SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रव्रज्या २. प्रवज्या विधि वर्णका, नोरोग, तपमें समर्थ, अति आलस व वृद्वत्वसे रहित योग्य आयुका, सुन्दर, दुराचारादि लोकोपवादसे रहित, पुरुष ही जिन लिगको ग्रहण करनेके योग्य होता है ।१०। ३. म्लेच्छ व सत्शुद्ध भी कदाचित् दीक्षाके योग्य है ल. सा./जी प्र/१६/२४६/१६ म्लेच्छभूमिजमनुष्याणा सकलसंयमग्रहणं कथं सभवतीति नाश कितव्य दिग्विजयकाले चक्रवतिना सह आर्यखण्डमागताना म्लेच्छराजाना चक्रवक्ष्यादिभि सहजातवैवाहिकसबन्धानां सयमप्रतिपत्तेरविरोधात । अथवा तत्कन्यकाना चक्र वादिपरिणीताना गर्भपुत्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छव्यपदेशभाज' संयमसंभवात तथाजातीयकाना दीक्षाहत्वे प्रतिषेधाभावात् । प्रश्न-म्लेच्छ भूमिज मनुष्यके सकलस यमका ग्रहण कैसे सम्भव है। उत्तर-ऐसी शंका नही करनी चाहिए। जो मनुष्य दिगविजयके कालमे चक्रवर्तक साथ आर्य खण्डमें आते है, और चक्रवती आदि के साथ उनका वैवाहिक सम्बन्ध पाया जाया है, उनके सयम ग्रहणके प्रति विरोधका अभाव है। अथवा जो म्लेच्छ कन्याएँ चक्रवर्ती आदिसे विवाही गयो है, उन कन्याओके गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होते है वे माताके पक्षसे म्लेच्छ है, उनके दीक्षा ग्रहण सम्भव है। दे० वर्णव्यवस्था/४/२ ( सशूद्र भो क्षुल्लकदीक्षाके योग्य है)। ६. दीक्षाके अयोग्य काल म पु./३६/१५६-१६० ग्रहोपरागग्रहणे परिवेषेन्द्रचापयो । बक्रग्रहोदये मेघपटलस्थगितेऽम्बरे ॥१५६॥ नष्टा धिमासदिनयो संक्रान्तौ हानिमत्तिथौ । दीक्षाविधि मुमुचणा नेच्छन्ति कृतबुद्धय ।१६० जिस दिन ग्रहोका उपराग हो, ग्रहण लगा हो, सूर्य चन्द्रमापर परिवेष ( मण्डल ) हो, इन्द्रधनुष उठा हो, दुष्ट ग्रहोका उदय हो, आकाश मेघ पटलसे ढका हुआ हो, नष्ट मास अथवा अधिक मासका दिन हो, संक्रान्ति हो अथवा क्षय तिथिका दिन हो, उस दिन बुद्धिमान आचार्य मोक्षकी इच्छा करनेवाले भव्योके लिए दीक्षाकी विधि नहीं करना चाहते अर्थाद उस दिन किसी शिष्यको नवीन दीक्षा नहीं देते है ।१५६-१६० ७. प्रव्रज्या धारणका कारण ज्ञा./४/१०,१२ शक्यते न वशीकतु गृहिभिश्चपलं मन । अतश्चित्तप्रशान्त्यर्थं सद्भिस्त्यक्ता गृहे स्थिति ।१०। निरन्तरानिलदाहदुर्गमे कुवासनाध्वान्तविलुप्तलोचने । अनेकाचिन्ताज्वर जिहितात्मना, नृणां गृहे नात्महितं प्रसिद्धयति ।१२। -गृहस्थग) घर में रहते हुए अपने चपलमन को वश करनेमे असमर्थ होते है, अतएव चित्तकी शान्तिके अर्थ सत्पुरुषोने घरमे रहना छोड दिया है और वे एकान्त स्थानमें रहकर ध्यानस्थ होनेको उद्यमी हुए है ।१० निरन्तर पीडा रूपी आर्त ध्यानकी अग्निके दाहसे दुर्गम, बसनेके अयोग्य, तथा काम क्रोधादिकी कुवासना रूपी अन्धकारसे विलुप्त हो गयी है नेत्रोकी दृष्टि जिसमे, ऐसे गृहोमें अनेक चिन्ता रूपी ज्वरसे विकार रूप मनुष्योके अपने आत्माका हित कदापि सिद्ध नही होता ।१२। (विशेष दे० ज्ञा//८-१७)। ४. दीक्षाके अयोग्य पुरुषका स्वरूप भ आ/वि /७७/२०७/१० यदि प्रशस्त शोभनं लिड्ग मेहन भवति । चर्मरहितत्वं, अतिदीर्घत्वं, स्थूलत्व, असकृदुत्थानशीलतेत्येवमादिदोषरहित यदि भवेत् । पसत्व लिगता इह गृहोतेति बीजयोरपि लिङ्गशब्देन ग्रहण । अतिलम्ञमानतादिदोषरहितता। यदि पुरुष लिगमे दोष न हो तो औत्सर्गिक लिग धारण कर सकता है। गृहस्थके पुरुष लिगमें चर्म न होना, अतिशय दीर्घता, बारम्बार चेतना होकर ऊपर उठना, ऐसे दोष यदि हो तो वह दीक्षा लेनेके लायक नहीं है। उसी तरह यदि उसके अण्ड भी यदि अतिशय लम्बे हो, बडे हो तो भी गृहस्थ नग्नताके लिए अयोग्य है । (और भी दे० अचेलक-व/४) । यो, सा आ /८/५२ कुलजातिबयोदेहकृत्यबुद्धिक्रुधादय । नरस्य कुत्सिता व्यङ्गार तदन्ये लिङ्गयोग्यता ।५२ - मनुष्य के निन्दित कुल, जाति, वय, शरीर, कर्म, बुद्धि, और क्रोध आदिक व्यग-हीनता हैनिर्ग्रन्थ लिगके धारण करनेमे बाधक है, और इनसे भिन्न उसके ग्रहण करनेमें कारण है। बो. पा/टी./४६/११४/१ कुरूपिणो हीनाधिकाङ्गस्य कुष्ठादिरोगिणश्च प्रवज्या न भवति । =कुरूप, हीन वा अधिक अंग वालेके, कुष्ठ आदि रोगों वालोके दीक्षा नही होती है। ५. पंचम काल में भी दीक्षा सम्भव है म पू/४१/७५ तरुणस्य वृषस्योच्चै नदतो विहृतीक्षणात । तारुण्य एव श्रामण्ये स्थास्यन्ति न दशान्तरे।७५-समवशरण में भरत चक्रवर्तीके स्वप्नोका फल बताते हुए भगवान ने कहा कि-ऊँचे सरसे शब्द करते हुए तरुण बैलका विहार देखनेसे सूचित होता है कि लोग तरुण अवस्थामे ही मुनिपदमे ठहर सकेगे, अन्य अवस्थामे नही ।७५॥ नि सा/ता वृ/१४३/क २४१ कोऽपि कापि मुनिर्बभूव सुकृती काले कलावयल, मिथ्यात्वादिकलङ्कपङ्करहित सद्धर्मरक्षामणि । सोऽय सप्रति भूतले दिवि पुनर्देवैश्च संपूज्यते, मुक्तानेकपरिग्रहव्यतिकर' पापाटवीपावकः ।२४१- कलिकालमे भी कही कोई भाग्यशाली जीव मिथ्यात्वादि रूप मल कीचडसे रहित और सद्धर्म रक्षा मणि ऐसा समर्थ मुनि होता है। जिसने अनेक परिग्रहके विस्तारको छोडा है, और जो पापरूपी अटवी को जलानेवाली अग्नि है, ऐसा यह मुनि इस काल भूतलमे तथा देव लोकमे देवोसे भी भली भॉति पूजता है। २. प्रव्रज्या विधि १. तत्वज्ञान होना आवश्यक है मो. मा. प्र/६/२६४/२ मुनि पद लेने का क्रम तो यह है-पहलै तत्त्वज्ञान होय, पीछे उदासीन परिणाम होय, परिषहादि सहने की शक्ति होय तब वह स्वयमेव मुनि बना चाहै । २. बन्धुवर्गसे विदा लेनेका विधि निषेध १ विधि प्र. सा./मू./२०२ आपिच्छ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहि । आसिज्ज णाणद सणचरित्ततववी रियायारं ।२०२। -( श्रामण्यार्थी) बन्धुवर्गसे विदा मागकर बडोसे तथा स्त्री और पुत्रसे मुक्त होता हुआ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और बीर्याचारको अगीकार करके १२०२(म. पु./१७/१९३)। म पु/३८/१५१ सिद्धार्चना पुरस्कृत्य सर्वानाहूय सम्मतान् । तत्साक्षि सुनवे सर्व निवेद्यातो गृहं त्यजेत् ।१५१- गृहत्याग नामकी क्रियामें सबसे पहले सिद्ध भगवानका पूजनकर समस्त इष्ट जनोको बुलाना चाहिए और फिर उनकी साक्षी पूर्वक पुत्रके लिए सब कुछ सौपकर गृहत्याग करना चाहिए ।१५१। २. निषेध प्र सा/ता, वृ /२०२/२७३/१० तत्र नियमो नास्ति । कथमिति चेत् ।... तत्परिवारमध्ये यदा कोऽपि मिथ्यावृष्टिर्भवति तदा धर्मस्योपसर्ग करोतीति । यदि पुन कोsपि मन्यते गोत्रसम्मतं कृत्वा पश्चात्तपश्चरण क्रोमि तस्य प्रचुरेण तपश्चरणमेव नास्ति कथमपि तपश्चरणे गृहीतेऽपि यदि गोत्रादि ममत्वं क्रोति तदा तपोधन एव जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy