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प्रमाण
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५. गणनादि प्रमाण निर्देश
इनकी सिद्धि कैसे हो । उत्तर-वस्तुतः संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदिकी भिन्नता होनेसे प्रमाता, प्रमाण और प्रमेंयमें भिन्नता है तथा पृथक्-पृथक् रूपसे अनुपलब्धि होने के कारण अभिन्नता है। निष्कर्ष यह है कि प्रमेय प्रमेय ही है किन्तु प्रमाण प्रमाण भी है और प्रमेय भी।
स्वका ज्ञान नही होनेसे स्मृतिका अभाव हो जाता है, और स्मृतिका अभाव हो जानेसे व्यवहारका लोप हो जाता है। (रा. बा./१/१०/ १०/५०/१६)।
५. ज्ञान व आत्माको मिन्न मानने में दोष स. सि./९/१०/६७/५ आत्मनश्चेतनत्वात्तत्रैव समवाय इति चेत् । न,
ज्ञस्वभावाभावे सर्वेषामचेतनत्वात् । ज्ञस्वभावाभ्युपगमे वा आत्मन' स्वमतविरोध स्यात् । प्रश्न-आत्मा चेतन है, अत: उसीमे ज्ञानका समवाय है। उत्तर-नही, क्योकि आत्माको शस्वभाव नहीं मानने पर सभी पदार्थ अचेतन प्राप्त होते है। यदि आत्माको 'ज्ञ' स्वभाव माना जाता है, तो स्वमतका विरोध होता है । रावा./१/१०/६/५०/१५ स्यादेतत्-ज्ञानयोगाज्ज्ञातृत्वं भवतीति; तन्न, कि कारणम् । अतत्स्वभावत्वे ज्ञातृत्वाभाव.। कथम् । अन्धप्रदीपसयोगवत् ! यथा जात्यन्धस्य प्रदोपस योगेऽपि न द्रष्टुत्वं तथा ज्ञानयोगेऽपि अज्ञस्वभावस्यात्मनो न ज्ञातृत्वम् । = प्रश्न-ज्ञानके योगसे आत्माके ज्ञातृत्व होता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि अतत् स्वभाव होनेपर ज्ञातृत्वका अभाव है। जैसे-अन्धेको दीपकका सयोग होने पर भी दिखाई नहीं देता यत' वह स्वयं दृष्टि शून्य है, उसी तरह ज्ञ स्वभाव रहित आत्मामे ज्ञानका सम्बन्ध होने पर भी भी ज्ञत्व नही आ सकेगा। ६. प्रमाणको लक्ष्य और प्रमाकरणको लक्षण मानने में
८. प्रमाण व उसके फलमें कथंचित् भेदाभेद प.मु /५/२-३ प्रमाणाद भिन्न भिन्न च ।२। य' प्रमिमोते स एव निवृत्ताज्ञानो जहात्यादत्त उपेक्षते चेति प्रतीते ।। = फल प्रमाणसे कथचित् अभिन्न और क्थंचित् भिन्न है। क्योकि जो प्रमाण करता है-जानता है उसीका अज्ञान दूर होता है और वही किसी पदार्थ का त्यागवा ग्रहण अथवा उपेक्षा करता है इसलिए तो प्रमाण और फलका अभेद है किन्तु प्रमाण फल की भिन्न-भिन्न भी प्रतीति होती है इसलिए भेद भी है ।२-३॥
५. गणनादि प्रमाण निर्देश १. प्रमाणके भेद १. गणना प्रमाणकी अपेक्षा
गणना-प्रमाण
दोष
लौकिक
लोकोत्तर
मान उन्मान अवमान गणना प्रतिमान तत्प्रमाण
रस- बीज- मान मान
द्रव्य
क्षेत्र
काल (दे० काल)
भाव
सख्या उपमान अवगाह विभाग साकार अनाकार (दे० संख्या ) I क्षेत्र निष्पन्न
। (१)+(२)
पन्य सागर सूर्य
___गुंल
प्रतरा- गुल
घना- जगत गुल श्रेणी
जगत- प्रतर
जगत घन
पं.ध/पू./५३४-५३५ स यथा चेत्प्रमाणं लक्ष्य तल्लक्षण प्रमाकरणम् ।
अव्याप्तिको हि दोष सदेश्वरे चापि तदयोगात् ।७३४॥ योगिज्ञानेऽपि तथा न स्यात्तल्लक्षण प्रमाकरणम् । परमाण्वादिषु नियमान्न स्यात्तत्सनिकर्षश्च । - यदि प्रमाणको लक्ष्य और प्रमावरण को उसका लक्षण माना जाये तो निश्चय करके अव्याप्ति नामक दोष आयेगा, क्योकि प्रमाणभूत ईश्वर के सदैव रहने पर भी उसमे 'प्रमाकरण प्रमाण' यह प्रमाणका लक्षण नहीं घटता है ।७३४। तथा योगियोके ज्ञानमे भी प्रमाका करणरूप प्रमाणका लक्षण नहीं जाता है, क्योकि नियमसे परमाणु वगैरह सूक्ष्म पदार्थों में इन्द्रियोका सन्निकर्ष भी नही होता है ।७३५॥
७. प्रमाण और प्रमेयमें कथंचित् भेदाभेद रा, वा/१/१०/१०-१३/५०/१६ प्रमाणप्रमेययोरन्यत्वमिति चेत्, न;
अनवस्थानात ।१०। प्रकाशवदिति चेत्, न; प्रतिज्ञाहाने ॥११॥ अनन्यत्वमेवेति चेत; न, उभयाभावप्रसङ्गात । यदि ज्ञातुरनन्यत्प्रमाण प्रमाणाच्च प्रमेयम्, अन्यतराभावे तदविनाभाविनोऽवशिष्टस्याप्यभाव इत्युभयाभावप्रसङ्ग । कथ तहि सिद्धि ।१२। अनेकान्तात सिद्धि ।१३। स्यादन्यत्वं स्यादनन्यत्वमित्यादि । सज्ञालक्षणादिभेदात् स्यादन्यत्वम्, व्यतिरेकेणामुपलब्धे स्यादनन्यत्वमित्यादि । तत सिद्धमेतत्-प्रमेयं नियमाव प्रमेयम, प्रमाण तु स्यात्प्रमेयम इति ।
-प्रश्न-जैसे दीपक जुदा है और घडा जुदा है, उसी तरह जो प्रमाण है वह प्रमेय नहीं हो सकता और जो प्रमेय है वह प्रमाण नहीं है। दोनोके लक्षण भिन्न-भिन्न है। उत्तर-१. जिस प्रकार बाह्य प्रमेयोसे प्रमाण जुदा है उसी तरह उसमें यदि अन्तरङ्ग प्रमेयता न हो तो अनवस्थादूषण होगा। २ यदि अनवस्थादूषण निवारणके लिए ज्ञानको दोपककी तरह स्व-परप्रकाशी माना जाता है, तो प्रमाण
और प्रमेयके भिन्न होनेका पक्ष समाप्त हो जाता है । ३ यदि प्रमाता प्रमाण और प्रमेयसे अनन्य माना जाता है, तो एकका अभाव होने पर, दूसरेका भी अभाव हो जाता है। क्योकि दोनो अविनाभावी है, इस प्रकार दोनोके अभावका प्रसंग आता है। प्रश्न-तो फिर
सरव्या या द्रव्य प्रमाण
क्षेत्र प्रमाण
काल प्रमाण
संदर्भ न. १.-(रा वा /३/१८/२-५/२०५-२०६/१६ ) (गो. जी /भाषा/
पृ. २६०) । सदर्भ नं. २-(मू आ./११२६ ) (ति. प./१/१३-१४) (ध. ३/१,२,६७/गा. ६५/१३२) (ध.४/१,३,२/गा. ५/१०) (गो. जी /भाषा./३१२/७)। २. निक्षेप रूप प्रमाणोंकी अपेक्षा ध, १/१,१,१४८०/२ पमाण पंचविहं दव्व-खेत्त-काल-णयप्पमाणभेदेहि । भाव-पमाण पंचविह, आभिणिबोहियणाण सुदणाण
ओहिणाण मणपज्जवणाणं केवलणाणं चेदि णय-प्पमाणं सत्त विहं, णेगम-सगह-बव हारुज्जुसुद-सद्द-समभिरूढ-एवभूदभेदेहि । -द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और नयके भेदसे प्रमाणके पॉच भेद है। .. मति, श्रुत, अवधि, मन पर्यय और केवलज्ञानके भेदसे भावप्रमाण पाँच प्रकार है। (क पा /१/१,१/१२७/३७/१,६२८/४२/१); (ध. १/१, १,२/१२/४) नैगम, सग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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