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वंदना
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वंदनामुद्रा
कर्तव्यं ।...उपदिष्टः सर्वे जिन. कर्मभूमिषु। = यह वन्दना कार्य किसको करना चाहिए, किसके द्वारा करना चाहिए, कब करना चाहिए, किसके प्रति कितने बार करना चाहिए। अभ्युत्थान कर्तव्य है, वह किसने बताया है, तथा किस फलकी अपेक्षा करके यह करना चाहिए । सो इस कर्तव्यका कर्मभूमि वालोंके लिए सर्व जिनेश्वरीने उपदेश दिया है। ( इसका क्या फल व महत्त्व है यह बात 'विनय' प्रकरण में बतायी गयी है। शेष बाते आगे क्रम पूर्वक निर्दिष्ट हैं।)
४. वन्दना किनको करनी चाहिए चा. सा./१५६/२ अतश्चैत्यस्य तदाश्रयचैत्यालयस्यापि बन्दना कार्या । ...गुरूणां पुण्यपुरुषोषितनिरवद्यनिषद्यास्थानादीनामुच्यते क्रियाविधानम् । जिन बिम्बकी तथा उसके आश्रयभूत चैत्यालयकी वन्दना करनी चाहिए। आचार्य आदि गुरुओको तथा पुण्य पुरुषोके द्वारा सेवनीय उनके निषद्या स्थानोकी बन्दना विधि कहते है। दे वंदना/१ ( चौबीस तीर्थकरोकी, भरत आदि केवलियोकी,
आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, वृद्ध साधु, तथा चैत्य चैत्यालयकी वन्दना करनी चाहिए।)-(और भी दे०/कृतिकर्म/२/४ )।
५. वन्दनाकी तीन वेलाएँ व काल परिमाण ध.१३/५,४,२८/८६/१ पदाहिणाणमंसणादिकिरियाणं तिण्णिवारकरणं तिवखुत्तं णाम । अधवा एक्कम्हि चेव दिवसे जिणगुरु रिसिवंदजाओ तिण्णिवारं किज्जति त्ति तिवखुत्तं णाम। तिसझासु चेव बंदणा कीरदे अण्णत्थ किष्ण करिदे। ण अण्णत्थ वि तप्पडिसेहणियमाभावादो। तिसज्झासु बंदणणियमपरूवण तिववृत्तमिदि भणिद। प्रदक्षिणा और नमस्कार आदि क्रियाओका तीन बार करना त्रि कृत्वा है। अथवा एक ही दिनमें जिन, गुरु, ऋषियोंकी वन्दना तीन बार की जाती है, इसलिए इसका नाम त्रि कृत्वा है। प्रश्न-तीनो हो सन्ध्याकालो में वन्दना की जाती है, अन्य समयमें क्यों नहीं की जाती। उत्तर-नहीं, क्योकि, अन्य समयमै भी वन्दनाके प्रतिषेचका कोई नियम नही है। तीनो सन्ध्याकालोमें वन्दनाके नियमका कथन करनेके लिए 'त्रि कृत्वा' ऐसा कहा है। अन.ध/८/७/८०७ तिस्रोऽहोन्या निशश्चाद्या नाड्यो व्यत्यासिताश्च
ता. । मध्याह्नस्य च षटकालास्त्रयोऽमी नित्यवन्दने ७४/-उक्त चमुहूर्तत्रितय काल संध्यानो त्रितये बुधैः। कृतिकर्मविधेनित्य' परो नैमित्तिको मत' ॥ -तीन सन्ध्याकालोमें अर्थात पूर्वाह, अपराह्न, व मध्याह्नमें वन्दनाका काल छह-छह घडी होता है। वह इस प्रकार है कि, सूर्योदयसे तीन घडी पूर्वसे लेकर सूर्योदयके तीन घड़ी पश्चाव तक पूर्वाह्न बन्दना, मध्याह्नमें तीन घडी पूर्व से लेकर मध्याह्नके तीन घड़ी पश्चात तक मध्याह्न वन्दना, और इसी प्रकार सूर्यास्तमें तीन घडी पूर्वसे सूर्यास्तके तीन घडी पश्चात तक अपराहिक बन्दना । यह तीनो सन्ध्याओंका उत्कुष्ट काल है जैसे कि कहा भी है-कृतिकर्मकी नित्यकी विधिके कालका परिमाण तीनो सन्ध्याओमें तीनतीन मुहूर्त है। (अन. ध./६/१३ ) ।
५ साधुसंघमें परस्पर वन्दना व्यवहार। -दे. विनय/३, ४ । ६. चैत्यवन्दना या देववन्दना विधि । चा. सा /१५६/५ आत्माधीन' सच्चैत्यादीच प्रतिबन्दनाथ गत्वा धौतपादस्त्रिप्रदक्षिणीकृत्यैर्यापथकायोत्सर्ग कृत्वा प्रथममुपविश्यालोच्य चैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करोमीति विज्ञाप्योत्थाय जिनेन्द्रचन्द्रदर्शनमात्रन्निजनयनचन्द्रकान्तोपल विगलदानन्दा जलधारापूरपरिप्लावितपक्ष्मपुटोऽनादिभवदुर्लभभगवदह परमेश्वरपरमभट्टारकप्रतिबिम्बद - निजनितहर्षोत्कर्ष पुल किततनुरतिभक्तिभरावनतमस्तकन्यस्तहस्तकु - शेशयकुड्मलो दण्डकद्वयस्यादावन्ते च प्राक्तनक्रमेण प्रवृत्त्य चैत्यस्तवेन त्रि'परीत्य द्वितीयवारेऽप्युपविश्यालोच्य पञ्चगुरुभक्तिकायोत्सर्ग करोमीति विज्ञाप्योत्थाय पञ्चपरमेष्ठिन स्तुत्वा तृतीयवारेऽप्युपविश्यालोचनीया । ......प्रदक्षिणीकरणे च दिक्चतुष्टयावनतौ चतु शिरो भवति । एव देवतास्तवनक्रियायो चैत्यभक्ति पञ्चगुरुभक्ति च क्लर्यात । -आत्माधीन होकर जिनबिम्ब आदिकोंकी वन्दनाके लिए जाना चाहिए। सर्व प्रथम पैर धोकर तीन प्रदक्षिणा दे ईर्यापथ कायोत्सर्ग करे। फिर बैठकर आलोचना करे। तदनन्तर मै 'चेत्यभक्ति कायोत्सर्ग करता हूँ' इस प्रकार प्रतिज्ञा कर तथा खड़े होकर श्री जिनेन्द्रके दर्शन करे। जिससे कि आँखोमे हर्षाश्रु भर जाये, शरीर हर्ष से पुलकित हो उठे और भक्तिसे नम्रीभूत मस्तकपर दोनों हाथोको जोड़कर रख ले। अब सामायिक दण्डक व थोस्सामिदण्डक इन दोनों पाठोको आदि व अन्तमें तीनतोन आवर्त व एक-एक शिरोनति सहित पढे। दोनोके मध्यमें एक नमस्कार करे (दे० कृतिकर्म/४) तदनन्तर चैत्यभक्तिका पाठ पढे तथा बैठकर तत्सम्बन्धी आलोचना करे। इसी प्रकार पुन दोनो दण्डको व कृतिकर्म सहित पचगुरुभक्ति व तत्सम्बन्धी आलोचना करे। प्रदक्षिणा करते समय भी प्रत्येक दिशामें तीन-तीन आवर्त और एक शिरोमति की जाती है। इस प्रकार चैत्य वन्दना या देव वन्दनामें चैत्यभक्ति व पचगुरु भक्ति की जाती है। (भ, आ./वि./११६/२७५/ ११पर उद्धृत), (अन. ध/९/१३-२१)।
७. गुरु वन्दना विधि
अन.ध./8/३१ लध्व्या सिद्धगणिस्तुत्या गणी वन्द्यो गवासनात् । सैद्धान्तोऽन्त श्रुतस्तुत्या तथान्यस्तन्नति विना ।३१ -उक्त चसिद्धभक्या बृहत्साधुर्वन्द्यते लघुसाधुना । लघ्या. सिद्धश्रुतस्तुत्या सैद्धान्त प्रणम्यते । सिद्धाचार्यलघुस्तुत्या वन्द्यते साधुभिर्गणी। सिद्ध श्रुतगणिस्तुत्या नव्या सिद्धान्तविद्गणी। साधुओको आचार्यकी बन्दना गवासनसे बैठकर लघुसिद्धभक्ति व लघु आचार्यभक्ति द्वारा करनी चाहिए। यदि आचार्य सिद्धान्तवेत्ता है, तो लघु सिद्धभक्ति, लघु श्रुतभक्ति व लघु आचार्यभक्ति करनी चाहिए। जैसा कि कहा भी है-छोटे साधुओको बड़े साधुओंको वन्दना लघु सिद्धभक्ति पूर्वक तथा सिद्धान्तवेत्ता साधुओं की वन्दना लघुसिद्वभक्ति और लघुश्रुतभक्तिके द्वारा करनी चाहिए । आचार्यकी वन्दना लघुसिद्धभक्ति व लघु आचार्यभक्ति द्वारा, तथा सिद्धान्तवेत्ता आचार्यकी बन्दना लघु सिद्धभक्ति, लघु श्रुतभक्ति और लघु आचार्यभक्ति द्वारा करनी चाहिए।
4. वन्दना प्रकरणमें कायोत्सर्गका काल
* अन्य सम्बन्धित विषय १. वन्दनाका फल गुणश्रेणी निर्जरा। २. वन्दनाके अतिचार। ३. वन्दनाके योग्य आसन मुद्रा आदि। ४. एक जिन या जिनालयकी वन्दनासे सबकी वन्दना हो जाती है।
-दे० पूजा/२। -दे० व्युत्सर्ग/१। -दे० कृतिकर्म/३ ।
दे० कायोत्सर्ग/१ ( बन्दना क्रियामें सर्वत्र २७ उच्छ्वासप्रमाण कायो
त्सर्गका काल होता है।) वंदनामुद्रा-दे० मुद्रा।
---दे० पूजा/३।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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