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प्रमाण
३. प्रमाणका प्रामाण्य
१. प्रामाण्यका लक्षण
न्या. दी /१/१०/११/७ पर प्रत्यक्ष निर्णयसे उद्धृत -- इदमेव हि प्रमाणस्य प्रमाणत्वं यत्प्रमितिक्रिया प्रति साधकतमत्वेन करणत्वम् । -प्रमाण वही है जो प्रमिति क्रियाके प्रति साधकतमरूपसे करण ( नियमसे कार्यका उत्पादक ) हो ।
न्या दी / २ / ६१८ / १४ / ११ किमिदं प्रमाणस्य प्रामाण्यं नाम । प्रतिभातविषयाव्यभिचारित्वम् । प्रश्न- प्रमाणका यह प्रामाण्य क्या है, जिसमें 'प्रमाण' प्रमाण कहा जाता है, अप्रमाण नही। उत्तर - जाने हुए विषयमे व्यभिचार ( अन्यथापन ) का न होना प्रामाण्य है। इसके होनेसे ही ज्ञान प्रमाण कहा जाता है और इसके न होनेसे अप्रमाण कहा जाता है ।
२. स्वतः च परतः दोनोंसे होता है
श्लो. वा. ३/१/१०/१२६ - १२७/११६ तत्राभ्यासात्प्रमाणत्वं निश्चितं स्वत एव नः । अनभ्यासे तु परत इत्याहु, । अत अभ्यामदशामें ज्ञान स्वरूपका निर्णय करते समय हो युगपद उसके प्रमाणपनका भी निर्णय कर लिया जाता है परन्तु अनभ्यासदशाने तो दूसरे कारणोसे ( परत. ) ही प्रमाणपना जाना जाता है। ( प्रमाण परीक्षा ), (प. सु./१/१३), (भ्या पी./१/२०१६)"
दे० ज्ञान / I/३ (प्रमाण स्व पर प्रकाशक है ।)
२. वास्तव में आत्मा ही प्रामाण्य है ज्ञान नहीं ५.६/४.१.४०/९४२/२ ज्ञानस्यैव प्रामाण्यं किमिति नेष्यते न जानाति परिमिति जीवादिपदार्थानिति ज्ञानारमा तस्यैव प्रामाण्याभ्युपगमात् । न ज्ञानपर्यायस्य स्थितिरहितस्य उत्पाद - विनाशलक्षणस्य प्रामाण्यस् तत्र त्रिलक्षणाभावत । अवस्तुनि परिच्छेदलक्षणार्थ क्रियाभावात्, स्मृति-प्रत्यभिज्ञानुसंधानप्रत्ययादीनामभावप्रसंगास - प्रश्न- ज्ञानको ही प्रमाण स्वीकार क्यो नहीं करते । उत्तर-नहीं, क्योकि 'जानातीति ज्ञानम्' इस निरुक्तिके अनुसार जो जीवादि पदार्थो को जानता है वह ज्ञान अर्थात् आत्मा है, उसीको प्रमाण स्वीकार किया गया है । उत्पाद व व्ययस्वरूप किन्तु स्थिति से रहित ज्ञान पर्यायके प्रमाणता स्वीकार नहीं की गयी, क्योकि उत्पाद, व्यय और भौव्यरूप लक्षणत्रयका अभाव होनेके कारण अवस्तु स्वरूप उसमे परितिरूप अर्थक्रियाका अभाव है, तथा स्थिति रहित ज्ञान पर्यायको प्रमाणता स्वीकार करनेपर स्मृति प्रत्यभिज्ञान व अनुसन्धान प्रत्ययोके अभावका प्रसंग आता है ।
४. प्रमाण, प्रमेय, प्रमाताके भेदाभेद सम्बन्धी शंका
समाधान
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१. ज्ञानको प्रमाण कहनेसे प्रमाणका फल किसे मानोगे स.सि /१/१०/१७/१ यदि ज्ञानं प्रमाणं फलाभावः । नैष दोष अधिगमे प्रीतिदर्शनाव । ज्ञस्वभावस्यात्मन कर्ममलीमसस्य करणासन्धनादनिश्चये प्रीतिरुपजायते । सा फलमित्युच्यते। उपेक्षा अज्ञाननाशो वा फलम्। प्रश्न- यदि ज्ञानको प्रमाण मानते है तो फलका अभाव हो जायेगा । ( क्योकि उसका कोई दूसरा फल प्राप्त नही होता ।) उत्तर - यह कोई दोष नही है; क्योकि पदार्थ के ज्ञान होनेपर प्रीति देखी जाती है। वही प्रमाणका फल कहा जाता है | अथवा अपेक्षा या अज्ञानका नाश प्रमाणका फल है। (रा.वा./ १/१०/१००/४०/४) (प. मु./१/२) ।
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४. प्रमाण, प्रमेय, प्रमाताके भेदाभेद सम्बन्धी... २. ज्ञानको हो प्रमाण माननेसे मिथ्याज्ञान भी प्रमाण हो जायेंगे
क. पा १ / ११ / २८/४२ / २ णाणस्स पमाणत्ते भण्णमाणे संसयाणज्भवसायविवज्जयणाणामपि पमागतं पसज्ज ण प सह ेण तेसि पमाणत्तस्स ओसारित्तादो। प्रश्न-ज्ञान प्रमाण है ऐसा कथन करने पर सशय, अनध्यवसाय, और विपर्यय ज्ञानोको भी प्रमाणता प्राप्त होती है । उत्तर— नही, क्योकि, प्रमाणमे आये हुए 'प्र' शब्द के द्वारा संशयादिक प्रमाणता निषेध कर दिया है।
दे० प्रमाण / २ / २ सूत्र में सम्यक् शब्द चला आ रहा है इसलिए सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण हो सकते है. मिथ्याज्ञान नही (ज्या दी/१/१८/२)
३. सन्निकर्ष व इन्द्रियको प्रमाण माननेमें दोष
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स, सि, १/१०/१०/पंं. अथ संनिकर्षे प्रमाणे सति इन्द्रिये वा को दोष' । यदि संनिकर्ष प्रमाणम् मयप्रशनामग्रहणप्रसङ्ग । न हि ते इन्द्रियै सनिकृष्यन्ते । अत सर्वज्ञत्वाभाव स्यात् । इन्द्रियमपि यदि प्रमाण स एव दोष, अल्पविषयत्वात् चक्षुरादीनां ज्ञेयस्य चापरिमाणवाद सर्वेन्द्रियसनिकपभागश्च ६ / निक इन्द्रिये या प्रमाने सति अधिगम' फलमन्तर युज्यते इति तदयुक्तम्। यदि संनिकर्ष प्रमाण अर्थाधिगमफलं तस्य फिलेनाधिगमेनापि टेन भवितव्यमिति अर्थादीनामप्यधिगम प्राप्नोतीति । प्रश्न सन्निकर्ष या इन्द्रियको प्रमाण माननेमे क्या दोष है। उत्तर- १. यदि सन्निकर्षको प्रमाण माना जाता है तो सूक्ष्म व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थोके ग्रहण न करनेका प्रसंग प्राप्त होगा; क्योकि इनका इन्द्रियोसे सम्बन्ध नहीं होता । इसलिए सर्वज्ञताका अभाव हो जाता है । २ यदि इन्द्रियको प्रमाण माना जाता है तो वही दोष आता है, क्योकि, चक्षु आदिका विषय अप है और शेय अपरिमित है ३, दूसरे सण इन्द्रिया सन्निकर्ष भी नहीं बनता क्योकि पक्षु और मन प्राव्यकारी नहीं है। इसलिए भी सन्निकर्षको प्रमाण नहीं मान सकते। प्रश्न - ( ज्ञानको प्रमाण माननेपर फलका अभाव है ) पर सन्निकर्ष या इन्द्रियको प्रमाण माननेपर उससे भिन्न ज्ञान रूप फल बन जाता है उत्तर - यह कहना युक्त नही है, क्योंकि यदि सन्निकर्षको प्रमाण और अर्थ के ज्ञानको फल मानते है, यो सन्निकर्ष दोगे रहने वाला होनेसे उसके फल रूप ज्ञानको भी दो मे रहने वाला होना चाहिए इसलिए घटपटादि पदार्थों के भी ज्ञानकी प्राप्ति होती है । ( रा. वा./१/१०/१६-२२/५१/५), (पं ध / पू. / ७२५-७३३ ) ।
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४. प्रमाण व प्रमेयको सर्वथा भिन्न मानने में दोष
स. सि/१/१०/१८/३ यदि जीवादिरधिगमे प्रमार्ग प्रमाणाधिगमे च अन्यत्प्रमाण परिकल्पयितव्यम् । तथा सत्यनवस्था । नानवस्था प्रदीपवत् । यथा घटादीना प्रकाशने प्रदीपो हेतु स्वस्वरूपप्रकाशनेऽपि स एव न प्रकाशान्तरं सूर्य तथा प्रमाणमपीति अवश्यं चैतदभ्युगन्तव्य प्रमेयवत्यमाणस्य प्रमाणन्तरपरिकल्पनाया स्वाधिगमाभावात् स्मृत्यभाव । तदभावाद व्यवहारलोप स्यात् । प्रश्नयदि जीवादि पदार्थों के ज्ञानमे प्रमाण कारण है तो प्रमाणके ज्ञानमें अन्य प्रमाणको कारण मानना चाहिए। और ऐसा माननेपर अनवस्था दोष प्राप्त होता है ? उत्तर - जीवादि पदार्थोके ज्ञानमें कारण मानने पर अनवस्था दोष नही आता, जैसे दीपक । जिस प्रकार घटादि पदार्थोके प्रकाश करनेमे दीपक हेतु है और अपने स्वरूपको प्रकाश करने में भी वही हेतु है, इसके लिए प्रकाशान्तर नही दूँढना पडता है। उसी प्रकार प्रमाण भी है, यह बात अवश्य मान लेनी चाहिए । अब यदि प्रमेयके समान प्रमाणके लिए अन्य प्रमाण माना जाता है तो
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