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________________ विग्रहगति विचार या वीचार समान ही अवगाहना होती है। परन्तु दोनो अवगाहनाके आकारों में जाता है तब उस अवस्थामें गति अनुश्रेणी ही होती है। इस प्रकार समानताका नियम नही है।) पुद्गलोकी जो लोकके अन्तको प्राप्त करानेवाली गति होती है वह दे० आनुपूर्वी-(विग्रहगतिमें जीवोंका आकार व संस्थान आनुपूर्वी अनुश्रेणि ही होती है। हॉ, इसके अतिरिक्त जो गति होती है वह नामकम के उदयसे होता है, परन्तु ऋजुगति में उसके आकारका कारण अनुश्रेणि भी होती है और विश्रेणि भी। किसी एक प्रकारकी होनेउत्तरभवकी आयुका सत्व माना जाता है।) का नियम नही है। दे० जन्म/१/२ (विग्रहगतिमें जीवोके प्रदेशोंका सकोच हो जाता है।) ६. तीन मोड़ों तकके नियममें हेतु ध.६/१,६-१,२८/६४/७ सजोगिकेवलिपरघादस्सेव तत्थ अव्वत्तोदएण अवठाणादो। =सयोगिकेवलीको परघात प्रकृतिके समान विग्रह- स सि /२/२८/१८३१५ चतुर्थात्समयात्प्राग्विग्रहवती गतिर्भवति न गतिमें उन (अन्य ) प्रकृतियोका अव्यक्त उदयरूपसे अवस्थान देखा चतुर्थे इति । कुत इति चेत् । सर्वोत्कृष्टविग्रहनिमित्तनिष्कुटक्षेत्रे जाता है। उत्पित्सु प्राणी निष्कुटक्षेत्रानुपूर्व्यनुश्रेण्यभावादिषुगत्यभावे निष्कुट क्षेत्रप्रापणनिमित्ता त्रिविग्रहा गतिमारभते नोमि, तथाविधोपपाद* विग्रहगतिमें जीवका जन्म मान ले तो-दे. जन्म/१॥ क्षेत्राभावात् । प्रश्न-मोडेवाली गति चार समयसे 'पूर्व अर्थात् * विग्रहगतिमें सज्ञीको भुजगार स्थिति कैसे सम्भव तीन समय तक ही क्यों होती है चौथे समयमे क्यों नही होती। है-दे० स्थिति/५। उत्तर-निष्कुट क्षेत्रमें उत्पन्न होनेवाले जीवको सबसे अधिक मोडे लेने पड़ते है, क्योकि वहाँ आनुपूर्वीसे अनुश्रेणीका अभाव होनेसे १. विग्रह-अविग्रहगतिका स्वामित्व इषुगति नही हो पाती। अतः यह जोब निष्कुट क्षेत्रको प्राप्त करने के लिए तीन मोडेवाती गतिका त सू./२/२७-२८ अविग्रहा जीवस्स 1२७ विग्रहवती च ससारिण आरम्भ करता है । यहाँ इससे ।२८। -मुक्त जीवकी गति विग्रहरहित होती है। और ससारी अधिक मोडोंकी आवश्यकता जोवा की गति विग्रहरहित व विग्रहसहित दोनो प्रकारको होती है । नही पड़ती, क्योकि, इस प्रकार(त. सा./२/8F)। का कोई उपपाद क्षेत्र नहीं पाया ध, ११/४,२,५,११/२०/१० तसेसु दो विग्गहे मोत्तण तिणि विगगहाणम जाता है, अत मोडेवाली गति भावादो। सो में दो विग्रहोको छोडकर तीन विग्रह नहीं होते। तीन समय तक ही होती है, चौथे समयमें नहीं होती। (रा वा./५. जीव व पुद्गलोंकी गति अनुश्रेणी ही होती है २/२८/४/१३६/५)। त. सू./२/२६ अनुश्रेणि गलि ।२६। = गति श्रेणीके अनुसार होती है। (त सा/२/८)। ध १११,१,६०/३००/४ स्वस्थितप्रदेशादारभ्योवधिस्तिर्यगाकाशप्रदेशाना कमसनिविष्ठाना पक्ति श्रेणिरित्युच्यते। तयैव जीवाना गमन दे० गति/१/७ (गति ऊपर-नीचे व तिरछे अर्थात सीधी दिशाओको छोडकर विदिशाओं में गमन नहीं करतो)। नोणिरूपेण । ततमिनिग्रहा गतिर्न विरुद्वा जीवस्येति । - जो स. सि /२/२६/१८३/७ लोकमध्यादारभ्य ऊर्ध्वमस्तिर्यक च आकाश प्रदेश जहाँ स्थित है वहाँसे लेकर ऊपर, नीचे और तिरहरे कमसे प्रशाना क्रम निविष्टाना पडक्ति श्रेणि इत्युच्यते। अनु' शब्द विद्यमान आकाप्रदेशों की पतिको श्रेणी कहते है । इस श्रेणीके स्यानुपर्येण वृत्ति । श्रेणेरानुपूव्येण्यनुश्रेणीति जीवानां पुद्गलानां द्वारा ही जीवों का गमन होता है, श्रेणीको उल्ल धन करके नहीं च गतिर्भवतीत्यर्थ । ननु चन्द्रादीनां ज्योतिष्काणा मेरुप्रदक्षिणा होता है। इसलिए विग्रहगतिवाले जीवके तीन मोडेवाली गति काले विद्यापरादीना च विश्रेणिगतिरपि दृश्यते, तत्र क्मुिच्यते विरोधको प्राप्त नहीं होती है। अर्थात ऐसा कोई स्थान ही नहीं है, अनुश्रेणि गति इति । कालदेशनियमोऽत्र वेदितव्य । तत्र कान जहॉपर पहुँचनेके लिए चार मोडे लग सके। नियमस्ताव ज्जीवाना मरणकाले भवान्तरसक्रममुक्तानां चोर्ध्वगमन- * उपपाद स्थानको अतिक्रमण करके गमन होने वन काले अनुश्रेण्येव गति । देशनियमोऽपि ऊर्ध्व लोकादयोगति , होने सम्बन्धी दृष्टिभेद-दे०क्षेत्र/३/४ । अधोलोकादू बंगति , तिर्यग्लोकादधोगतिरूर्वा वा तत्रानुश्रेण्येव । पुद्गलाना च या लोकान्तप्रापिणी सा नियमादनश्रेण्येच । इत्तरा गतिर्भजनीया। = लोकके मध्यसे लेकर ऊपर-नीचे और तिरछे विघ्न-स.सि./६/२७/३४१/१ तेषा बिहनन विघ्न' । उनका क्रमसे स्थित आकाशप्रदेशीकी पंक्तिको श्रेणी कहते है। 'अनु' अर्थात् दान, लाभ, भोग, उपभोग व वीर्यका नाश करना विघ्न है। ठात आनुपूर्वी अर्थ मे समसित है। इसलिए अनुश्रेणीका अर्थ (रा बा./६/२७/१/५३१/२६) । श्रेणीकी आनुपूर्वीसे होता है । इस प्रकारकी गति जीव और विचयपद्धगजोकी होती है, यह इसका भाव है। प्रश्न-चन्द्रमा आदि स सि /६/३६/४४६/४ विचयन विचयो विवेको विचारणेत्यर्थः। ज्योतिषियोकी और मेरुकी प्रदक्षिणा करते समय विद्याधरोकी विचयन करना विचय है। विचय, विवेक और विचारणा ये विश्रेणी गति देखी जाती है, इसलिए जोध और पुद्गलोकी अनु- पर्याय नाम है । ( रा था /४/३६/१/६३०/२)। श्रेणी गति होती है, यह किस लिए कहा। उत्तर-यहाँ कालनियम और देश नियम जानना चाहिए। कालनियम यथा-मरणके घ८/३,१/२/३ विचओ विचारणा मीमासा परिवरखा इदि एबहो। समय जब जीव एक भवको छोड़कर दूसरे भव के लिए गमन करते =विचय, विचारणा, मीमासा और परीक्षा ये समानार्थक शब्द है। है और मुक्तजीव जन ऊध्वंगमन करते है, तब उनकी गति अनु -(और भी दे० परीक्षा)। श्रेणि ही होती है। देशनियम यथा-जब कोई जीव ऊर्ध्वलोकसे विचार या वीचारअपोलोकके प्रति या अधोलोकसे ऊर्ध्व लोकके प्रति आता-जाता ___त. सू /8/४४ बोचारोऽर्थ व्यजनयोगस क्रान्ति ।४४1- अर्थ, व्यजन है। इसी प्रकार तिर्यग्लोकसे अधोलोकके प्रति या ऊर्ध्व लोकके प्रति और योगकी सक्रान्ति वीचार है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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