________________
मनःपर्यय
२६९
४. मनःपर्यय ज्ञानका स्वामित्व
और भी दे, अवधि ज्ञान/४ ( अवधि ब मन पर्ययमे मनका निमित्त नहीं होता)। और भी दे. अवधिज्ञान/३ ( अवधि व मनापर्यय कथं चित् प्रत्यक्ष है
और कथ चित् परोक्ष)। ४. मनःपर्यय ज्ञानका स्वामित्व
१. ऋद्धिधारी प्रवर्द्धमान संयतको ही संभव है ष. ख. १/१,१/सूत्र १२१/३६६ मणपज्जवणाणी पमत्तसंजदप्पहुडि जाव।
खीणकसायवदिरागछदुमत्था त्ति।१२११=मन पययज्ञानी जीव प्रमत्तस यतसे लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते है। रा. वा /१/२५/२/८६/२६ में उद्धृत-तथा चोक्तम्-मनुष्येषु मन पर्यय
आविर्भवति,न देवनार कतैयग्योनिषु। मनुष्येषु चोत्पद्यमान' गर्भजेषुत्पद्यते न संमूर्च्छनजेषु । गर्भजेषु चोत्पद्यमान' कर्मभूमिजेषूत्पद्यते नाकर्मभूमिजेषु । कर्मभूमिजेषूत्पद्यमान पर्याप्तकेघृत्पद्यते नापर्याप्तकेषु । पर्याप्तकेषुपजायमान सम्यग्दृष्टिधूपजायते न मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यमिथ्यादृष्टिषु । सम्यग्दृष्टियूपजायमान' संयतेषूपजायते नासयतसम्यग्दृष्टिसंयतासयतेषु । संयतेषूपजायमान' प्रमत्तादिषु क्षीणकषायान्तेषूपजायते नोत्तरेषु । तत्र चोपजायमान प्रवर्द्धमानचारित्रेषूपजायते न हीयमानचारित्रेषु प्रबर्द्धमानचारित्रेषूपजायमान' सप्तविधान्यतमऋद्धिप्राप्तेषूपजायते नेतरेषु । ऋद्धिप्राप्तेषु च केषुचिन्न सर्वेषु । = आगममें कहा है, कि मन'पर्ययज्ञान मनुष्योमें ही उत्पन्न होता है, देव नारक व तिथंच योनिमें नहीं। मनुष्योमे भी गर्भजोंमें ही होता है, सम्मूच्छितोमें नहीं। गर्भजोमै भी कर्मभूमिजो के ही होता है, अकर्मभूमिजोके नही। कर्मभूमिजो में भी पर्याप्तकोंके ही होता है अपर्याप्तकोके नहीं। उनमें भी सम्यग्दृष्टियोके ही होता है, मिथ्याइष्टि सासादन व सम्यग्मिथ्यादृष्टियोके नहीं। उनमें भी संयतोंके ही होता है, असंयतो या संयतासंयतोके नही। सयतोमे भी प्रमत्तसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक ही होता है, इससे ऊपर नहीं। उनमें भी प्रवर्द्धमान चारित्रवालोके ही होता है, हीयमान चारित्रवालोके नहीं। उनमें भी सात ऋद्धियोमेसे अन्यतम ऋद्धिको प्राप्त होनेवालेके ही होता है, अन्यके नही। ऋद्धिप्राप्तो मे भी किन्हीके ही होता है, सबको नही। (स, सि./१/२५/१३२/६), (गो जी./मू./४४५/६६२)।
२. अप्रमत्तादि गुणस्थानों में उत्पन्न होता है पं. का./ता वृ./ प्रक्षेपक गा. ४३-४ मूल व टीका/८७/५ एवे संजमलद्धी उवओगे अप्पमत्तस्स ।४। उपेक्षासंयमे सति लब्धिपर्ययोस्तौ संयमलब्धी मन पर्ययौ भवत' । तौ च कस्मिन काले समुत्पद्यते । उपयोगे विशुद्वपरिणामे । कस्य वीतरागात्मतत्त्वसम्यकश्रद्धानज्ञानानुष्ठानसहितस्प पंचदशप्रमादरहितस्याप्रमत्तमुनेरिति। अत्रोत्पत्तिकाल एवाप्रमत्तनियम' पश्चात्प्रमत्तस्यापि सभवतीति भावार्थ ।। ऋजु व विपुलमति दोनो भन'पर्य यज्ञान, उपेक्षा सयमरूप संयमलब्धि होनेपर ही होते है और वह भी विशुद्ध परिणामोमें तथा वीतराग आत्मतत्त्वके सम्यक् श्रद्धान ज्ञान व चारित्रकी भावना सहित, पन्द्रह प्रकारके प्रमादसे रहित अप्रमत्त मुनिके ही उत्पन्न होते है। यहाँ अप्रमत्तपनेका नियम उत्पत्तिकालमे ही है, पीछे प्रमत्त अवस्थामें भी सम्भव है। ३. ऋजु व विपुलमतिका स्वामित्व दे. मन पर्यय/२/१२ ( अजुमति मन पर्ययज्ञान कषायके उदय सहित होनमान चारित्रवालोके होता है और विपुलमति विशिष्ट प्रकार के प्रवर्द्धमान चारित्रबालोंके । जुमति प्रतिपाती है अर्थात् अचरम
देहियोके भी सम्भव है, पर विपुलमति अप्रतिपाती है अर्थात् चरम
देहियोके ही सम्भव है)। पं का./ता वृ | प्रक्षेपक गा, ४३-४ की टीका/८७/३ निविकारात्मोपलब्धिभावनासहितानां चरमदेहमुनीना विपुलमतिर्भवति ।-निविकार आत्मोपलब्धि की भावनासे सहित चरम देहधारी मुनियोको ही विपुलमतिज्ञान होना सम्भव है।
४. निचले गुणस्थानों में क्यों नहीं होता ध ११,९,१२१/३६६/६ देश विरताद्यधस्तनभूमिस्थितानां किमिति मन'पर्ययज्ञान न भवेदिति चेन्न, सयमासंयमासंयमत उत्पत्तिविरोधात् ।
प्रश्न-देशविरति आदि नीचेके गुणस्थानवी जीवोके मन'पर्ययज्ञान क्यो नहीं होता है । उत्तर-नहीं, क्यो कि, संयमासंयम और असयमके साथ मन पर्य यज्ञानकी उत्पत्ति माननेमे विरोध आता है।
५. सभी संयमियोंके क्यों नहीं होता ध १/१,१,१२१/३६६/११ संयममात्रकारणत्वे सर्वसंयताना किन्न भवेदिति चेदभविष्यद्यदि संयम एक एव तत्पत्ते कारणतामागमिष्यत । अप्यन्येऽपि तु तदधेतवः सन्ति तद्वैकल्यान्न सर्वसंयताना तदुत्पत्ते । केऽन्ये तद्धेतब इति चेद्विशिष्टद्रव्यक्षेत्रकालादया। प्रश्न-यदि संयममात्र मन पर्ययकी उत्पत्तिका कारण है तो समस्त संयमियोके मन पर्ययज्ञान क्यो नही होता है । उत्तर-यदि केवल संयम ही कारण हुआ होता तो ऐसा भी होता, किन्तु इसके अतिरिक्त कुछ अन्य भी कारण है, जिनके न रहने से समस्त संयतोके मन पर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता। प्रश्न-वे दूसरे कौनसे कारण है । उत्तर-विशेष जातिके द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि । ६. द्वितीय व प्रथम उपशम सम्यक्त्व कालमें मन:पर्ययके सद्भाव व अभावमें हेतु ध २/१,१/७२७/७ वेदगसम्मत्त पच्छायद उबसमसम्मत्तसम्माइहिस्स पढमसमए विमणपज्जपणाणुवल भादो। मिच्छत्तपच्छायदउवसम. सम्माइठिम्मि मण पज्जवणाण ण उवलम्भदे, मिच्छत्तपच्छायदुक्कस्सुषसमसम्मत्तकालादो विगहियसंजमपढमसमयादो सव्वजहण्णमणपज्जवणाणुप्पायणसंजमकालस्स बहूत्तु वलं भादो।-जो वेदक सम्यबत्वके पीछे द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उस उपशम सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें भी मन पर्ययज्ञान पाया जाता है। किन्तु मिथ्यात्वसे पीछे आये हुए (प्रथम ) उपशमसम्यग्दृष्टि जीवमें मन'पर्य यज्ञान नहीं पाया जाता है, क्योकि, मिथ्यात्वसे पीछे आये हुए उपशमसम्यग्दृष्टि के उत्कृष्ट उपशमसम्यक्त्वके कालसे भी ग्रहण किये गये संयमके प्रथम समयसे लगा कर सर्व जघन्य मन.पर्ययज्ञानको उत्पन्न करनेवाला सयम काल बहुत बड़ा है। मनःपर्यय ज्ञानानावरण-दे, ज्ञानावरण । मनःपर्याप्ति-दे. पर्याप्ति । मनःशिल-मध्यलोकके अन्तसे १६त्रों द्वीप व सागर-दे. लोक/५/१ मन-मन एक अभ्यन्तर इन्द्रिय है। ये दो प्रकारकी है-द्रव्य व
भाव । हृदय स्थानमे अष्टपाखुडीके कमलके आकाररूप पुद्गलोंकी रचना विशेष द्रव्य मन है। चक्षु आदि इन्द्रियोवत् अपने विषयमें निमित्त होनेपर भी अप्रत्यक्ष व अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण इसे इन्द्रिय न कहकर अनिन्द्रिय या ईषत इन्द्रिय कहा जाता है। संकल्पविकल्पात्मक परिणाम तथा विचार चिन्तवन आदिरूप ज्ञानकी अवरथा विशेष भाव मन है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org