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भवन
५. भवनवासी इन्द्रोंका परिवार
स = सहस्र
ति प / ३ /७६-६६ (त्रि सा / २२६-२३५ )
देवियोका परिवार
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७ अनीक
में से प्रत्येक
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अभ्यं० मध्य बाह्य आत्मरक्ष
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इन्द्रों के
नाम
भा० ३- २७
सहस्र
८१२८ स.
७६५०
७९१२ स.
६३५० स.
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२४० स.
२२४ स.
२०० स
३० स३२ स२५६ स
२८ स. २६ स २८ स.
६४ स. ३३
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४० स. १६ स. ५६ स.
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→ उपरोक्त पूर्ण इन्द्रवत्
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३. भवनवासी देवियोंका निर्देश
१. इन्द्रोंकी प्रधान देवियोंका नाम निर्देश
ति प /३/२०१४ हा श्यामेा देोगामा सुभिधाना णिरुवमरूधराओ चमरे पचग्गमहिसोओ ० उमापउमसिरीओ कणयसिरी कणयमालमहपउमा । अग्गमहिसोउ बिटिए |१४| = चमरेन्द्र के कृष्णा, रत्ना, सुमेधा देवी नामक और मुकदा या सुकान्ता ( शुकाठ्या ) नामकी अनुपम रूपको धारण करनेवाली पाँच
महिषियों है | | ( त्रि. सा / २३६ ) द्वितीय इन्द्रके पद्मा, पद्मश्री, कनकी, कनकमाला और महापद्मा, ये पाँच अग्रदेवियाँ है ।
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४. भावन लोक परविय्या संति । छस्सहस्सं च समं पत्तेक्कं विविहरूहि || = चमरेन्द्रको अग्रमहिषियोमेंमे प्रत्येक अपने साथ अर्थात् मूल शरीर सहित, अनुपम रूप लावण्यसे युक्त आठ हजार प्रमाण विक्रिया निर्मित रूपों को धारण कर सकती है | १२| ( द्वितीय इन्द्रकी देवियाँ तथा नागेन्द्रो व गरुडेन्द्रो (सुपर्ण) की देवियोंकी विडियाका प्रमाण भी आठ हजार है। ( ति प /३/६४-६६ ) । द्वीपेन्द्रादिकों की देवियों में से प्रत्येकके मूल शरीरके साथ विविध प्रकारके रूपोसे छह हजार प्रमाण विक्रिया होती है ॥ ६८ ॥
३. इन्द्रों व उनके परिवार देवकी देवियाँ
वि. १ ३/१०१-१० (त्रि. सा. २३०-२३६)
इन्द्रका नाम
चमरेन्द्र
वैरोचन
भूतानन्द धरणानन्द
बेशु
वेणुधारी
शेष सर्व
इन्द्र
दे० भवनवासी /२/५
स्व इन्द्रवत स्व इन्द्रवत्
स्व इन्द्रवत्
४. भावन लोक
२. प्रधान देवियोंकी विक्रियाका प्रमाण ति./३/१२.३० चमरग्निममहिसोगं असहस्सविकृष्णा संति। पत्तेक्कं अप्पसमं णिरुवमलावण्णरूहि । १२ । दीविद पहुटीणं देवीण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
पारिषद
२५० २०० १५० १०० ५० १०० ३२
३०० २५० २०० २०० १६० १४०
१६० १४० १२०
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| १४० १२० १०००
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स्व इन्द्रवत् ::::::
११
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१. भावन लोक निर्देश
दे० रत्नप्रभा ( मध्य लोककी इस चित्रा पृथिवीके नीचे रत्नप्रभा पृथिवी है । उसके तीन भाग हैं - खरभाग, पंकभाग, अम्बहुल भाग । ) ति प /३/७ पपुवीए खरभाए सभागमि भवणसुराणं भवणइ होंति वररयणसोहाणि 191 रत्नप्रभा पृथिवीके खरभाग और एक भागमै उत्कृष्ट रत्नोसे शोभायमान भवनवासी देवोंके भवन है ।७१
रा. वा /२/१/८/१६०/२२ तत्र खरपृथिवीभागस्योपधयेक योजन सहस परित्यज्य मन्यमभागेषु चतुर्दश योजनसहस्रपु किनरकिपूरुष सप्ताना व्यन्तराणा नागवद्य त्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिवकुमाराणानवाना भवनवासिना पायासा । पलभागे असुरराक्षसानामावासा = खर पृथिवी भागके ऊपर और नीचे की ओर एक-एक हजार योजन छोड़कर मध्यके १४ हजार योजनमें किन्नर, किम्पुरुष आदि सात व्यन्तरोके तथा नाग, विद्यय, अग्नि, बास्तमित, दधि द्वीप और दिक्कुमार इन नव भवनवासियों के निवास है। पलहुल भागमे असुर और राइसोके आवास है। (ह. पु/४/५०-५१ ५६-६५), (ज. १ / ११ / १२३-१२७ ) ।
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दे० व्यंतर/४/१,५ ( खरभाग, पंकभाग और तिर्यक् लोकमे भी भवन - बासियों के निवास ई)।
* मावन लोकमै बादर अप व तेज कायिकका अस्तित्व - २० काय/२/५ ।
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