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प्रदेशत्व
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प्रभाचंद्र
९. अन्य प्ररूपणाभों सम्बन्धी विषय सूची
(म. बं. ६/६...पृ.)
भुजगारादि- ज. उ. | षट्विषय ज.उ.पद
वृद्धि | गुण उत्तर
पद हानि | वृद्धि
ओघ व आदेशसे अष्ट कर्म प्ररूपणा १ मूल | समुत्कीर्तना
६/१०-१०२/६/१४६
५३-५४ १४७/७४ ६/१२५-१२६
भंगविचय
जीवस्थान व अध्यवसायस्थान
६/१५४-१५६/८३, ८४
प्रद्युम्न-ह. पु./सर्ग/श्लोक-अपने पूर्व के सातवें भवमें शृगाल था
(४३/११५) छठे भक्में ब्राह्मणपुत्र अग्निभूति (४३/१००), पाँचवें भवमें सौधर्म स्वर्ग में देव (४६/१३६ ), चौथे भवमें सेठ पुत्र पूर्ण भद्र (४३/१५८) तीसरे भवमें सौधर्म स्वर्गमें देव (४३/१५८), दूसरे भवमें मधु ( ४३/१६०) पूर्व भवमें आरणेन्द्र था (४३/४०) । वर्तमान भवमें कृष्णका पुत्र था ( ४३/४० ) जन्मते ही पूर्व वैरी असुरने इसको उठाकर पर्वतपर एक शिलाके नीचे दबा दिया (४३/४४) तत्पश्चात कालसंबर विद्याधरने इसका पालन किया (४३/४७) युवा होनेपर पोषक माता इनपर मोहित हो गयी (४३/५५) । इस घटनापर पिता कालसंबरको युद्धमें हरा कर द्वारका आये तथा जन्ममाताको अनेकों बालक्रीड़ाओं द्वारा प्रसन्न किया (४७/६७)। अन्तमें दीक्षा धारण की ( ६१/३६), तथा गिरनार पर्वतपरसे मोक्ष प्राप्त किया ( ६५/१६-१७) प्रद्युम्न चरित्र-१. आ० सोमकीर्ति ( ई० १४७४ ) द्वारा विरचित संस्कृत छन्द बद्ध ग्रन्थ । इसमें १६ सर्ग तथा कुल ४८०० श्लोक हैं । २. आ० शुभचन्द्र ( ई०१५१६-१५५६) द्वारा रचित संस्कृत छन्द बद्ध ग्रन्थ। प्रधान वाद-दे० सांख्यदर्शन । प्रध्वंसाभाव-दे० अभाव । प्रबंध काल-दे० काल/१। प्रभंकर-सौधर्म स्वर्गका २७ वाँ पटल व इन्द्रक-दे० स्वर्ग/२/३ ॥ प्रभंजन-१. मानुषोत्तर पर्वतका एक कूट व उसका स्वामी भवन
वासी वायुकुमारदेव-दे० लोकशि१० ।
उत्तर
सन्निकर्ष भंग विचय
६/२६४-५६५/१७८ ६/५६६-५६६/३५०-३५४
प्रदेशत्वरा. वा./२/७/१३/११३/१ प्रदेशवत्त्वमपि साधारण संख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशोपेतत्वात सर्वद्रव्याणाम् । तदपि कर्मोदयाद्यपेक्षाभावात पारिणामिकम् । = प्रदेशवत्त्व भी सर्व द्रव्यसाधारण है, क्योंकि सर्व द्रव्य अपने अपने संख्यात, असंख्यात वा अनन्त प्रदेशोंको रखते हैं । यह कर्मों के उदय आदिको अपेक्षाका अभाव होनेसे पारिणामिक है । आ. प./६ प्रदेशस्य भावः प्रदेशत्वं क्षेत्रत्वं अविभागिपुद्गलपरमाणुनावष्टब्धम् । = प्रदेशके भावको प्रदेशत्व अर्थात क्षेत्रत्व कहते हैं। वह अविभागी पुद्गल परमाणुके द्वारा घेरा हुआ स्थान मात्र होता है। * षट् द्रव्यों में सप्रदेशी व अप्रदेशी विभाग
दे० द्रव्य/३। प्रदेश विरच-ध. १४/५,६,२८७/३५२/३ कर्म पुद्गलप्रदेशो विरच्यते
अस्मिन्निति प्रदेश विरचः कर्म स्थितिरिति यावत् । अथवा विरच्यते इति विरच: प्रदेशश्चासौ विरचश्च प्रदेश विरचः बिरच्यमानकर्मप्रदेश इति यावत् । - कर्म पुदल प्रदेश जिसमें विरचा जाता है अर्थात स्थापित किया जाता है वह प्रदेश विरच कहलाता है। अभिप्राय यह है कि यहाँपर प्रदेश विरचसे कर्म स्थिति ली गयी है। अथवा विरच पदकी निरुक्ति यह है-विरच्यते अर्थात जो विरचा जाता है उसे विरच कहते हैं। तथा प्रदेश जो बिरच वह प्रदेश विरच कहलाता है । प्रदेश विरच्यमान कर्म प्रदेश यह उसका अभिप्राय है। प्रदोष-स. सि./६/१०/३२०/१० तत्त्वज्ञानस्य मोक्षसाधनस्य कोत ने कृते कस्यचिदनभिव्याहरतः अन्तःपैशुन्यपरिणामः प्रदोषः। तत्त्वज्ञान मोक्षका साधन है, उसका गुणगान करते समय उस समय नहीं बोलने वालेके जो भीतर पैशुन्य रूप परिणाम होता है वह प्रदोष है। (रा.बा./६/१०/१/५१७) (गो. क./जी. प्र./८००/१७६/६)। गो, क./जी. प्र./८००/898/8 तत्प्रदोषः तत्त्वज्ञाने हर्षाभावः । - तत्त्व
ज्ञानमें हर्ष का अभाव होना प्रदोष है।। रा, बा, हि./६/१०/४६४-४१५ कोई पुरुष (किसी अन्यकी) प्रशंसा करता होय, ता. कोई सराहै नाहीं, ता. सुनकर आप मौन रावै अन्तरंग विषै बा सूं अदेखसका भाव करि तथा (वाकू) दोष लगाबनेके अभिप्राय करि वाका साधक न करे ताके ऐसे परिणाम . प्रदोष कहिए।
प्रभ-सौधर्म स्वर्गका २१ वाँ पटल व इन्द्रक ।-दे० स्वर्ग/५ प्रभा-रा. वा./३/१/४/१५४/२३ न दीप्तिरूपैव प्रभा। किं तहि । द्रव्याणां स्वात्मैव मृजा प्रभा यत्संनिधानात् मनुष्यादीनामयं संव्यवहारो भवति स्निग्धकृष्णप्रभमिदं रूक्षकृष्णप्रभमिदमिति ।
केवल दीप्तिका नाम ही प्रभा नहीं है किन्तु द्रव्यों का जो अपना विशेष विशेष सलोनापन होता है, उसीको कहा जाता है कि यह स्निग्ध कृष्णप्रभावाला है। यह रूक्ष कृष्ण प्रभा वाला है। प्रभाकर भट्ट-१. योगेन्दुदेवके शिष्य दिगम्बर साधु थे। योगेन्दु देवके अनुसार इनका समय भी ई.श.६ आता है । (प.प्र./प्र. १००/A. N. Up) मीमांसकोंके गुरु थे। कुमारिल भट्टके समकालीन थे। समय-(ई० ६००-६२५) (प. प्र./प्र./१००/A. N. up (स्याद्वाद सिद्धि/प्र. २०/ पं. दरबारी लाल कोठिया) (विशेष दे. मीमांसा दर्शन)। प्रभाकर मत-दे० मीमांसक दर्शन । प्रभाचंद्र-इस नाम के अनेकों आचार्य हुए हैं-१. नन्दिसंघ बला
स्कारगण की गुर्वावली के अनुसार लोकचन्द्र के शिष्य और नेमिचन्द्र के गुरु । समय-शक ४५३-४७८ (ई०५३१-५५६)। (दे. इतिहास/ ७/२)। २. अकलंक भट्ट (ई०६२०-६८०) के परवर्ती एक आचार्य जिन्होंने गृद्धपिच्छ कृत तरवार्थ सूत्र के अनुसार एक द्वितीय तत्वार्थ सूत्र की रचना की। (ती./२/३००)। ३. राष्ट्रकूट के नरेश गोविन्द तृ. के दो ताम्रपत्रों (शक ७११-४२४) के अनुसार आप तोरणाचार्य के शिष्य और पुष्पनन्दि के शिष्य थे। समय-लगभग शक ७१०-०६४
ई०७८८-८३२)। (जै./२/११३)। ४. महापुराण के कर्ता जिन मेन (ई०८१८-८७८) से पूर्ववर्ती जो कुमारसेन के शिष्य थे। कृतिन्याय का ग्रन्थ 'चन्द्रोदय'। समय-ई०७६७ (ह. पु./प्र.८/पं. पन्ना लाल)। ५. नन्दिसंघ देशीयगण गोलाचार्य आनाय में आप पदनन्दि
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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