________________
प्रमाण
और एवंभूतनयके भेदसे नयप्रमाण सात प्रकार का है। दे० निक्षेप /१ नाम स्थापनादिकी अपेक्षा भेद ।
२. गणना प्रमाण के भेदक लक्षण
रा.वा /३/३८/३/२०५/२३ तत्र मानं द्वेधा रसमानं बोजमानं चेति । घृतादिद्रव्यपरिच्छेदकं षोडशिकादि रसमानम् । कुडवादि बीजमागए। कुष्ठतगरादिभाण्डं येनोत्क्षिप्य मीयते तदुन्मानम्। निवर्त नाभा क्षेत्रं येनावगाह्य मोयते तदयमानं दण्डादि एकद्वित्रिचतुरादिगणितमान गणनामानम् । पूर्वमानापेक्षं मानं प्रतिमानं प्रतिमल्लवत् । चत्वारि महिधिका तृणफलानि श्वेतसर्षप एकः, इत्यादि मागधकप्रमाणम् । मणिजात्यजात्यश्वादेर्द्रव्यस्य दीप्त्युच्छ्रागुणविशेषादिपरिमाणवरणे प्रमाणमस्येति तत्प्रमाणम्। यथामणिरत्नस्य शिवक्षेत्रमुपरि व्याप्नोति तावत्रमा मुकूटं मुण्यमिति। अश्वस्य च यावामुच्छ्रायस्तावतामार्ण सुवर्ण कूटं मुख्य-१, मानके दो भेद हैं- रसनाम व भीमान भी आदि तरल पदार्थोंको मापनेकी छटंकी आदि रसमान है। और धान्य मापने के कुडव आदि बोजमान है । २. तगर आदि द्रव्योको ऊपर उठाकर जिनसे तोला जाता है वे तराजू आदि उन्मान है । ३. खेत मापनेके डंडा आदि अवमान है । ४ एक दो तीन आदि गणना है । ५. पूर्व की अपेक्षा आगे मानोकी व्यवस्था प्रतिमान है जैसे--चार मेहदीके फलोका एक सरसो इत्यादि मगध देशका प्रमाण है। ६. मणि आदिकी दीप्ति, अश्वादिकी ऊँचाई गुण आदिके द्वारा मूल्य निर्धारण करने के लिए समाणका प्रयोग होता है जैसे—मणिकी प्रभा ऊपर जहाँ तक जाये उतनी ऊँचाई तक सुवर्णका ढेर उसका मुल्य होगा घोडा जितना ऊंचा हो उतनी ऊँची सुवर्ण मुद्राएँ घोडेका मूल्य है । आदि । नोट-लोकोत्तर प्रमाणके भेदोके लक्षण दे० अगला शीर्षक ।
३. निक्षेप रूप प्रमाणोंके लक्षण
नोट - नाम स्थापनादि प्रमाणोंके लक्षण-- दे० निक्षेप । रावा./३/३०/४/२०६/१० द्रव्यमाणं जघन्यमध्यमोत्कृटस् एकपरमाणु द्वित्रिचतुरादिप्रदेशात्मकम् आमहास्कन्धात् । क्षेत्रप्रमाण जघन्य - मध्यमोत्कृष्टमेकाकाशद्वित्रिचतुरादिप्रदेशनिष्यन्ननासर्व लोकाद
1
काप्रमाणं जघन्यमध्यमस्मद्वचतुरादिसमयनिष्पन्नम् आ अनन्तकालात् । भावप्रमाणमुपयोग. साकारानाकारभेदः जघन्यसुक्ष्मनिगोतस्य मध्यमोऽन्यजीवाना उत्कृष्ट केनलिन द्रव्य प्रमाण एक परमाणु से लेकर महास्कन्ध पर्यन्त, क्षेत्र प्रमाण एक प्रदेशसे लेकर सर्व लोक पर्यन्त, और काल प्रमाण एक समयसे लेकर अनन्त काल पर्यन्त जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन तीन प्रकारका है । भाव प्रमाण अर्थात् ज्ञान दर्शन उपयोग। वह जघन्य सूक्ष्म निगोदके, उत्कृष्ट केवलीके, और मध्यम अन्य जीवोके होता है।
..
घ. १/१,९,९/८०/२ तत्थ दव्ब-पमाण संखेज्जमसंखेज्जमणतय चेदि । मार्ग एय-पदेशादि कालपमाण समयावलियादि । = संख्यात, असंख्यात और अनन्त यह द्रव्य प्रमाण है । एकप्रदेश आदि क्षेत्र प्रमाण है । एक समय एक आवली आदि काल प्रमाण है । .पा/२/१२/२०१४९.१)
क.पा./१/११/२७/३८-३६/६ पल तुला कुडवादी णि दव्व- पमाण', दव्व तर परिच्छित्तिकारणत्तादो। दव्वपमाणेहि मविदजव-गोहूम आदिसणाओ उनमारभनघणाओ ति ण तैसि माणसं कि पमेयतमेव । अगुतादि ओमाहाओ लेन्तपमानं 'प्रमीयन्ते अ बाह्यन्ते अनेन दोषद्रव्यानि इति अस्य प्रमाणत्वसिद्ध पल तुला और कुडव आदि द्रव्यप्रमाण है। क्योंकि, ये सोना, चाँदी, गेहूँ आदि दूसरे पदार्थोंके परिमाणके ज्ञान कराने में कारण पडते है ।
भा० ३-१९
Jain Education International
**
१४५
प्रमाद
किन्तु द्रव्यप्रमाण रूप पल, तुला आदि द्वारा मापे गये जो गेहूँ आदिमे ओ कुडन और तुला आदि सहाएँ व्यवडत होती है, वे उपचार निमित्तक है, इसलिए उन्हें प्रमाणता नही है, किन्तु वे प्रमेय रूप ही हैं। अंगुल आदि रूप अवगाहनाएँ क्षेत्रप्रमाण है. क्योंकि, जिसके द्वारा शेष द्रव्य प्रमित (अवगाहित किये जाते है, उसे प्रमाण कहते है, प्रमाणकी इस व्युत्पत्ति के अनुसार अंगुल आदि रूप क्षेत्रको भी प्रमाणता सिद्ध है। प्रमाणनयतस्वालंकार - ० मानिकपनन्दि (१०१००३-९०२८) द्वारा रचित परीक्षामुख ग्रन्थकी श्वेताम्बराचार्य वादिदेव सूरि ( ई० ६० १११७-११६६ ) द्वारा रचित टीका । न्यायविषयक ग्रन्थ है । इस ग्रन्थका दूसरा नाम स्याद्वादरत्नाकर भी है। प्रमाण निर्माण नामकर्म - दे० नामकर्म | प्रमाण पद दे० पद प्रमाण परीक्षा -आ० विद्यानन्द सं० १ ( ई० ७७५-८४०) कृत संस्कृत छन्दबद्ध न्यायविषयक ग्रन्थ । (ती /३/३५५) प्रमाण मीमांसा -१, आ० विद्यानन्दि ( ई० ७७५-८४०) द्वारा संस्कृत भाषामे रचित न्यायविषयक ग्रन्थ है। २. खेताम्मराचार्य हेमचन्द्र सूरि ( ई० १०८८-११७३ ) द्वारा रचित न्यायविषयक
ग्रन्थ ।
प्रमाण योजन- क्षेत्रका प्रमाण विशेष- दे० गणित /I/१/३ । प्रमाण राशि - गणित में विवक्षित प्रमाण कर जो फल या उत्तर होये । विशेष गत17/५/२
प्रमाण विस्तार -आ० धर्मभूषण ( ईं० श० १४ ) द्वारा संस्कृत
भाषामें रचित न्यायविषयक ग्रन्थ ।
प्रमाण संग्रह - आ० अकलंक भट्ट ( ई० ६२०-६०० ) रचित न्याय विषयक यह ग्रन्थ बहुत जटिल है । संस्कृत गद्य व पद्य निवद्ध है, तथा इनकी अन्तिम कृति है । इसपर आ० अनन्तवीर्य ( ई० ६७५१०२५) कृत प्रमाण संग्रहालंकार नामकी एक संस्कृत टीका उपलब्ध है । इसमे प्रस्ताव तथा कुल ७२ कारिकाएँ है । स्वयं अकल कदेवने इन कारिकाओं पर एक विकृति लिखी है। दोनो मिलकर कुल गद्य व पद्य प्रमाण ८०० श्लोक प्रमाण है । प्रमाण सप्तभंगी - दे० सप्तभगी/२ ।
प्रमाणांगुल
क्षेत्र प्रमाणका एक भेद--दे० गणित / I/१/३, ६
प्रमाता
सू./१/१०त्र यस्येप्सा जिहासामयुतस्य प्रवृत्तिः स प्रमाता = जो वस्तुको पाने या छोड़नेकी इच्छा करता है उसे प्रमाता कहते है।
★ प्रमाता व प्रमाण में कथञ्चित् भेदाभेद- दे० प्रमाण | ४ | प्रमाद १. कषायके अर्थ
स.सि./ ०/१३/३/२/२ प्रमाद सपा अवस्थाको रहते है।
= प्रमाद कषाय सहित
घ. ७/२,१,७/११/११ चदुसंजलण णवणोकसायाण तिव्बोदओ । =चार सज्वलन कषाय और नव नोकषाय, इन तरहके तीव्र उदयका नाम प्रमाद है ।
२ अनुत्साह के अर्थ में
1
स.सि./ / २ / २०४/८ स च प्रमाद कुसेपनादर अच्छे कार्योंके करने मे आदर भावका न होना यह प्रमाद है । (रा.वा./८/१/३०/५६४/२०)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org