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प्रमाण
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प्रमाणको लक्ष्य और प्रमाकरणको लक्षण माननेमे
दोष ।
प्रमाण और प्रमेयमें कचित् भेदाभेद ।
प्रमाण व उसके फलों में कचित् भेदाभेद ।
५ गणनादि प्रमाण निर्देश
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प्रमाणके भेद - १ गणनाको अपेक्षा २ निक्षेपकी अपेक्षा |
अन्य अनेकों भेद - अंगुल, सख्यात, असख्यात, अनंत, सागर, पल्य आदि प्रमाण ।
- दे० वह वह नाम ।
गणना प्रमाणके भेदोंके लक्षण । ३ निक्षेप रूप प्रमाणके लक्षण । गणना प्रमाण सम्बन्धित विषय ।
- दे० गणित ।
१. भेद व लक्षण
१ प्रमाण सामान्यका लक्षण १. निरु अर्थ
ससि / २ /१०/१० / २ प्रभिगोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्र या प्रमा णम् जो अच्छी तरह मान करता है, जिसके द्वारा अच्छी तरह मान किया जाता है या प्रमितिमात्र प्रमाण है । (रा.वा./१/१०/ १/४६/१३ )
क.पा/१/११/२७/३७/६ प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम् । जिसके द्वारा पदार्थ जाना जाता है उसे प्रमाण कहते है । ( आप./६) (स.म. / २८ / ३०७/१८ ) ( न्या. दी /१/६१०/११ ) २. अन्य अर्थ
१. आहारका एक दोष- दे०आहार / II / ४ । २. वसतिकाका एक दोष - दे० वसतिका; ३. Measure ( ज प / प्र १०७ )
२. प्रमाणके भेद
त. सू / २ / १०-१२ भावार्थ - प्रमाण दो प्रकारका है- प्रत्यक्ष व परोक्ष (ध. / ४.१.४४ / १४२ / ६) ( न च / १७० ) (१.मु / ९/१०२/२) (ज. १/१३/४०) (गो.जी.प. जी / २६६ / ६४० ) (ससा / आ./१३/क. ८ की टीका) ( स.न. /३० /३३१/२) (स्या. म. २८/२००११) (म्या.वी./२/११/२३) स.सि./१/६/२० / ३ तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थ परार्थं च । प्रमाण के दो भेद है - स्वार्थ और परार्थ । (रा. वा / १/६/४/३३/११ ) मा.सू //१/१/३/१ प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाप्रमाणानि प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान और शब्द के भेदसे प्रमाण चार प्रकारका है।
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३. प्रमाण के भेदोंके लक्षण
स.सि./१/६/२०/४ ज्ञानात्मकं स्वार्थं वचनात्मक परार्थम् । ज्ञानात्मक प्रमाणको स्वार्थ प्रमाण कहते है और वचनात्मक प्रमाण परार्थ प्रमाण बहलाता है (रा.वा./१/३/४/२३/११) (सि.वि. / /२/४/१२३) ( स.भ. त./१/६)
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४. प्रमाण के भेदोंका समीकरण
स.सि./१/६/२० / ३ तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्जम् ( वर्ज्यम् ) । श्रुत पुन. स्वार्थ भवति परार्थं च । श्रुतज्ञानको छोडकर शेष सब ( अर्थात् शेष चार ) ज्ञान स्वार्थ प्रमाण है परन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ और पदार्थ दोनो प्रकारका है। ( इस प्रकार स्वार्थ व परार्थ भी प्रत्यक्ष व परोक्षमे अन्तर्भुत है।)
रा.वा./१/२०/१५/००/१० एतान्यनुमानादीनि ते अन्तर्भवन्ति तस्मासेवा पृथगुपदेशो न क्रियते स्वपरप्रतिपतिि अन्तर्भवति । अनुमानादिका ( अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापति, सभव और अभाव प्रमाणका ) स्वप्रतिपत्तिकालमे अनक्षर समे और परंप्रतिपत्तिकालमे अक्षर श्रुतमें अन्तर्भाव होता है। इसलिए इनका पृथक् उपदेश नही किया है । आप / सविकल्प मानस तच्चतुर्विधम् । मतिश्रुतावधिमन पर्ययरूप निर्विकल्पं मनोरहितं केवलज्ञानं मति, बुत, अधि मनपय ये चार विकल्प है, और केवलज्ञान निर्विक और ननरहित है। इस प्रकार से भेद भी प्रत्यक्ष व परोक्षमें ही गर्भित हो जाते है।)
२ प्रमाण निर्देश
५. प्रमाणाभासका लक्षण
स.म. त/७४ /४ मिथ्यानेकान्त प्रमाणाभासः । = मिथ्या अनेकान्त प्रमाणाभास है ।
३० प्रमाण / ४२ ( सशयादि रहित मिथ्याज्ञान प्रमाणाभास है 1 ) दे० प्रमाण / २ / ८ ( प्रमाणाभास के विषय संख्यादि । )
२. प्रमाण निर्देश
१. ज्ञान ही प्रमाण है
ति. प./१/८३ गाणं होदि पमाण ज्ञान ही प्रमाण है। सू./१२/३/१२ १/२३/१५:१०/२/६३), (थ. १/१.१.१/ (म.प./ १७०), (प. मु०/१/१) (प.प./५/५४९) । २. सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है मिध्याज्ञान नहीं
श्लो. वा ३ / २ / १० /३८ / ६५ मिथ्याज्ञानं प्रमाणं न सम्यगित्यधिकारत. । यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता |३८| सूत्रमे सम्यक्का अधिकार चला आ रहा है, इस कारण संशयादि मिथ्याज्ञान प्रमाण नही है। जिस प्रकार जहाँपर अविसंवाद है वहाँ उस प्रकार प्रमाणपन व्यवस्थित है |
(सि वि. / १२ / १०).
तसा / २ / ३२ मति तावभिश्चैव मध्यसमवायिन मिध्याज्ञानानि कथ्यन्ते न तु तेषां प्रमाणता ॥३५॥ मिथ्यात्वरूप परिणाम होनेसे मंति, भूत व अवधिज्ञान मिध्याज्ञान कहे जाते है ये ज्ञान मिथ्या हो तो प्रमाण नही माने जाते ।
० प्रमाण /४/२ सशयादि सहित ज्ञान प्रमाण नहीं है।
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३. परोक्षज्ञान देशतः और प्रत्यक्षज्ञान सर्वतः प्रमाण है रीमा ३/९/१०/११/६६ स्वार्थे मतिज्ञानं प्रमाणं देशराः स्थितं ।
अवध्यादि तु कार्त्स्न्येन केवलं सर्ववस्तुषु ॥ ३६॥ स्वविषयमें भी एक देश प्रमाण है मति, श्रुतज्ञान। अवधि व मन पर्यय स्व विषयमे पूर्ण प्रमाण है । और केवलज्ञान सर्वत्र प्रमाण है ।
मा २/२/६/१०-२३/३८३ में भाषाकार द्वारा समन्तभद्राचार्यका उधृत वाक्य - मिथ्याज्ञान भी स्वाशकी अपेक्षा कथंचित् प्रमाण है । दे० ज्ञान / III / २ / ० ( ज्ञान वास्तव में मिया नहीं है कि मिध्यात्वरूप अभिप्रायवश उसे मिथ्या कहा जाता है।
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