________________
भवनतापि आकाशोपपत्र देव
भवनतापि आकाशोपपन्न देव - दे० दे० /11 / ३ |
भवन भूमि दे० समवशरणको ७ वी भूमि । भव परिवर्तन रूप संसार--३० संसार / २। भवप्रत्यय ज्ञान दे० अवधिज्ञान / १,६ भव प्रत्यय प्रकृतियों-दे० प्रकृतिबन्ध/२ । भव विचय धर्मध्यान- - दे० धर्म ध्यान / १ । भव विपाको प्रकृतियों ०२ भव स्थिति स्थिति में फायरिथति अन्तर दे०स्थिति/२ | भवाद्धा - गो. जी. / भाषा/२५०/५६६/१२ पर्यायसम्बन्धी (पर्याय विशेष मे परिभ्रमणका उत्कृष्ट काल ) तो भवाद्धा है ।
-
भवितव्य ०४
भविव्यवत कथा भट्टारक श्रीधर (ई. पा. १४ ) की एक प्राकृत छन्द बद्ध रचना । (ती /३/१८७)
-
---
भविष्यदत्त चरित्र -
रायमल्लई १६३६-१६१०).
(ती./४/-३)।
२. पं. पद्म सुन्दर (ई० १५६७ ) कृत संस्कृत काव्य | भविष्यवाणी-आगममे अनेको विषयो सम्बन्धी भविष्यवाणी की
गया है । यथा
--
२११
ति. १ /४/१४-१, १४६३-१४६५ मउडधरेसु चरिमो जिणदिवख धरदि तोय तो मरा पे मेहति १४११ वीससहस्से दिसया सचारवदराणि मुदतित्थ धम्मपट्टण सादिदो १४६३० तेत्तियमेकाले जम्मिस्सादि चाम्पसमा विणी तुम्मेोविय असूयको य पण १४४ उमदेहिम जुतो सम्लगार सि राग कुरो को तोओ १२६५१ मुनिदीक्षा सम्बन्धीमुकुटधरोमें अन्तिम चन्द्रगुप्तने जिनदीक्षा धारण की। इसके पश्चाद मुकुटधारी दीक्षाको धारण नही करते । १४८१ । २ द्रव्य श्रुतके व्युच्छेद सम्वन्धी तीर्थं धर्म प्रवर्तनका कारण है. यह बीस हजार तीन सौ सतरह (२०११० वर्षोंने काल दोषसे व्युको प्राप्त हो जायेगा | १४६३ | ३. चतुसघ सम्बन्धी- इतने मात्र समयमे (२०३१७ वर्ष तक ) चातुर्वर्ण्य सब जन्म लेता रहेगा | १४ ६३ ४ मनुष्य की वृद्धि सम्बन्धी किन्तु काय अविनीत दुर्बुद्धि, असूयक, सात भय व आठ मोमे सयुक्त, शव्य एव गारवोसे सहित, कलह प्रिय, रागिष्ठ, क्रूर एव क्रोधी होगा | १४६५ ॥
देन भरत महाराज १६ ना फल वर्णन करते हुए भगवान् ऋषभदेवने पमकालमे होनेवाली घटनाओ सम्बन्वो भावष्य वाणी की।
Jain Education International
भव्य संगार ने एक नेको यता सहित मंगारी जोबोको भव्य और वैसन्ति जो अभव्य बहते हे। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि सारे जो अवमुक्त हो जायेगे । यदि यह सम्यक् पुरुषार्थ करे त मुक्त हो सकता है अन्यथा नहीं, ऐसा अभिप्राय है। मे भा कुछ ऐसे होते हे जो कभी भी उस प्रकारका पुरुषार्थ नही करेगे, ऐने जोवोका अभवन समान भव्य वहा जाता है और न जानेपर पुरुषार्थ करेंगे उन्हें दूर कहा जाता है। जोयाका न भव्य कह सकते है न अभव्य ।
I
भव्य
१. भेद व लक्षण
१. मव्य व अभव्य जीवका लक्षण
सस /२/०/१६१/३ सम्यग्दर्शनादिभावेन भविष्यतीति भव्य । तद्विपरीतोऽभव्य । जिसके सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रकट होनेकी योग्यता है वह भव्य कहलाता है। अभव्य इसका उलटा है। ( रा था /२/७/२/१११/०)
पस / प्रा / १५५-१५६ संखेज्ज असखेज्जा अण तकालेण चावि ते णियमा । सिज्झति भव्यजीवा अभव्वजी वाण सिज्यंति । १५५ । भविया सिद्धी जेसि वीवाणं ते भवंति भवसिद्धा । तव्विवरीयाभव्त्रा ससाराओ ण सिज्झति । १५६। - जो भव्य जीव है वे नियमसे संख्यात, असख्यात व अनन्तकालके द्वारा मोक्ष प्राप्त कर लेते है परन्तु अभव्य जीव कभी भी मोक्ष प्राप्त नही कर पाते है। जो जीव सिद्ध पदकी प्राप्ति योग्य है उन्हे भयसिद्ध कहते है और उनसे विपरीत जो जो ससारसे छूटकर सिद्ध नहीं होते वे अभव्य है । ९४४ १५६। ( ४.१ / १.२.१४२/गा, १९९ / ३६४ ) ( रा. मा /१/७/११/६०४/१४), (प ७/२,१.२/७/५), (न.च.वृ./१२७) (गोजी २५७/१७) १/४.५५०/२०६/२ भवतीति भव्य आगम) वर्तमान कालमें
1
है इसलिए उसकी भव्य सज्ञा है । नि सा./ता वृ / १५६ भाविकाले स्वभावानन्त चतुष्टयात्म सहजज्ञानादिगुणै भवनयोग्या भव्या एतेषा विपरीता ह्यभव्याः: भविष्यकालमें स्वभाव - अनन्त चतुष्टयात्मक सहज ज्ञानादि गुणोरूपसे भवन ( परिणमन) के याग्य (जीव ) वे भव्य हैं, उनसे विपरीत (जीव ) वे वास्तवमे अभव्य है । ( गो जी./जी. प्र./७०४ / ११४५/८ ) । इस /टी./२१/०४/४ की वृतिका स्वशुद्धात्मसम्यक् अद्वानज्ञानानुचरणरूपेण भविष्यतीति भव्यः । - निज शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरण रूपसे जो होगा उसे भव्य कहते है । २. मध्य अमय जीवकी पहिचान
प्रसा / तू / ६२ णो मद्दहति सोक्खं सुहेसु परमंति विगदधादीण । सूणिदूण ते अभव्या भव्वा वा त पडिच्छति । 'जिनके घातोकर्म नष्ट हो गये है, उनका सुव (सर्व) सुखोमें उत्कृष्ट है' यह सुनकर जो श्रद्धा नही करते वे अभव्य है, और भव्य उसे स्वीकार ( आदर ) करते है श्रद्वा करते हैं। पं.वि./२/१३ प्रतिप्रीति येन वापि हि श्रुता निश्चित स भवेभ्यो भाविनिर्गनभाजनम्॥ २३॥उस आत्मतेजके प्रति मन प्रमको वारण करके जिसने उसकी बात भी सुनी है वह निश्चय से भव्य है । वह भविष्य मे प्राप्त होनेवाली मुक्तिका पात्र है ।२२
३. भव्य मार्गण के भेद
१९४९/२१२ भन्यावादे अस्थि रसिया भ सिलिया । १४९। == भव्यमार्गणाने अनुवाद से भव्यसिद्ध और अभव्यसिद्ध जीव होते है १४१। ( द्र. स /टी./१३/३८/६ ) | घ. /२०/२१/९६/६ सिद्धिवि अरिय अभवसिखिया वि नामिद्विया व अभवसिद्विया वि अत्थि । =भव्यमिद्विक जब होते है, अभाद्विक जीव होते है और भव्यसिद्विक तथा raffe इन दोनो विकल्पोसे रहित भी स्थान होता है ।
ग. जी / जी / ७०५ / ११४१ / २ भव्य स च आसन्नभव्य दूरभव्य अभव्यभव्यश्चेति त्रेधा । = भव्य तीन प्रकार है- आसन्न भव्य, दूर भव्य और भव्यसम भव्य ।
४. आसन व दूर भव्य जीवके लक्षण
प्रसा / त प्र / ६० ये पुनरिदमिदानीमेव वच प्रतीच्छन्ति ते शिश्रियो भोजन ममासन्नभव्या भवन्ति । ये तु पुरः प्रतीच्छन्ति ते भव्या
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org