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________________ मरण २८६ ५. मारणान्तिक समुद्घात निर्देश गो. जी/जी प्र/१६६/४४४/२ मरणान्ते भव मारणान्तिक समुद्रात. उत्तरभवोत्पत्तिस्थानपर्यन्तजीवप्रदेशप्रसर्पणलक्षण । मरणके अन्तमें होनेवाला तथा उत्तर भवकी उत्पत्तिके स्थान पर्यन्त जीवके प्रदेशोका फैलना है लक्षण जिसका, वह मारणान्तिक समुद्घात है। (का.अ/टी /१७६/११६/२) । केवल दुःख निवृत्तिका हेतु कहना भी युक्त नहीं है। क्योंकि, उसके दोनो ही फल देखे जाते है । (श्लो वा १/२/५३/श्लो. २/२५६ व वृत्ति/२६२/२६)। २ यहाँ कृतप्रणाशकी आशका करना भी योग्य नही है, क्योकि, उदीरणाम भी कर्म अपना फल देकर ही झडते है। इतना विशेष है, कि जैसे गीला कपडा फैला देनेपर जल्दी सूख जाता है, वही यदि इकट्ठा रखा रहे तो सूखने में बहुत समय लगता है, उसी तरह उदीरणाके निमित्तोंके द्वारा समयके पहले ही आयु झड जाती है। (श्लो वा/५/२/५३/२/२६६/१४)। श्लो. वा./५/२/५३/२/२६१/१६ प्राप्तकालस्यैव तस्य तथा दर्शनमिति । चेत, क. पुनरसौ काल प्राप्तोऽपमृत्युकाल वा, द्वितीयपक्षे सिद्धसाध्यता, प्रथमपक्षे खड्गप्रहारादिनिरपेक्षत्वप्रसंग । -प्रश्न३. प्राप्तकाल ही खड़ग आदिके द्वारा मरण होता है । उत्तर-यहाँ कालप्राप्तिसे आपका क्या तात्पर्य है-मृत्युके कालकी प्राप्ति या अपमृत्युके काल की प्राप्ति 1 यहाँ दूसरा पक्ष तो माना नहीं जा सकता क्योकि वह तो हमारा साध्य ही है और पहला पक्ष माननेपर खड्ग आदिके प्रहारसे निरपेक्ष मृत्युका प्रसग आता है। .. सभी जीव मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते गो. जो /जी. प्र./१४४/६५०/१ सौधर्मद्वयजीवराशौधनाड्गुलतृतीयमूल गुणितजगच्छणिप्रमिते. पल्यासख्यातेन भक्ते एकभाग प्रतिसमयं नियमाणराशिर्भवति । • तस्मिन् पल्यासख्यातेन भक्ते बहुभागौ विग्रहगतौ भवति । तस्मिन् पल्यासरख्यातेन भक्ते बहुभागो मारणान्तिक समुद्घाते भवति । अस्य पत्यास ख्यातकभागो दूरमारणान्तिके जीवा भवन्ति । =सौधर्म ईशान स्वर्गवासी देव (घनागुल १/३४ जगश्रेणी) इतने प्रमाण है। इसके पल्य/असं. भागप्रमाण प्रति समय मरनेवाले जीवोका प्रमाण है। इसका पल्य/असं. बहुभाग प्रमाण विग्रह गति करनेवालोका प्रमाण है। इसका पत्य/ असं बहुभाग प्रमाण मारणान्तिक समुद्घात करनेवालोका प्रमाण है। इसका पत्य/असं भागप्रमाण दूर मारणान्तिक समुद्धातवाले जीवोका प्रमाण है। (और भी दे० घ ७/२,६,२२७,१४/३०६,३१२) । ३. ऋजु व वक्र दोनों प्रकारकी विग्रहगति में होता है का अ/टी /१७६/११६/३ स च संसारी जीवाना विग्रहगतौ स्यात् । -मारणान्तिक समुद्घात ससारी जीवोंको विग्रहगतिमे होता है। दे० मारणान्तिक समुद्घातका लक्षण/ध.४ (ऋजुगति ब विग्रह गति दोनों प्रकारसे होता है) । (घ.७/२,६,२/३)। ११. स्वकाल ब अकाल मृत्युका समन्वय श्लो वा./२/५३/२/२६१/१८ सकलबहि कारण विशेषनिरपेक्षस्य मृत्युकारणस्य मृत्युकालव्यवस्थिते । शस्त्रसंपातादिबहिरङ्गकारणान्वयव्यतिरेकानुविधायिनस्तस्यापमृत्युकालत्वोपपत्ते । असि प्रहार आदि समस्त बाह्य कारणोसे निरपेक्ष मृत्यु होने में जो कारण है वह मृत्युका स्वकाल व्यवस्थापित किया गया है। और शस्त्र संपात आदि बाह्य कारणोके अन्वय और व्यतिरेकका अनुसरण करनेवाला अप मृत्युकाल माना जाता है। पं.वि./३/१८ यैव स्वकर्मकृतकालकलात्र जन्तुस्तत्रैव याति मरणं न पुरो न पश्चात् । मूढास्तथापि हि मृते स्वजने विधाय शोक परं प्रचुरदु खभुजो भवन्ति ।१८) = इस संसार में अपने कर्म के द्वारा जो मरणका समय नियमित किया गया है उसी समयमें ही प्राणी मरणको प्राप्त होता है, वह उससे न तो पहले ही मरता है और न पीछे ही। फिर भी मूर्खजन अपने किसी सम्बन्धीके मरणको प्राप्त होनेपर अतिशय शोक करके बहुत दु खके भोगनेवाले होते है नोट-(बाह्य कारणोसे निरपेक्ष और सापेक्ष होनेसे ही काल व अकाल मृत्युमें भेद है, वास्तवमें इनमें कोई जातिभेद नहीं है । कालको अपेक्षा भी मृत्युके नियत कालसे पहले मरण हो जानेको जो अकाल मृत्यु कहा जाता है वह केवल अल्पज्ञ ताके कारण ही समझना चाहिए, वास्तवमें कोई भी मृत्यु नियतकालसे पहले नहीं होती; क्योकि, प्रत्यक्षरूपसे भविष्यको जाननेवाले तो बाह्य निमित्तो तथा आयुकर्मके अपवर्तनको भी नियत रूपमें हो देखते है।) ५. मारणान्तिक समुद्घात निर्देश १. मारणान्तिक समुद्धातका लक्षण रा वा./१/२०/१२/७७/१५ औपन मिकानुपक्रमायु क्षयाविर्भूतमरणान्तप्रयोजनो मारणान्तिकसमुद्धात । -औपक्रमिक व अनुपक्रमिक रूपसे आयुका क्षय होनेसे उत्पन्न हुए कालमरण या अकाल मरणके निमित्तसे मारणान्तिक समुद्धात होता है। ध.४/१,३,२/२६/१० मारणान्तियसमुग्धादो णाम अप्पणो वट्टमाणसरीरम छड्डिय रिजुगईए विग्गहगईए वा जावुप्पज्जमाणखेत्तं ताव ग तूण .. अंतोमुहुत्तमच्छणं । -अपने वर्तमान शरीरको नहीं छोडकर जुगति द्वारा अथवा विग्रह गति द्वारा आगे जिसमें उत्पन्न होना है ऐसे क्षेत्रतक जाकर अन्तर्मुहूर्त तक रहनेका नाम मारणान्तिक समुद्धात है । (द्र.सं./टी./१०/२५/उद्धृत श्लोक न. ४)। ४. मारणान्तिक समुद्धातका स्वामित्व दे० समुद्धात-(मिश्न गुणस्थान तथा क्षपक श्रेणीक अतिरिक्त सभी __गुणस्थानोमें सम्भव है। विकलेन्द्रियोके अतिरिक्त सभी जीवोमें सम्भव है।) ध.४/१,४,२५/२०४/७ जदि सासणसम्मादिट्ठिणो हेट्ठाण मारणं तियं मेल ति, तो तेसिं भवणवासियदेवेसु मेरुतलादो हेट्ठा ठ्ठिदेसु उत्पत्ती ण पावदि त्ति बुत्ते, ण एस दोसो, मेरुतलादो हेट्ठा सासणसम्मादिट्ठीणं मारणं तियं णत्थि त्ति एवं सामण्णवयणं । विसेसादो पुण भण्णमाणे रइएमु हेछिम एइदिएमु वा ण मारणातियं मेलं ति त्ति एस परमत्थो। =प्रश्न-यदि सासादन सम्यगदृष्टि जीव मेरुतलसे नीचे मारणान्तिक समुद्धात नही करते है तो मेरुतलसे नीचे स्थित भवनवासी देवोमें उनकी उत्पत्ति भी नहीं प्राप्त होती है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, 'मेरुतलसे नीचे सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोका मारणान्तिक समुद्धात नहीं होता है' यह सामान्य बचन है। किन्तु विशेष विवक्षासे कथन करनेपर तो वे नारकियोमे अथवा मेरुतलसे अधोभागवर्ती एकेन्द्रिय जीवोमें मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते है यह परमार्थ है। (क्योकि उन गतियोमें उनके उपपाद नहीं होता है। -दे० जन्म/४/११)। दे० सासादन/१/१०-[ लोकनालीके बाहर सासादन सम्यग्दृष्टि समुद् घात नहीं करते। ध ४/१,४,१७३/३०५/१० मणुसगदीए चेव मारण तिय दसणादो। =मनुष्य गतिमें ही (उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोके) मारणान्तिक समुद्रात देखा जाता है। दे०क्षेत्र/३-(गुणस्थान व मार्गणास्थानोमें मारणान्तिक समुद्घातका यथासम्भव अस्तित्व )। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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