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मरण
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५. मारणान्तिक समुद्घात निर्देश
यातको प्राप्त होता है। परन्तु यह योग्य नहीं है, क्योकि, अत्यधिक असाताका अनुभव करनेवाले सातवी पृथिवीके नारक्यिोमे उत्पन्न होनेवाले महामत्स्यकी वेदना और कषायकी अपेक्षा सूक्ष्म निगोद जीवोमें उत्पन्न होनेवाले महामत्स्यकी वेदना और कषाय सदृश नही हो सकती। इस कारण यही अर्थ प्रधान है, ऐसा ही ग्रहण करना चाहिए। गो. जी जी. प्र/५४३/६४२/१३ अस्मिन् रज्जुस ख्यातै कभागायामसूच्यड गुलसंख्यातै कभागविष्कम्भोत्सेधक्षेत्रस्य घनफलेन प्रतराड् गुलसरण्यातै कभागगुणित नगच्छणिसख्यात कभागेन गुणिते दूरमारणान्तिकसमुद्घातस्य क्षेत्र भवति ।- एक जीवके दूरमारणान्तिक समुद्धात विष शरीरसे बाहर यदि प्रदेश फैले तो मुख्यपने राजूके संख्यातभागप्रमाण लम्बे और सूच्यं गुलके संख्यातबे भागप्रमाण चौडे व ऊँचे क्षेत्रको रोकते है। इसका घनफल जगश्रेणी प्रतरांगुल होता है। गो जी /जी प्र./५८४/१०२५/१० तदुपरि प्रदेशोत्तरेषु स्वयंभरमणसमुद्रमाह्यरथण्डिलक्षेत्रस्थितमहामत्स्येन सप्तमपृथिवीमहाशैरवनामश्रेणीबद्ध प्रति मुतमारणान्तिकसमुद्धातस्य पञ्चशत्तयोजनतदर्थ विष्कम्भारसधै कार्धषरज्ज्वायतप्रथमद्वितीयतृतीयवक्रोस्कृष्टपर्यन्तेषु । - वेदना समुद्धातगत जीवके उत्कृष्ट क्षेत्रसे ऊपर एक-एक प्रदेश बढता-बढ़ता मारणान्तिक समुद्धातवाले जीवका उत्कृष्ट क्षेत्र होता है। वह स्वयभूरमण समुद्र के बाह्य स्थण्डिल क्षेत्रमे स्थित जो महामत्स्य वह जब सप्तमनरकके महारौरव नामक श्रेणीबद्ध मिलके प्रति मारणान्तिक समुदघात करता है तब होता है । वह ५०० मो० चौडा, २५० यो० ऊँचा और प्रथम मोडेमे १ राजू लम्बा, दूसरे मोडेमे १/२ राजू और तृतीय मोडेमें ६ राजू लम्बा होता है। मारणान्तिक समुदृघातगत जीवका इतना उत्कृष्ट क्षेत्र होता है।
५, प्रदेशीका पूर्ण संकोच होना आवश्यक नहीं ध ४/१,३,२/३०/४ विग्गहगदीए मारणं तिय कादणुप्पण्णाणं पढमसमए
असखेजाजोयणमैत्ता ओगाहणा होदि, पुव्वं पसारिदएग-दोतिदंडाणं पढमसमए उवसंघौराभावादो। -मारणान्तिक समुद्धात करके विग्रहगतिसे उत्पन्न हुए जोवोके पहले समयमें असंख्यात योजनप्रमाण अवगाहना होती है, क्योकि, पहले फैलाये गये एक, दो और तीन दण्डोका प्रथम समय में सकोच नही होता है। ध.४/१,४.४/१६५/४ के वि आइरिया 'देवा णियमेण मूल सरीरं पविसिय मरंति' त्ति भण ति, बिरुद्ध' ति ण घेत्तव्य । = कितने ही आचार्य ऐसा कहते है कि देव नियमसे मूल शरीरमे प्रवेश करके ही मरते है। ..परन्तु यह विरोधको प्राप्त होता है, इसलिए उसे नहीं ग्रहण करना चाहिए। घ.७/२,७,१६४/४२६/११ हेट्ठा दोरज्जुमेत्तद्धाणं गतूण ठिदावस्थाए । छिण्णाउआण मणुस्सेसुप्पज्जमाणाण देवाण उववादखेत्तं किण्ण घेप्पदे । ण, तस्स पढमद डेणुणस्स छचोद्दसभागे चेत्र अंतभावादो, तेसिं मूलसरीरपवेसमंतरेण तदवत्थाए मरणाभावादो च। प्रश्ननीचे दो राजुमात्र जाकर स्थित अवस्थामे आयुके क्षीण होनेपर मनुष्योमें उत्पन्न होनेवाले देवोका उत्पादक्षेत्र क्यो नही ग्रहण किया। उत्तर-नही, क्योकि, प्रथम दण्डसे कम उसका ६/१४ भागमे ही अन्तर्भाव हो जाता है (दे०क्षेत्र/४) तथा मूल शरीरमे जीव प्रदेशोके प्रवेश बिना उस अवस्थामें उनके मरणका अभाव भी है। घ. ११/४.२.५.१२/२२/६ जेरइएमुप्पण्णपढमसमए उवसंहरिदपढमदंडस्स य उक्कस्सखेत्ताणुववत्तीदो। नारकियोमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ( महामत्स्यके प्रदेशोमें) प्रथम दण्डका उपसंहार हो जानेसे उसका उत्कृष्ट क्षेत्र नहीं बन सकता।
१. प्रदेशीका विस्तार व आकार ध.७/२.६.१/२६६/११ अप्पप्पणो अच्छिदपदेसादो जाव उपज्ज
माणखेत्त ति आयामेण एगपदेसमादि कादूग जाबुक्कस्सेण सरीरतिगुण नाहल्लेण कंडेक्करवं भट्ठियत्तोरण एल-गोमुत्तायारेण अंतोमुहतावठाण मारणं तियसमुग्धादो णाम । आयामकी अपेक्षा अपनेअपने अधिष्ठित प्रदेशसे लेकर उत्पन्न होनेने क्षेत्रतक (और भी दे० अगला शीर्षक नं.७), तथा बाहत्यसे एक प्रदेशको आदि करके उत्कर्षत शरीरसे तिगुने प्रमाण जीव प्रदेशोके काण्ड, एक खम्भ स्थित तोरण, हल व गोमूत्रके आकारसे अन्तर्मुहूर्त तक रहनेको
मारणान्तिक समुद्धात कहते है। ध. ११/४,२,५,१२/२१/७ सुहुमणिमोदेसु उपज्जमाणस्स महामच्छरस विक्रवभुस्सेहा तिगुणा ण होति, दुगुणा विसेसाह्यिा वा होति त्ति कधं णव्वदे। अधोसत्तमाए पुढवीए रइएस से काले उपज्जिहिदि त्ति सुत्तादो णव्वदे। संतकम्मपाहुडे पृण णिगोदेसु उपाइदो,णेरइएसु उपजजमाण महामच्छो ठव सुहमणिगोदेसु उप्पज्जमाणमहामच्छो वि तिगुणशरीरबाहलेण मारण तियसमुग्धाद गच्छद्दि त्ति । ण च एद जुज्जदे, सत्तमपुढवीणेरइएसु असादबहुलेसु उप्पज्जमाणमहामच्छवेयणा-कसाएहितो मुहमणिगोदेसु उप्पज्जमाणमहामच्छ बेयण-कसायाण सरिसत्ताणुववत्तोदो। तदो एसो चेव अत्यो बहाणो त्ति घेत्तव्वो। प्रश्न-सूक्ष्म निगोद जीवोमे उत्पन्न होनेवाले महामत्स्यका विष्कम्भ और उत्सेध तिगुना नही होता, किन्तु दुगुना अथवा विशेष अधिक होता है; यह कैसे जाना जाता है। उत्तर-"नीचे सातवी पृथिवीके नारकियोमे वह अनन्तर कालमे उत्पन्न होगा" इस सूत्रसे जाना जाता है। -सत्कर्मप्राभूतमे उसे निगोद जीवोमें उत्पन्न कराया है, क्योकि, नारकियोमे उत्पन्न होनेवाले महामत्स्यके समान सूक्ष्म निगोद जीवोमे उत्पन्न होनेवाला महामरस्य भी विवक्षित शरीरकी अपेक्षा तिगुने बाहत्यसे मारणान्तिक समु
७. वेदना कषाय और मारणान्तिक समुद्घातमे अन्तर भ ४/१,३,२/२०४२ वेदणकसायसमुग्धादा मारणं तियसमुग्धादे म्ण्णि पद तित्ति वुत्ते ण पद नि । मारणतिय समुग्धादो णाम बद्धपरभवियाउआण चेव होदि । वेदणकसायसमुग्धादा पुण ब द्वाउआणमबद्भाउआणच होति। मारण तियसमुपादा णिच्छएण उप्पज्जमाण दिसाहिमहो होदि, ण चे अराणमेगदिसाए गमण णियमो, दसम वि दिसासु गमणे पडिबद्धत्तादो। मारण तियसमुनादस्स आयामो उक्कस्से" अप्पणो उप्पज्जमाणखेत्तपज्जवसाणो, ण चेअराणमेस णियमो ति - प्रश्न-वेदना समुद्धात और कषायसमुद्धात ये दोनो मार। न्तिकसमुद्घातमे अन्तर्भूत क्यो नही होते है। उत्तर-१. नह। होते, क्योकि, जिन्होने पर भवकी आयु आँध ली है, ऐसे जीवोके ही मारणान्तिक समुद्घात होता है (अश्रद्धायुष्क और वर्तमानमे आयुको बाँधनेवालोके नही होता--(ध.७/४,२,१३,८६/४१०/७), किन्तु वेदना और कषाय समुद्धात बधायुष्क और अबतायुष्क दोनो जीयोके होते है। २. मारणान्तिक समुद्घात निश्चयसे आगे जहाँ उत्पन्न होना है ऐसे क्षेत्रकी दिशाके अभिमुख होता है। किन्तु अन्य समुद्धातोके इस प्रकार एक दिशामे गमनका नियम नही है, क्योकि, उनका दशो दिशाओमें भी गमन पाया जाता है (दे० समुघात)। ३ मारणान्तिक समुद्घातकी लम्बाई उत्कृष्टत अपने उत्पद्यमान क्षेत्रके अन्त तक है, किन्तु इतर समुद्धातोका यह नियम नही है। दे० पिछला शोर्षक न०६)।।
८.मारणान्तिक समुदघातमें कौन कर्म निमित्त है ध.4/१६-१, २८/४७/२ अचत्तसरीरस्स विग्गहराईए उजुगईए वा जं गमण त करस फल । ण, तस्स पुयखेत्तपरिचायाभावेण गमणाभावा। जीवपदेसाणं जो पसरी सो ण णिवकारणो, तस्स आउअसंतफल
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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