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प्रभाव
सैद्धान्तिक के शिष्य और आभरण
कौमारदेव
थे ।
धर्मा थे। परीक्षामुख के कर्ता माणिक्यनन्दि आपके शिक्षा गुरु कृतिये प्रमेयम मार्तण्डान्द्रा विवरण, शाकटायन न्यास, शब्दाम्भोज भास्कर, समाधितन्त्र टीका, आत्मानुशासन टीका, समयसार टीका, प्रवचनसार सरोज भास्कर, पञ्चास्तिकाय प्रदीप, लघु द्रव्य संग्रह वृत्ति, महापुराण टिप्पणी ग कथा कोष, क्रिया कलाप टीका और किन्हीं विद्वानों के अनुसार रत्नकरण्ड श्रावकाचार को टीका भी समय- पं. महेन्द्र कुमार के अनुसार वि. १०३७-११२२; पं. कैलाश चन्दजी के अनुसार ई० १५०१०२० । (दे. इतिहास/७/५); (जै /२/३४८, १/३८८); (ती./३/४६, ५० ) । ६. नन्दिसंघ देशीयगण में मेघचन्द्र त्रैविद्य द्वि. के शिष्य और वीरनन्दि व शुभचन्द्र के महधर्मा । (दे. इतिहास / ७/५) । ७. सेन गण के भट्टारक बाल चन्द के शिष्य । कृतियें- सिद्धान्तसार की कन्नड़ टीका और पं. कैलाश चन्दजी के अनुसार रत्नकरण्ड श्रावकाचार की टीका । समय - वि. श. १३ ( ई० ११८५- १२४३) । नन्दि संघ बलात्कार गण की अजमेर गद्दी के अनुसार आप रत्न कीर्ति भट्टारक के शिष्य और पद्मनन्दि के शिष्य थे। समय- वि. श. १२ पूर्व अथवा लि. १२१०-१३०३ ई० १२५३-१६२८)
इतिहास /
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३/४) । (दे०इतिहास/७/३) । ६. श्रुत मुनि ( ई० १३४१ वि० १३६८) के शिक्षा गुरुसमा १४ का उत्तरार्ध (३० श० १४ पूर्व ) । (जै./२/१६५, ३४६)। १०. काष्ठासंधी आचार्य । गुरु परम्पराहेमकीर्ति, धर्मचन्द्र, प्रभाचन्द्र कृति- तत्त्वार्थ रत्न प्रभाकर । समय वि. १४८३ ई० १४३२/२/११-३००) १९ नन्दिसंप बलात्कार गण दिल्ली शाखा जो पीछे चित्तौड़ शाखा के रूप में रूपान्तरित हो गई । गुरु-जिनचन्द्र । समय- वि. १५७१-१५८६ ( ई० १५९४-९५२६) । (ती./३/३८४) ।
प्रभाव - स. सि. /४/२०/२५१/७ शापानुग्रहशक्तिः प्रभावः । शाप और अनुग्रह रूप वातिको प्रभाव कहते हैं (रा. मा./४/२०/२/२/ २३५ / १३ ) ।
प्रभावती -
पूर्व विदेहस्थ वत्सकावती देशकी मुख्य नगरी ।
दे० लोक/७ ।
प्रभावना - १ प्रभावना अंगका लक्षण
१. निश्चयकी अपेक्षा
स. सा./मू./२३६ विज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा । सो जापानी सम्मदिट्ठा मुणेो ॥२३६॥ जो पेटमा विद्यारूपी रथपर आरूढ हुआ, मन रूपी रथके पथमें ( ज्ञानरूपी रथके चलने के मार्ग में भ्रमण करता है, वह जिनेन्द्र भगवादके ज्ञानकी प्रभावना करनेवाला सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । २३६ । । रा.वा./६/२४/१/५२६/१५ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररत्नत्रय प्रभावेन आत्मनः प्रकाशन प्रभावनम् । =सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप रत्नत्रय के प्रभाव से आत्माको प्रकाशमान करना प्रभावना है। (चा. सा./५/४ ) (पु. सि. उ. / ३० ) ।
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६. सं./टी./३१/१००/१ निश्ययेन पुनस्तस्यैव व्यवहारप्रभावना गुणस्य तेन मियाभूति समस्त विभावपरिणामरूपपरसम यामाहा शुद्धोपयोग ज्ञानेन विशुद्धानदर्शनस्वभावशुद्धात्मनः प्रकाशनमनुभवनमेव प्रभावनेतिहार प्रभावना गुणके बल से मिथ्यात्व - विषय कषाय आदि सम्पूर्ण विभाव परिणामरूप परसमयके प्रभावको नष्ट करके शुद्धोपयोग लक्षणवाले स्वसंवेदन ज्ञानसे, निर्मल, ज्ञान, दर्शन रूप स्वभाव वाली निज
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प्रभावन
शुद्धात्माका जो प्रकाशन अथवा अनुभवन, वह निश्चयसे प्रभावना है।
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घ. १६ मोहारतिक्षतः शुद्धः शुद्धातरस्ततः जीवः शुद्धतमः कश्चिदस्तीत्यात्मप्रभावन। १८१६। कोई जीव मोह रूपी शत्रुके नाश होनेसे सुख और कोई जीव शुद्धसे शुद्धसर तथा कोई जीम शुद्धतम हो जाता है, इसी तरह उत्तरोत्तर शुद्धताका प्रकर्ष ही आत्मप्रभावना कहलाती है।८१
स. सा. / पं. जयचन्द / २३६ प्रभावनाका अर्थ प्रकट करना है, उद्योत करना है इत्यादि; इसलिए जो अपने ज्ञानको निरन्तर प्रगट करता हैमहाता है, उसके प्रभावना अंग होता है।
२. व्यवहारकी अपेक्षा
२. क. श्र. १ अज्ञानतिमिरव्याशिनपाकृत्य यथायथम् जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥१८॥ =अज्ञान रूपी अन्धकार के विनाशको जिस प्रकार बने उस प्रकार दूर करके जिनमार्गका समस्त मतावलम्बियों में प्रभाव प्रगट करना सो प्रभावना नामका आठवाँ अंग है । (का. अ./ ४२२-४२३ ) । सू. आ./२६४ धम्मका य बाहिरजोगे चाहिं धम्मो पहाविदव्वो जीवेसु दयाणुकंपाए | २६४ | महापुराणादि धर्मकथा के व्याख्यान करनेसे, हिंसा दोष रहित तपश्चरण कर, जीवोंकी दया
अनुकम्पा कर, जैन धर्मकी प्रभावना करनी चाहिए। आदि शब्दसे परवादियों को जीतना, अष्टांगनिमित ज्ञान, पूजा, दान आदि से भी प्रभावना करनी चाहिए | २६४ |
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रा. वा./६/२४/१२/५३०/१० ज्ञानरविप्रभया पर समायोसीयोरातिरस्कारिण्या, सत्तपसा महोपवासादिलक्षणेन सुरपतिविष्टर प्रकम्पनहेतुना जिनपूजया वा भव्यजनमतपण्डोधनप्रभया सद्धर्म प्रकाशन मार्गप्रभावनमिति संभाव्यते । पर समय रूपी जुगनुओं के प्रकाशको पराभूत करनेवाले ज्ञानरविकी प्रभारी इन्द्र के सिंहासनको कंपा देनेवाले महोपवासादि सम्यक् तपोंसे तथा भव्यजन रूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्यप्रभा के समान जिन पूजाके द्वारा सद्धर्मका प्रकाश करना मार्ग प्रभावना है । ( स. सि. / ६ / २४ / ३३६/५ ) (पू. सि. उ. १०) (चा. सा./५/३) (भा. पा./टी./००/२२१/१६)।
(इ.सं./टी./४१/१०७/२)
ध. ८/३,४१/११/१ आगमट्ठस्स पवयणमिदि सण्णा । तस्स पहावणं णाम णणणं तव्बुडिदकरणं च तस्स भावो पवग्रण पहावणदा । = आगमार्थ का नाम प्रवचन है, उसके वर्णजनन कीर्ति विस्तार या वृद्धि करनेको प्रवचनकी प्रभावना और उसके भावको प्रवचनप्रभावनता कहते हैं ।
भा.आ./वि./४५/१५०/५ धर्मस्थेषु मातरि पितरि भ्रातरि मानुरागो वात्सल्यं, रत्नत्रयादरो वात्मनः । प्रभावना माहात्म्यप्रकाशन रत्नत्रयस्य तद्वतां वा । रत्नत्रय और उसके धारक श्रावक और मुनिगणका महत्त्व बतलाना, यह प्रभावना गुण है । ऐसे गुणों से सम्यक्त्वक वृद्धि होती है ।
पं. घ. /उ./८१८-०१६ बाह्यः प्रभावनाङ्गोऽरिस विद्यामन्वादिभिः। तपोदानादिभिधर्मोत्कर्षो विधीयताम् १८१८ परेषामपकर्षाय मिष्यामि चमत्कारकर किचित्तद्विधेयं महात्मभिः| १६ | = विद्या और मन्त्रोंके द्वारा, बलके द्वारा, तथा तप और दानके द्वारा जो जैन धर्मका उत्कर्ष किया जाता है, वह प्रभावना अंग कहलाता है । तत्त्वज्ञानियोंको यह करना चाहिए | १८| मिथ्यात्व के. को बढ़ाने वाले मिध्यादृष्टियाँका अपकर्ष करनेके लिए जो कुछ चामत्कारिक क्रियाएँ हैं, वे भी महात्माओंको करनी चाहिए ११
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