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प्रभास
२. इस एक भावना में शेष १५ भावनाओंका समावेश
घ. ०/३०४२ / ११ / ३
पयणहायणस्स एणविशुनदादीहि अविणाभावादी । तेणेदं पण्णरसमं कारणं क्योकि, उत्कृष्ट, प्रवचन प्रभावनाका दर्शनादितादिको साथ अविनाभाव है। इसलिए यह पन्द्र कारण है ।
★ एक मार्ग प्रभावनासे तीर्थंकरत्व बंध संभव
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प्रभास - १ लवण समुद्रकी नैर्ऋत्य व वायव्य दिशामे स्थित द्वीप व उसके स्वामी देव - दे० लोक४/१ २. दक्षिण लवण समुद्रका स्वामी देव - दे० लोक/४/१ । ३ धातकी खण्डका रक्षक व्यन्तर देव - दे० लोक /४/२ ।
प्रभु
१०० बाईकम्मलयादी केला
विदिवपरमो
हामी पट्ट होई १०१ पाति कर्मोके से जिसने केवलज्ञानके द्वारा परमार्थको जान लिया है, सकल तत्त्वोका जिसने उपदेश दिया है, तथा निजस्वभावको जिसने प्राप्त कर लिया है, वह प्रभु होता है | १०८ ॥
पं का./त.प्र / २७ निश्चयेन भावकर्मणा, व्यवहारेण द्रव्यकर्मणामासववनसंवरण निर्जरणमोक्षमेषु स्वयमीत्याद प्रभु
निश्चयसे
भाव कर्मोंके आसव, बध, सवर, निर्जरा और मोक्ष करनेमे स्वय समर्थ होनेसे आत्मा प्रभू है। व्यहारसे प्रव्यकमोंके आसय, मध आदि करनेमें स्वयं ईश होनेसे वह प्रभु है ।
दे० भावना / २
पं. का./ता.वृ./२०/८०/११ निश्चयेन मोक्षमोक्षकारण रूपशुपरिणामपरिणमनसमर्थाय चाशुद्वनयेन संसारसारकारणरूपाशुद्रपरिणामपरिणमनसमर्थख्याय प्रभुर्भवति । निश्चयसे मोक्ष और मोक्षके कारण रूप शुद्ध परिणामसे परिणमनमे समर्थ होनेसे, और अशुद्ध नयसे ससार और संसारके कारण रूप परिणामसे परिणमनमें समर्थ होनेसे यह आत्मा प्रभु होता है।
प्रभुत्व शक्तिससा / आ / परि / शक्ति नं ७ अखण्डित प्रतापस्वाग्यशालित्वलक्षणा प्रभुत्वशति जिसका प्रताप अरण्डित है. ऐसा वात शोभायमानता जिसका लक्षण है, ऐसो प्रमुख
शक्ति है ॥७॥
प्रमत्त संयत- - दे०
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पं.का.
निर्वतमस्ताविकारशक्तिमात्रं प्रभुत्वं
प्राप्त
किये हुए समस्त ( आत्मिक) अधिकारोकी शक्ति मात्र रूप प्रभुत्व होता है।
१० सयत ।
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प्रमाण-स्वव पर प्रकाशक सम्यग्ज्ञान प्रमाण है। जैनदर्शनकार की भांति इन्द्रियविषय व सविर्षको प्रमाण नहीं मानते । स्वार्थ व परार्थ के भेदसे अथवा प्रत्यक्ष व परोक्षके भेदसे वह दो प्रकार है । परार्थ तो परोक्ष ही होता है, पर स्वार्थ प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनो प्रकारका होता है। तहाँ मतिज्ञानात्मक स्वार्थ प्रमाण तो साव्यवहारिक प्रत्यक्ष है, और श्रुतज्ञानात्मक स्वार्थ परोक्ष हैं। अवधि, मन पर्यय और केवल ये तीनो ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है । नैयायिकों के द्वारा मान्य अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, ऐतिह्य व शब्दादि सत्र प्रमाण यहाँ श्रुतज्ञानात्मक परोक्ष प्रमाणमे गर्भित हो जाते है। पहले न जाना गया अपूर्वपदार्थ प्रमाणका विषय है, और वस्तुकी सिद्धि अथवा हित प्राप्ति व अहित परिहार इसका फल है ।
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भेद व लक्षण
प्रमाण सामान्यका लक्षण ।
तर्क
प्रमाणके भेद | अन्य अनेकों भेद - अनुमान, उपमान, आगम, शायभिज्ञान शब्द, स्मृति, अर्थापत्ति आदि। - दे० वह वह नाम
न्यायकी अपेक्षा प्रमाणके भेदादिका निर्देश ।
प्रमाणके भेदोंके लक्षण 1
प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रमाण । परार्थं प्रमाण ।
प्रमाणके भेदों का समीकरण
प्रमाणाभासका लक्षण ।
प्रमाणका प्रामाण्य
प्रामाण्यका लक्षण ।
प्रमाण ज्ञानमें अनुभवका स्थान । स्वत व परतः दोनोंसे होता है।
प्रमाण
--दे० परीक्ष
प्रमाण निर्देश
ज्ञान ही प्रमाण है ।
सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है मिथ्याज्ञान नहीं ।
सम्यक् व मिथ्या अनेकान्तके
दे० अनेकात/९
प्रमाण व नय सम्बन्ध ।
-३० नय / 1 /२ व 11/ परोक्षज्ञान देशतः और प्रत्यक्ष ज्ञान सर्वतः प्रमाण है ।
सम्यग्यानी आत्मा ही कचित् प्रमाण है।
प्रमाणका विषय ।
- दे० वह वह नान
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-दे० अनुमान, हेतु
प्रमाणका फल |
वस्तु विवेचनमे प्रमाण नयका स्थान । - दे० न्याय / १
प्रमाणका कारण ।
उपचार में कथंचित् प्रमाणता । प्रमाणाभासके विषयादि ।
४ प्रमाण, प्रमेय, प्रमाताके भेदाभेद संबन्धी
शंका
-दे० उपचार/४
-३० अनुभ
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प्रमाण ज्ञान स्व पर व्यवसायात्मक होता है ।
- दे० ज्ञान / I/३ वास्तवमे आत्मा ही प्रामाण्य है ज्ञान नहीं ।
ज्ञानको प्रमाण कहनेसे प्रमाणका फल किसे मानोगे । ज्ञानको प्रमाण माननेसे मिथ्याज्ञान भी प्रमाण हो जायेगा ।
सन्निकर्ष व इन्द्रियको प्रमाण माननेमें दोष ।
प्रमाण व प्रमेयको सर्वथा मिन माननेमे दोष ।
ज्ञान व आत्माको भिन्न माननेमे दोष ।
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