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प्रमाण
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४. सम्यग्ज्ञानी आत्मा ही कथचित् प्रमाण है घ. १ / ४१.४५ / ९४९/६ कि प्रमाण निर्वाचनोधविशिष्ट आत्मा प्रमाणम् । प्रश्न- प्रमाण किसे कहते है। उत्तर- निर्बाध ज्ञानसे विशिष्ट आल्माको प्रमाण कहते है । ( ध ६/४,१,४५ / १६४/६ ) । अ. स./टी./४४/१०/१० सपविमोहविभ्रमरहितवस्तुहानस्वरूपामैव प्रमाणम् । स च प्रदीपवत् स्वपरगतं सामान्यं विशेषं च जानाति । तेन कारणेनाभेदेन तस्यैव प्रमाणत्वमिति । - सराय-विमोह-विभ्रमसे रहित जो वस्तुका ज्ञान है, उस ज्ञानस्वरूप आत्मा ही प्रमाण है । जैसे- प्रदीप स्व पर प्रकाशक है, उसी प्रकार आत्मा भी स्व और परके सामान्य विशेषको जानता है, इस कारण अभेदसे आत्मा के ही प्रमाणता है।
५. प्रमाणका विषय
घ. १ / ४.१०४५/१६६ / १ प्रकर्षेण मान प्रमाणम् सकलादेशौत्यर्थ । तेन प्रकाशिताना प्रमाणग्रहीतानामित्यर्थ प्रकर्ष अर्थात् संशयादिसे रहित वस्तुका ज्ञान प्रमाण है, अभिप्राय यह कि जो समस्त धर्मोको विषय करनेवाला हो वह प्रमाण है । ( क पा. ९/११७४ / २१० / ३ ) । घ. १/४,२, १३,२५४/४५७/१२ संतविसयाण पमाणाणमसते वावारविरोदादोसदको विषय करनेवाले प्रमाणोके असतमें प्रवृत्त होनेका विरोध है।
प./१/१ स्वार्थ व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाण १० अपना और अपूर्व पदार्थका निश्चय करानेवाला ज्ञान प्रमाण है।
प. मु. /४/१ सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषय । सामान्य और विशेष - स्वरूप अर्थात द्रव्य और पर्यायस्वरूप पदार्थ प्रमाणका विषय होता
है । १
दे० न. /I/३ (सकलादेशी, अनेकान्तरूप व सर्व नयात्मक है । )
६. प्रमाणका फल
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सिवि /मू./१/३/१२ प्रमाणस्य फल साक्षात् सिद्धि स्वार्थविनिश्चय. - स्व ब पर दोनों प्रकारके पदार्थोंकी सिद्धिमे जो अन्य इन्द्रिय आदिकी अपेक्षा किये बिना स्वयं होता है वह ज्ञान ही प्रमाण है। न. च. वृ / १६६ कज्ज सयलसमत्थ जोवो साहेइ वत्थुगहणेण । वत्थू मानसिद्ध रात का जिम्मेण १६ वस्तुके ग्रहणसे ही जीन कार्य की सिद्धि करता है, और वह वस्तु प्रमाण सिद्ध है। इसलिए प्रमाण ही सकल समर्थ है ऐसा तुम नियमसे जानो ।
प्रमाण
मु / १ / २ हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाण १२ मु/२/१ अज्ञाननिसिनोपादानोपपेक्षाच फलं ॥१॥ हो हलकी प्राप्ति और अहितके परिहार करनेमें समर्थ है |२| अहान की निवृत्ति, त्यागना, ग्रहण करना और उपेक्षा करना यह प्रमाणके फल है | १| ( और भी-दे० /४/१) ।
७. प्रमाणका कारण
६०० हेतुस्तस्ममुभुत्सो सदिग्धस्याथवा च मातस्य सायंमनेक इव्यं हस्तामलवे कामस्य ॥ ६०७ हाथ रखे हुए ऑवलेको भाँति अनेक रूप द्रव्यको युगपत् जाननेकी इच्छा रखनेवाले सन्दिग्धको अथवा अज्ञानीको तत्त्वोकी जिज्ञासा होना प्रमाणका कारण है । ६७७॥
८. प्रमाणामासके विषय आदि प./६/२०७२ पक्षमेक प्रमाणमित्यादिसख्याभास ॥२२॥ लौकावविकस्य प्रत्यक्षत परलोकादिनिषेधस्य परमुवाचासिद्धेरपिय
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२. प्रमाण निर्देश
स्वाद २६ सौगतसायी भाकर मिनीयाना प्रत्यक्षानुमानागमोपमार्थापत्त्यभावेरेकैकाधिकैर्व्याप्तिवत् ॥ अनुमानादेस्तद्विपये प्रमाणान्तर ८ तर्कस्येव व्यचरखे प्रमाणान्तर १५६। अप्रमाणस्याव्यवस्थापकत्वात् । प्रतिभासभेदस्य च भेदकत्वात् १६० विषयाभास सामान्यं विशेषो द्वयं वा स्वतन्त्र' | ६१| तथाऽप्रतिभारतनाय कार्याकरणाथ [२] समर्थस्य करणे सर्वोपरिपेक्षवाद || परापेक्षणे परिणामिवमन्यथा तदभावात ६४ स्वयम समर्थयाकार६१ फलाभास प्रमाणादभिभव या | ६६ । अभेदे तव्यवहारानुपपत्ते ॥ ६७॥ व्यावृत्त्यापि न तत्कल्पना फलान्तराद् व्यावृत्त्याऽफलत्वप्रसगात् । ६८ प्रमाणान्तराइ व्यावृत्त्येवाप्रमाणत्वस्य || तस्माद्वास्तवो भेद | ७० 1 भेदे स्वात्मान्तरवत्तदनुपपत्ते 1७१ | समवायेऽतिप्रसग । ७२ । १ संख्याभास प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है। इस प्रकार एक या दो आदि प्रमाण मानना संख्याभास है । ५५॥ चाकि लोग एक प्रत्यक्ष प्रमाण मानते है, परन्तु उसके द्वारा न तो वे परलोक आदिका निषेध कर सकते है और न ही पर बुद्धि आदिका क्योकि विषय ही नहीं है । २६| नौ लोग प्रत्यक्ष व अनुमान दो प्रमाण मानते है । साख्य लोग प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम तीन प्रमाण मानते है । नैयायिक लोग प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम व उपमान ये चार प्रमाण मानते है । प्रभाकर लोग प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान व अर्थापत्ति ये पाँच प्रमाण मानते है, और जैमिनी लोग प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम उपमान, अर्थापत्ति व अभाव ये छह प्रमाण मानते है । इनका इस प्रकार दो आदिका मानना संख्याभास है । ५७१ चार्वाक लोग परलोक आदिके निषेधके लिए स्वमान्य एक प्रमाणके अतिरिक्त अनुमानका आश्रय लेते है।८। इसी प्रकार बौद्ध लोग व्याप्तिकी सिद्धिके लिए स्वमान्य दो प्रमाणो के अतिरिक्त एक तर्कको भी स्वीकार कर लेते है |५६ | यदि संख्या भगके भय से वे उस तर्कको प्रमाण न कहे तो व्याप्तिकी सिद्धि ही नहीं हो सकती। दूसरे प्रत्यक्षादिसे विलक्षण जो तर्क उसका प्रतिभास जुदा ही प्रकारका होनेके कारण वह अवश्य उन दोनोसे पृथक् है | ६० २. विषयाभास -- प्रमाणका विषय सामान्य ही है या विशेष ही है, या दोनो ही स्वतन्त्र रहते प्रमाणके विषय है, ऐसा कहना भास है ।६१० क्योकि न तो पदार्थमे वे धर्म इस प्रकार प्रतिभासित होते है, और न इस प्रकार मानने से पदार्थ में अर्थक्रिवाकी सिद्धि हो सकती है । ६२ । यदि कहोगे कि वे सामान्य व विशेष पदार्थ में अर्थक्रिया करानेको स्वय समर्थ है तो उसमे सदा एक ही प्रकारके कार्यकी उत्पत्ति होती रहनी चाहिए । ६३॥ यदि कहोगे कि निमित्तो आदिकी अपेक्षा करके वे अर्थक्रिया करते है, तो उन धर्मोंको परिणामी मानना पडेगा, क्योकि परिणामी हुए बिना अन्य का आश्रय सम्भव नही है । ६४ । यदि कहोगे कि असमर्थ रहते ही स्वय कार्य कर देते है तो भी ठीक नहीं है, क्योंकि असमर्थ धर्म कोई भी कार्य नही कर सकता ।६५। ३ फलाभास-प्रमाणसे फल भिन्न ही होता है या अभिन्न ही होता है, ऐसा मानना फलाभास है । ६६ । योकि सर्वथा अभेद पक्ष में तो यह प्रमाण है ओर यह उसका फल' ऐसा व्यवहार ही सम्भव नहीं है । ६७॥ यदि व्यावृत्ति द्वारा अर्थात अन्य अफलसे जुदा प्रकारका मानकर फलकी कल्पना करोगे तो अन्य फलसे व्यावृत्त होनेके कारण उसीमें अफलकी कल्पना भी क्यो न हो जायेगी । ६। जिस प्रकार कि बौद्ध लोग अन्य प्रमाणकी व्यावृत्तिके द्वारा अप्रमाणपना मानते है । इसलिए प्रमाण व फल में वास्तविक भेद मानना चाहिए ॥ ६६-००१ सर्वथा भेव पक्षने 'यह इस प्रमाणका फल है' ऐसा नहीं कहा जा सकता ।७९। यदि समवाय द्वारा उनका परस्पर सम्बन्ध बैठानेका प्रयत्न करोगे तो अतिप्रसंग होगा, क्योंकि, एक, नित्य व व्यापक समवाय नामक पदार्थ भला एक ही आत्मामे प्रमाण व फलका समवाय क्यो करने लगा। एकदम सभी आत्मा के साथ उनका सम्बन्ध क्यो न जोड देगा | ७२ ॥
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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