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मोहनीय
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२. दर्शन मोहनीय निर्देश
३. मोहनीयके लक्षण सम्बन्धी शंका ध. ६/१,६-१,८/११/५ मुह्यत इति मोहनोयम् । एवं संते जीवस्स मोहणीयत्तं पसज्जदि ति णासंकणिज्जं, जीवादो अभिणम्हि पोग्गलदव्वे कम्मसण्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तधाउत्तोदो। अथवा मोह्यतीति मोहनीयम् । एवं संते धत्तूर-सुराकलत्तादोण पि मोहणीयत्तं पसज्जदीदि चे ण, कम्मदव्वमोहणीये एत्थ अहियारादो। ण कम्माहियारे धत्तूर-मुरा-कलत्तादीणं संभवो अस्थि । =प्रश्न-'जिसके द्वारा मोहित होता है, वह मोहनीय कर्म है। इस प्रकारकी व्युत्पत्ति करने पर जीवके मोहनीयत्व प्राप्त होता है। उत्तर-ऐसी आशका नहीं करनी चाहिए, क्योकि, जीवसे अभिन्न और 'कर्म' ऐसी सज्ञावाले पुद्गल द्रव्यमें उपचारसे कर्तृत्वका आरोपण करके उस प्रकारकी व्युत्पत्ति की गयी है। प्रश्न-अथवा 'जो मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है', ऐसी व्युत्पत्ति करने पर धतूरा, मदिरा और भार्या आदिके भी मोहनीयता प्रसक्त होती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, यहाँ पर मोहनीय नामक द्रव्यकर्मका अधिकार है। अतएव कर्मके अधिकारमें धतूरा, मदिरा और स्त्री आदिको सम्भावना नहीं है। १. मोहनीय व ज्ञानावरणी कर्मों में अन्तर रा, वा./८/४-५/५६८/१३ स्यादेतत्-सति मोहे हिताहितपरीक्षणाभावात ज्ञानावरणाद विशेषो मोहस्येति; तन्न, कि कारणम् । अर्थान्तरभावात् । याथात्म्यमर्थस्यावगम्यापि इदमेवेति सद्भतार्थाश्रद्धानं यतः स मोह.। ज्ञानाबरणेन ज्ञान तथान्यथा वा न गृह्णाति ।४। यथा भिन्नलक्षणाङ्करदर्शनात् बीजकारणान्यत्वं तथैवाज्ञानचारित्रमोहकार्यान्तरदर्शनाव ज्ञानावरणमोहनीयकारणभेदोऽवसीयते। - प्रश्न-मोहके होनेपर भी हिताहितका विवेक नही होता, अत' मोहको ज्ञानावरणसे भिन्न नहीं कहना चाहिए। उत्तर-पदार्थका यथार्थ बोध करके भी 'यह ऐसा ही है। इस प्रकार सद्भूत अर्थका अश्रद्धान (दर्शन) मोह है, पर ज्ञानावरणसे ज्ञान तथा या अन्यथा ग्रहण ही नहीं करता, अत. दोनों में अन्तर है ।४। (पं.ध/उ./EEE-१०) जैसे अकुररूप कार्यके भेदसे कारणभूत बीजों में भिन्नता है उसी तरह अज्ञान और चरित्रभू० इन दोनोंमें भिन्नता होनी ही चाहिए। ५. सर्व कर्मोंमें मोहनीयकी प्रधानता घ. १/१,१,१/४३/१ अशेषदुःखप्राप्तिनिमित्तत्वादरिर्मोह। तथा च
शेषकर्मव्यापारो वैफल्यमुपादेयादिति चेन्न, शेषकर्मणां मोहतन्त्रत्वात् । न हि मोहमन्तरेण शेषकर्माणि स्वकार्यनिष्पत्ती व्यापृतान्युपलभ्यन्ते येन तेषां स्वातन्त्र्यं जायेत । मोहे विनष्टेऽपि कियन्तमपि कालं शेषकर्मणा सत्त्वोपलम्भान्न तेषा तत्तन्त्रत्व मिति चेन्न, विनष्टेऽरौ जन्ममरणप्रबन्धलक्षणसंसारोत्पादसामर्थ्यमन्तरेण तत्सत्त्वस्यासत्त्वसमानत्वात् केवलज्ञानाद्यशेषात्मगुणाविर्भावप्रतिबन्धनप्रत्ययासमर्थत्वाच्च। -समस्त दुखोकी प्राप्तिका निमित्तकारण होनेसे मोहको 'अरि' अर्थात् शत्रु कहा है । प्रश्न-केवल मोहको ही अरि मान लेनेपर शेष कर्मोंका व्यापार निष्फल हो जाता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि बाकीके समस्त कर्म मोहके ही अधीन है। मोहबिना शेष कर्म अपने-अपने कार्यकी उत्पत्तिमे व्यापार करते हुए नहीं पाये जाते है, जिससे कि वे स्वतन्त्र समझे जायें। इसलिए सच्चा अरि मोह ही है और शेष कर्म उसके अधीन है। प्रश्नमोहके नष्ट हो जानेपर भी कितने ही काल तक शेष कोंकी सत्ता रहती है, इसलिए उनको मोहके अधीन मानना उचित नहीं है। उत्तर-ऐसा नही समझना चाहिए, क्योंकि, मोहरूप अरिके नष्ट हो जानेपर, जन्म मरणकी परम्परा रूप संसारके उत्पादनकी सामर्थ्य
शेष कर्मों में नहीं रहनेसे उन कर्मोंका सत्त्व-असत्त्वके समान हो जाता है । (पं. ध /उ./१०६४-१०७०)। २. दर्शनमोहनीय निर्देश
1. दर्शनमोह सामान्यका लक्षण स सि /८/३/३७६/१ दर्शनमोहस्य तत्त्वार्थाश्रद्धानम् ।......तदेवं लक्षणं कार्य-'प्रक्रियते प्रभवत्यस्या इति प्रकृति'-तत्त्वार्थ श्रद्धान न होने देना दर्शनमोहकी प्रकृति है। इस प्रकारका कार्य किया जाता है अर्थात् जिससे होता है बह प्रकृति है। (रा. वा./८/३/४/५६७/४); (और भो दे० मोह/१)। ध. ६/१,६-१.२१/३८/३ दंसणं अत्तागम-पत्थेसु रुई पञ्चओ सधा
फोसणमिदि एयट्ठो तं मोहेदि विवरीयं कुणदि ति दसणमोहणीयं । जस्स कम्मस्स उदएण अणत्ते अत्तबुद्धी. अणागमे आगमबुद्धी, अपयत्थे पयत्थबुद्धी, अत्तागमपयत्थेस सदाए अस्थिरतं, दोसु वि सद्धा वा होदि तं दंसणमोहणीयमिदि उत्तं होदि । - १. दर्शन, रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा और स्पर्शन, ये सब एकार्थवाचक नाम है। आप्त या आत्मामें, आगम और पदार्थों में रुचि या श्रद्धाको दर्शन कहते है। उस दर्शनको जो मोहित करता है, अर्थात् विपरीत कर देता है, उसे दर्शनमोहनीय कर्म कहते है। (ध.१३/१, १,६१/३५७/१३) । २. जिस कमके उदयसे अनाप्तमें बाप्तबुद्धि, और अपदार्थ में पदार्थ बुद्धि होती है; अथवा आप्त आगम और पदार्थों में श्रद्धानकी अस्थिरता होती है; अथवा दोनो में भी अर्थात आप्तअनाप्तमें, आगम-अनागममें और पदार्थ-अपदार्थ में श्रद्धा होती है, वह दर्शनमोहनीयकर्म है, यह अर्थ कहा गया है।। पंध/उ /१००५ एवं च सति सम्यक्त्वे गुणे जीवस्य सर्वत । तं मोह
यति यत्कर्म दृड्मोहाख्यं तदुच्यते ।१००५ - इसी तरह जीवके सम्यक्त्वानामक गुणके होते हुए जो कर्म उस सम्यक्त्व गुणको सर्वतः मूछित कर देता है, उसे दर्शनमोहनीय कर्म कहते है।
२. दर्शन मोहनीयके भेद ष. ख ६/१,६-१/सूत्र २१/३८ जंतं दसणमोहणीय कम्मं तं बंधादो एयविहं, तस्स सत्तकम्म पुणतिविहं सम्मत्तं मिच्छत्त सम्मामिच्छत्त चेदि ॥२१ जो दर्शनमोहनीय कर्म है, वह बन्धकी अपेक्षा एक प्रकारका है, किन्तु उसका सत्कर्म तीन प्रकारका है-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ।२१। (ष ख. १३/५,५/सूत्र ६२-६३/ ३५८); (मू. आ./१२२७); (त सू./८/१), (पं.सं/प्रा./२/४ गाथा व उसकी मूल व्याख्या ), (स सि./२/३/१५२/८); (रा वा./२/३/ १/१०४/१६), (गो. क./जी. प्र./२/१७/8% ३३/२७/१८); (प.ध./ उ./१८६) ।
३. दर्शनमोहकी तीनों प्रकृतियोंके लक्षण स सि./८/४/३८५५ यस्योदयात्सर्वज्ञप्रणीतमार्गपराड्मुखस्तत्त्वार्थश्रद्धाननिरुत्सुको हिताहितविचारासमर्थो मिथ्याष्टिभवति तन्मिथ्यात्वम् । तदेव सम्यक्त्वं शुभपरिणाम निरुद्धस्वरसं यदौदासीन्येनावस्थितमात्मन श्रद्धानं न निरुणद्धि, तद्वद्यमान' पुरुषः सम्यरदृष्टिरित्यभिधीयते। तदेव मिथ्यात्वं प्रक्षालनविशेषारक्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रववत्सामिशुद्धस्वरसं तदुभयमिथ्याख्यायते सम्यड्मिथ्यात्वमिति यावत्। यस्योदयादात्मनोऽर्ध शुद्धमदकोद्रवौदनोपयोगापादितमिश्रपरिणामवदुभयात्मको भवति परिणाम । -१. जिसके उदयसे जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थोके श्रद्धान करने में निरुत्सुक, हिताहितका विचार करने में असमर्थ ऐसा मिथ्यादृष्टि होता है वह मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय है। २. वही मिथ्याव जब शुभ परिणामोके कारण अपने स्वरस (विपाक ) को रोक देता
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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