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प्रत्यय
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१. प्रत्ययके भेद व लक्षण
प्रत्यय विषयक प्ररूपणाएँ सारणीमें प्रयुक्त सकेतोंका अर्थ । प्रत्ययोंकी उदय व्युच्छित्ति (सामान्य व विशेष) ओघ प्ररूपणा। प्रत्ययोंकी उदय व्युच्छित्ति आदेशप्ररूपणा । प्रत्यय स्थान व भंग प्ररूपणा। १. एक समय उदय आने योग्य प्रत्ययों सम्बन्धी सामान्य नियम। २. उक्त नियमके अनुसार प्रत्ययोके सामान्य भग। ३. उक्त नियम के अनुसार भंग निकालनेका उपाय । ४. गुणस्थानोकी उपेक्षा स्थान ब भंग। किस प्रकृतिके अनुभाग बंधमें कौन प्रत्यय निमित्त है।। कर्मबंधके रूपमें प्रत्ययों सम्बन्धी शकाएँ-दे० बध/५।।
जल ही है। ऐसा निर्णय होता है। २. मिथ्या प्रत्यभिज्ञान प्रमाण पूर्वक नहीं होता, बल्कि दृष्टिकी मन्दता आदि दोषोके कारणसे कदाचित मरीचिकामें भी जल की अभिलाषा कर बैठता है। प.मु./३/५-१० प्रत्यभिज्ञान तदेवेदं तत्सदृश तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि । यथा स एवायं देवदत्तः।६। गोसदृशो गवय ।। गोविलक्षणो महिष ।। इद मस्माइदूर हा वृक्षोऽयमित्यादि ।१०। न्या. दी./३/8८-६/५६/५ यथा स एवाऽय जिनदत्त', गोसदृशो गवया, गोविलक्षणमहिष इत्यादि । अत्र हि पूर्व स्मिन्नुदाहरणे जिनदत्तस्य पूर्वोत्तरदशाद्वयव्यापकमेकत्वं प्रत्यभिज्ञानस्य विषय । तदिदमेकत्व प्रत्यभिज्ञानम् । द्वितीये तु पूर्वानुभूतगोप्रतियोगिकं गवयनिष्ठ सादृश्यम् । तदिदं सादृश्य प्रत्यभिज्ञानम् । तृतीये तु पुन प्रागनुभूतगोप्रतियोगिक महिषनिष्ठ वैसादृश्यम् । तदिदं वैसादृश्यप्रत्यभिज्ञानम् । = जैसे वही यह जिनदत्त है, गौके समान गवय होता है, गायसे भिन्न भैसा होता है, इत्यादि । यहाँ १. पहले उदाहरणमें जिनदत्तकी पूर्व और उत्तर अवस्थाओमे रहने वाली एकता प्रत्यभिज्ञानका विषय है। इसीको एकत्व प्रत्यभिज्ञान कहते है । २. दूसरे उदाहरण में, पहले अनुभव की हुई गायको लेकर गवयमें रहने वाली सदृशता प्रत्यभिज्ञानका विषय है। इस प्रकारके ज्ञानको सादृश्य प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। ३, तीसरे उदाहरणमे पहले अनुभव की हुई गायको लेकर भै सामें रहनेवाली विसदृशता प्रत्यभिज्ञानका 'विषय है, इस तरहका ज्ञान वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञान कहलाता है। ४ यह प्रदेश उस प्रदेशसे दूर है इस प्रकारका ज्ञान तत्प्रतियोगी नामका प्रत्यभिज्ञान कहलाता है। यह वृक्ष है जो हमने सुना था। इत्यादि अनेक प्रकारका प्रत्यभिज्ञान होता है । * स्मृति आदिज्ञानोंकी उत्पत्तिका क्रम-दे० मतिज्ञान/३। * स्मृति व प्रत्यमिज्ञान में अन्तर-दे० मतिज्ञान/३ ।
४. प्रत्यमिज्ञानामासका लक्षण प.मु/६/६ सदृशे तदेवेद तस्मिन्नेव तेन सदृश यमलकवदित्यादि प्रत्यभिज्ञानाभासं ।।। -सदृशमे यह वही है ऐसा ज्ञान; और यह वही है इस जगह है-यह उसके समान है, ऐसा ज्ञान प्रत्यभिज्ञानाभास कहा जाता है जैसे-एक साथ उत्पन्न हुए पुरुषमें तदेवेदं की जगह तत्सदृश और तत्सदृशकी जगह तदेवेदं यह ज्ञान प्रत्यभिज्ञानाभास कहा जाता है ।। प्रत्यय-वैसे तो प्रत्यय शब्दका लक्षण कारण होता है, पर रूढि वश
आगममें यह शब्द प्रधानत कमकि आस्रव व बन्धके निमित्तोके लिए प्रयुक्त हुआ है। ऐसे वे मिथ्यात्व अविरति आदि प्रत्यय है, जिनके अनेक उत्तर भेद हो जाते है।
१. प्रत्ययके भेद व लक्षण
१.प्रत्यय सामान्य का लक्षण रा.वा./१/२१/२/७६/- अयं प्रत्ययशब्दोऽनेकार्थ.। क्वचिज्ज्ञाने वर्तते, यथा 'अर्थाभिधानप्रत्यया' इति । क्वचिच्छपथे वर्तते, यथा परद्रव्यहरणादिषु सत्यपालम्भे 'प्रत्ययोऽनेन कृतः' इति। क्वचिद्धेतौ वर्तते, यथा 'अविद्याप्रत्यया सस्कारा' इति ।-प्रत्यय शब्दके अनेक अर्थ है। कहीपर ज्ञानके अर्थ में वर्तता है जैसे-अर्थ, शब्द, प्रत्यय (ज्ञान)। कहींपर कसम शब्दके अर्थ में वर्तता है जैसे - पर आदिके चुराये जानेके प्रसंगमें दूसरेके द्वारा उलाहना मिलनेपर 'प्रत्ययोऽनेन कृत' अर्थात् उसके द्वारा कसम खायी गयी। कहींपर हेतुके अर्थ में वर्तता है जैसे-अविद्याप्रत्यया संस्कारा'। अर्थात
अविद्याके हेतु संस्कार है। ध.१/१,१,११/१६६/७ दृष्टि श्रद्धा रुचि' प्रत्यय इति यावत् । = दृष्टि,
श्रद्धा, रुचि और प्रत्यय ये पर्यायवाची नाम है। भ.आ /वि /८२/२१२/३ प्रत्ययशब्दोऽनेकार्थ । क्वचिज्ज्ञाने वर्तते यथा
घटस्य प्रत्ययो' घटज्ञानं इति यावत् । तथा कारणवचनोऽपि 'मिथ्यात्वप्रत्ययोऽनन्त संसार' इति गदिते मिथ्यात्वहेतुक इति प्रतीयते । तथा श्रद्धावचनोऽपि 'अयं अत्रास्य प्रत्यय' श्रद्धतिगम्यते । प्रत्यय शब्दके अनेक अर्थ है जैसे 'घटस्य प्रत्यय' घटका ज्ञान, यहाँ प्रत्यय शब्दका ज्ञान ऐसा अर्थ है। प्रत्यय शब्द कारणवाचक भी है जैसे-'मिथ्यात्वप्रत्यय अनन्तससार' अर्थात इस अनंत संसारका मिथ्यात्व कारण है। प्रत्यय शब्दका श्रद्धा ऐसा भी अर्थ होता है जैसे 'अब अत्रास्य प्रत्ययः' इस मनुष्यकी इसके ऊपर श्रद्धा है। २. प्रत्ययके भेद-प्रभेद १. बाह्य व अभ्यन्तर रूप दो भेद क.पा. १/१,१३-१४/२८४/१ तत्थ अभंतरो कोधादिदव्व कम्मक्खंधा... बाहिरो कोधादिभावकसायसमुप्पत्तिकारण जीवाजीवप्पयं बज्मदव्यं । क्रोधादि रूप द्रव्यकर्मों के स्कन्धको आभ्यन्तर प्रत्यय कहते है। तथा क्रोधादि रूप भाव कषायकी उत्पत्तिका कारणभूत जो जीव और अजीव रूप बाह्य द्रव्य है वह बाह्य प्रत्यय है।
भेद व लक्षण प्रत्यय सामान्यका लक्षण । प्रत्ययके भेद-प्रभेद बाह्य-अभ्यन्तर, मोह-राग-द्वेष, मिथ्यात्वादि ४ वा ५, प्राणातिपातादि २८, चारके ५७ भेद । प्रमादका कषायमें अन्तर्भाव करके पाँच प्रत्यय ही चार बन जाते है। प्राणातिपातादि अन्य प्रत्ययोंका परस्परमें अन्तर्भाव
नहीं होता। ५.६ ५ अविरति व प्रमादमें अन्तर, ६ कषाय व अविरति
में अन्तर।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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