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प्रव्रज्याकाल
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प्रसेनजित
न भवति । बन्धुवगसे विदा लेनेका कोई नियम नहीं है। क्योकि .. यदि उसके परिवार में कोई मिथ्यादृष्टि होता है, तो वह धर्मपर उपसर्ग करता है । अथवा यदि कोई ऐसा मानता है कि पहले बन्धुवर्गको राजी करके पश्चात् तपश्चरण करूं तो उसके प्रचुर रूपसे तपश्चरण हो नही होता है। और यदि जैसे कैसे तपश्चरण ग्रहण करके भी कुलका ममत्व करता है, तो तब वह तपोधन ही नही होता है। प्र. सा./प. हेमराज/२०२/२७३/३१ यहाँपर ऐसा मत समझना कि विरक्त होवे तो कुटुम्बको राजो करके ही होवे। कुटुम्ब यदि किसी तरह राजी न होवे तब कुटुम्बके भरोसे रहनेसे विरक्त कभी होय नही सकता । इस कारण कुटुम्बसे पूछनेका नियम नही है।
३. सिद्धोंको नमस्कार म. प्र./१०/२०० तत पूर्वमुख स्थित्वा कृतसिद्धनमस्क्रिय । केशान
लुब्चदाबद्धपत्यक पञ्चमुष्टिकम् ।२००। तदनन्तर भगवान् (धृषभदेव) पूर्व दिशाकी ओर मुहकर पद्मासनसे विराजमान हुए और सिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार कर उन्होने पच मुष्टियोंमें केश लोच किया।
२००। और भी दे० कल्याणक/२। स्या म /३१/३३६/१२ न च होनगुणत्वमसिद्धम् । प्रवज्यावसरे सिद्धभ्यस्तेषा नमस्कारकरणश्रवणात्। -अहन्त भगवान में सिद्धोंकी अपेक्षा कम गुण है, अईन्त दीक्षाके समय सिद्धोको नमस्कार करते है। प्रव्रज्याकाल-दे० काल/१। प्रव्रज्या क्रिया-दे० संस्कार/२। प्रवज्यागुरु-दे० गुरु/३ । प्रशंसा प्रशमस. सि./६/२५/३३६/१२ गुणोद्भावनाभिप्राय प्रशंसा। = गुणोको प्रगट करनेका भाव प्रशंसा है । ( स. सि./७/२३/३६४/१२) (रा. वा/ ६/२५/२/५३०/३० ) ( रा. वा./७/२३/१/५५२/१२)।
प्रशस्त-स सि./६/२८/४४६/१ कर्मनिर्दहनसामर्थ्यात्प्रशस्तम् ।
-जो ( ध्यान ) कर्मोको निर्दहन करनेकी सामर्थ्य से युक्त है, वह प्रशस्त है । (रा वा./६/२८/४/६२७/३४) प्रशस्त उपशम-दे० उपशम/१। प्रशस्तपाद-शेषिकसूत्रके भाष्यकार-समय ई० श ५-६ (स. म./
परि-ग/पृ ४१८/१२)। प्रशांति क्रिया-दे० सस्कार/२ । प्रश्न-१ स, भंत.// प्राश्निकनिष्ठजिज्ञासाप्रतिपादक वाक्यं हि प्रश्न इत्युच्यते । = प्रश्नकर्ताके पदार्थको जाननेकी जो इच्छा है, उस इच्छाके प्रतिपादक जो वाक्य है, उनको ही प्रश्न कहते है। २ Problem (ध. ६/प्र./२८) । प्रश्न कुशल साधु-भ आ /वि /४०३१५६२/१० प्रश्नकुशलतोच्यते
चैत्यसयतानायिका. श्रावकाश्च, बालमध्यमवृद्धाश्च पृष्ट्वा कृतगवेषणो याति इति प्रश्नकुशल । -चैत्य, मुनि, आयिका, श्रावक, बाल मध्यम और वृद्धोको पूछकर निर्यापकाचार्य गवेषण करता है,
यह प्रश्न कुशल साधु कहलाता है। प्रश्न व्याकरण-द्वादशाग श्रुतज्ञानका दसवा अंग
दे० श्रुत्तज्ञान/III प्रश्नोत्तर श्रावकाचार-आ, सकलकीर्ति (ई० १४०६-१४४२) द्वारा विरचित संस्कृत ग्रन्थ है। इसमे २४ सर्ग और ४६२८ पद्य है। जिनमें २५४१ प्रश्नोका उत्तर देकर श्रावकोके आचारका विशद वर्णन किया गया है। ती /३/३३३)। प्रसंग-न्या सू./टी /१/२/१८/५३/२२ स च प्रसग साधर्म्यवैधा
भ्यां प्रत्यवस्थानमुपालम्भ प्रतिषेध इति । उदाहरणसाधासाध्यसाधनहेतु रित्यस्योदाहरणवैधयेण प्रत्यवस्थानम् । वादी द्वारा व्यतिरेक दृष्टांत रूप उदाहरणके विधर्मापन करके ज्ञापक हेतुका कथन कर चुकनेपर प्रतिवादी द्वारा साधर्म्य करके, अथवा वादी द्वारा अन्वय दृष्टात रूप उदाहरणके समान धर्मापन करके ज्ञापक हेतुका कथन करनेपर पुन प्रतिवादी द्वारा विधर्मापन करके प्रत्यवस्थान ( उलाहना) देना प्रसग है। (श्लो.वा.४/न्या./३१०/४५७/१ में इस पर चर्चा)।
* अति प्रसंग दोष-दे० अतिप्रसंग। प्रसंगसमा जाति-न्या सू./मू व.टी/१/१/४/२६१ दृष्टान्तस्य
कारणानपदेशात् प्रत्यवस्थानाच्च प्रतिदृष्टान्तेन प्रसगप्रतिदृष्टान्तसमौ ।। साधनस्यापि साधनं वक्तव्यमिति प्रसङ्गन प्रत्यवस्थान प्रसङ्गसम प्रतिषेध । क्रियाहेतुगुणयोगी क्रियावान लोष्ट इति हेतु पदिश्यते न च हेतुमन्तरेण सिद्धिरस्तीति। -वादीने 'जिस प्रकार साध्यका भी साधन कहा है, वैसे ही साधनका भी साधन करना या दृष्टान्तकी भी बादीको सिद्धि करनी चाहिए इस प्रकार प्रतिवादी द्वारा कहा जाना प्रसगसमा जाति है। जैसे-क्रियाके हेतुभूत गुणोका सम्बन्ध रखने वाला डेल क्रियावान क्सि हेतुसे माना जाता है। दृष्टान्तकी भी साध्यसे विशिष्टपने करके प्रतिपत्ति करनेमे वादीको हेतु कहना चाहिए। उस हेतुके बिना तो प्रमेयको व्यवस्था नहीं हो
सकती है। ( श्लो. वा ४/न्या./३५६-३६३/४८७ में इसपर चर्चा )। प्रसज्याभाव-दे० अभाव । प्रसेनजित-१.यह तेरहवे कुलकर हुए है। (म.पु./३/१४६)विशेष दे० शलाका पुरुष/५ । २ यादववंशी कृष्णका १६वॉ पुत्र-दे० इतिहास/४/१०।
* अन्य सम्बन्धित विषय १. प्रशंसा व स्तुतिमें अन्तर २. अन्य दृष्टि प्रशंसा ३. स्व प्रशंसाका निषेध
दे० अन्यदृष्टि ।
दे० निंदा।
प्रशम-4 ध/उ /४२६-४३० प्रशमो विषयेषूच्चैविक्रोधादिकेषु
च । लोकासख्यातमात्रेषु स्वरूपाच्छिथिलं मनः ॥४२६। सद्य' कृतापराधेषु यद्वा जीवेषु जातुचित् । तद्वधादिविकाराय न बुद्धि-प्रशमोमतः ।४२७॥ हेतुस्तत्रोदयाभाव स्यादनन्तानुबन्धिनाम् । अपि शेषकषायाणा नून मन्दोदयोऽशत १४२८) सम्यक्त्वेनाविनाभूत प्रशम परमो गुणः । अन्यत्र प्रशममन्येऽप्याभास' स्यात्तदत्ययात् ।४३०॥ - पचेन्द्रियोके विषयोमे और लोकके असंख्यातवे भाग प्रमाण तीव भाव क्रोधादिकोमें स्वरूपसे शिथिल मनका होना ही प्रशम भाव कहलाता है।४२६॥ अथवा उसी समय अपराध करनेवाले जीवोपर कभी भी उनके वधादि रूप विकारके लिए बुद्धिका नही होना प्रशम माना गया है।४२७। उस प्रशम भावकी उत्पत्तिमें निश्चयसे अनन्तानुबन्धो कषायोका उदयाभाव और प्रत्याख्यानादि कषायोंका मन्द उदय कारण है।४२८। ( द. पा./प. जयचन्द/२) सम्यक्त्वका अविनाभावी प्रशम भाव सम्यग्दृष्टिका परम गुण है । प्रशम भावका झूठा अहकार करनेवाले मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्वका सद्भाव न होनेसे प्रशमाभास होता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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