, इसलिए ऋजुमतिसे विपुलमतिमें विशुद्धि अधिक होती है। अप्रतिपातकी अपेक्षा भी विपुलमति विशिष्ट है; क्योकि, इसके स्वामियोके प्रवर्द्ध मान चारित्र पाया जाता है। परन्तु ऋजुमति प्रतिपाती है; क्योकि, इसके स्वामियों के कषायके उदयसे घटता हुआ चारित्र पाया जाता है। (रा.वा./१/२४/२/८६/५); (गो, जी/मू./४४७/६६३)।
अन्तिम भाग अत में उत्तरी अक्षा विशुद्धि
३. क्षेत्र व कालकी अपेक्षा ष, ख. १३/५सूत्र ७४-७७/३४२-३४३ कालदो ताव जहाणेण सत्तअठ्ठ
भवग्गणाणि, उक्कस्सेण असग्वेज्जाणि भवग्गहणाणि ।७४) जीवाणं गदिमागदि पदुप्पादेदि ।७५। खेत्तादो ताव जहण्णेण जोयणपुधत्तं ७६। उक्कस्सेण माणुस्सुत्तरसेलस्स अभतरादो णो बहिद्वा ७७ - कालकी अपेक्षा जघन्यसे सात-आठ भत्रोको और उत्कर्षसे असंख्यात भवोंको जानता है 1७४। ( इस काल के भीतर ) जीवो की गति अगति (भुक्त, कृत, और प्रतिसेवित अर्थ ) को जानता है 1५। क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्यसे योजनपृथक्त्वप्रमाण (अर्थात् आठ-नौ धन योजन प्रमाण ) क्षेत्रको जानता है ।७६। उत्कर्ष से मानुषोत्तर शैलके भीतर जानता है, बाहर नहीं जानता 1७७१ ( अर्थात् ४५०००,०० यो० घन प्रतरको जानता है-ध./8 ) । (म ब. १/३/२६/३); (स.सि /१/२३/१३०/३); (रा. वा,/१/२३/८/८५/१४); (ध.१/४,१,११/६७/८, ६८/१२), (गो.जी./मू/४५५-४५७/८६६)।
४, भावकी अपेक्षा घ.ह/४,१,११/६६/१ भावेण जंज दि दव्यं तस्स-तस्स अस खेज्जपज्जाए जाणदि । -भावकी अपेक्षा, जो-जो द्रव्य इसे ज्ञात है, उसउसकी असख्यात पर्यायौंको जानता है। गो. जी./म./८५८/८७१ तत्तो अस खगुणिदं असंखलोगं तु विउलमदी।
-विपुलमतिका विषयभूत भाव जधन्य तो ऋजुमतिके उत्कृष्ट भावसे असंख्यात गुणा है और उत्कृष्ट असंख्यात लोकप्रमाण है।
३. मनःपर्यय ज्ञानमें स्व व पर मनका स्थान
१. मनःपर्ययका उत्पत्ति स्थान मन है, करणचिह्न नहीं ध. १३/१,५,६२/३३१/१० जहा ओहिणाणावरणीयक्खओवसमगदजीवपदेससंबंधिसंहाणापरूवणा कदा, मणपज्जवणाणावरणीयक्रवओबसमगदजीव पदेसाणं संठाणपरूवणा तहा किण्ण की रिदे । ण, वियसियअट्ठदारविंद संठाणे समुप्पज्जमाणस्स ततो पुधभूदसंठाणाभावादो।
प्रश्न-जिस प्रकार अवधिज्ञानावरणीयके क्षयोपशमगत जीवप्रदेशोके स स्थानका कथन किया है (दे. अवधिज्ञान/५), उसी प्रकार मन पर्ययज्ञानावरणीयके क्षयोपशमगत जीवप्रदेशोके संस्थानका भी कथन क्यो नहीं करते। उत्तर-नहीं, क्योंकि वह विकसित अष्ट पारबुडीयुक्त कमलके आकारवाले द्रव्यमनके प्रदेशो में उत्पन्न होता है। गो. जी./म् ४४२/८६१ सव्वंगअंगसंभवचिण्हादुप्पजदे जहा ओही। मणपज्जवं च दबमणादो उप्पज्जदे णियमा ।४४२। -भवप्रत्यय अवधिज्ञान सर्वागसे और गुणप्रत्यय करणचिह्नोसे उत्पन्न होता है ( दे अवधिज्ञान/५)। इसी प्रकार मन पर्ययज्ञान द्रव्यमनसे उत्पन्न होता है । (प.ध./पू./६६६)।
११. अचिन्तित अर्थगत विपुलमतिको मनःपर्यय संज्ञा कैसे घ. १३/१०५,६१/३२६/५ परेसि मणम्मि अदित्य विसयस्स विउलमदिणाणस्स कधं मण पज्जवणाणववएसो। ण, अचितिद चेबदछ जाणदि त्ति णियमाभावादो। कितु चितियमचितियमदचितिय च जाणदि । तेण तस्स मणपज्जवणाणववएसो ण विरुज्झदे । = प्रश्नदूसरोंके मन में नहीं स्थित हुए अर्थको विषय करनेवाले विपुलमतिज्ञानकी मन पर्यय सज्ञा कैसे है। उत्तर-नहीं, क्योकि, अचिन्तित अर्थको ही वह जानता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। किन्तु विपुलमतिज्ञान चिन्तित, अचिन्तित और अर्धचिन्तित अर्थको जानता है, इसलिए उसकी मनःपर्यय सज्ञा होनेमे कोई विरोध नहीं है।
२. दोनों ही ज्ञानों में मनोमतिपूर्वक परकीय मनको जान
कर पीछे तद्गत अर्थको जाना जाता है प.ख. १३/५/सूत्र ६३ व इसकी टीका/३३२ मणेण माणस पडिविदइत्ता परेसि सण्णा सदि मदि...कालसपजुत्ते अत्थे वि जाण दि । ६३। मणेण
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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