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मरण
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४. अकाल मृत्यु निर्देश
सुभौम, ब्रह्मदत्त आदिकी आयुका अपवर्तन हुआ है। और कृष्णकी जरत्कुमारके बाणसे अपमृत्यु हुई है। इसलिए उनकी आयुके अनपवर्त्यपनेका नियम नहीं है, ऐसा राजवातिकालंकारमें कहा है।
कदो। पर्याप्तियो को पूर्ण पर चुकने के समय से लेकर जबतक अन्तमुहूर्त नहीं बीतता है, तत्रबक कदलीघात नही करता, इस बातका ज्ञान करानेके लिए (सूत्रमे) 'अन्त हर्त' पदका निर्देश किया है।
८. कदलीघात द्वारा आयुका अपवर्तन हो जाता है ध/१०/४.२,४,४१/२४०/६ कदलीघादेण विणा अतोमुहतकालेण परभवियमाआउबं किण्ण बज्झदे। ण, जीविणागदस्स आउअस्स अदादो
अहियावाहाए परभचियआउअस्स बधाभावादो। ध. १०/४,२,४,४६/२४४/३/ जीविदूणागद अंतोमुहत्तद्वपमाणेण उवरिममतोमुत्तूणपुवको डाउजं सम्यमेगसमरण सरिसरबड कदलीधादेण घादिदूण घादिदसमए चेव पुणो... प्रश्न-कदलीघातके बिना अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा परविक आयु क्यो नही बाँधी जाती। उत्तर--नही, क्योकि, जीबित रहकर जो आयु व्यतीत हुई है उसकी आधीसे अधिक आबाधाके रहते हुए परभविक आयुका बन्ध नहीं होता। जीवित रहते हुए अन्तर्मुहुर्त काल गया है उससे अर्धमात्र आगेका अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि प्रमाण उपरिम सब आयुको एक समयमे सदृश खण्डपूर्वक कदलीघातसे धात करनेके समय में ही पुन' (परभविक आयुका बन्ध कर लेता है)। (और भी देखो आगे शीर्षकह)
१. जघन्य आयुमें अकालमृत्युकी सम्भावना व असम्भावना ध.१४/५,६,२६०/पृष्ठ पंक्ति एत्थ कदलीघादम्मि वे उबदेसा, के वि
आइरिया जहण्णाउअम्मि आव लियाए असंखे० भागमेत्ताणि जीवणियद्वाणाणि लब्भ ति त्ति भणं ति। तं जहा-पुव भणिदमुहमे इंदियपज्जत्तसव्व जहण्णाउअणिबत्तिट्ठाणस्स कदलीधादो णत्यि। एवं समउत्तरदुसमउत्तरादिणिवत्तीणं पि घादो णस्थि । पुणो एदम्हादो जहण्णणिव्यत्तिट्ठाणादो सखेज्जगुणमाउ बधिद्रण सुहमपज्जत्तेमुवण्णस्स अस्थि कदलीघादो ( ३५४/७)। के वि आइरिया एवं भण तिजहण्णणिव्वन्तिठाणमुवरिमआउअवियप्पेहि वि पादं गच्छादि । केवल पिघादं गच्छदि । णवरि उरिमआउवियपेहि जहण्णणिब्वत्तिटाणं घादिज्जमाणं समऊणदुसमऊणादिक्मेण हीयमाणं ताव गच्छ दि जाब जहण्णणि व्वत्तिट्ठाणस्स मखेज्जे भागे ओदारिय सखेभागो सेसो त्ति । जदि पुण केवल जहण्णाणिव्वत्तिट्ठाण चेव घादे दि तो तत्थ दुविहो कदलीघादो होदि-जहण्णओउक्कस्सओ चेदि (३५५/१) । सुट्छ जदि थोवं धादेदि तो जहणियणिव्वत्तिट्ठाणस्स संखेज्जे भागे जीविदूण सससखे० भागस्स संखेज्जे भागे सखेज्जदिभागं वा घादेदि । जदि पुण बहुअं थादेदि तो जहण्ण णिवत्तिट्ठाण सखे० भागं जीविदूण संखेज्जे भागे कदलीघाण घादेदि (३५६/१)। एत्थ पढमवक्वाण ण भद्दयं, खुद्दाभवग्गणादो (३५७/१)। यहाँ कदली घातके विषय में दो उपदेश पाये जाते है। क्तिने ही आचार्य जघन्य आयुमें आवलिके असरूपातवे भाग-प्रमाण जीवनीय स्थान लब्ध होते है ऐसा कहते है। यथा पहले कहे गये सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकी सबसे जघन्य आयुके निवृत्तिस्थानका कदनीधात नहीं होता । इसी प्रकार एक समय अधिक और दो समय अधिक आदि निवृत्तियोंका भी घात नहीं होता। पुन इम जघन्य निवृत्तिस्थानमे असंख्यातगुणी आयुका बन्ध करके सूक्ष्म पर्याप्तको मै उत्पन्न हुए जीवका कदलीधात होता है । (३५४/७)। कितने ही आचार्य इस प्रकार कथन करते है-जधन्य निवृत्तिस्थान उपरिम आयुविकल्पोंके साथ भी घातको प्राप्त होता है और केवल भी धातको प्राप्त होता है। इतनी विशेषता है, कि उपरिम आयुविकल्पोके साथ धातको प्राप्त होता हुआ जधन्य निर्वृत्तिस्थान एक समय और दो समय आदिके क्रमसे कम होता हुआ वह तब तक जाता है जब तक जघन्य निवृत्तिस्थानका सख्यात बहुभाग उतरकर सख्यातवे भागप्रमाण शेष रहता है । यदि पुन केवल जघन्य निवृत्तिस्थानको घातता है तो वहाँपर दो प्रकारका कदलीघात होता है- जघन्य और उत्कृष्ट यदि अति स्तोकका धात करता है, तो जघन्य निवृत्तिस्थानके सख्यात बहुभाग तक जीवित रहकर शेष सख्यातवे भागके संख्यात बहुभाग या सख्यातवे भागका घात करता है। यदि पुन बहूतका घात करता है तो जघन्य निवृत्तिस्थानके सख्यात भागप्रमाण कालतक जीवित रहकर सरख्यात बहभागका कदलीधात द्वारा घात करता है। (३५५५/९)। यहॉपर प्रथम व्याख्यान ठीक नही है, क्योकि उसमे क्षुल्लक भवका ग्रहण किया है । (३५७/१) ।
९. अकाल मृत्युका अस्तित्व अवश्य है रा वा /२/५३/१०/१५८/८ अप्राप्तकालस्य मरणानुपलब्धेरपवाभाव इति
चेत्, म; द्रष्टत्वादाम्रफलादिवत् ॥१०॥ यथा अवधारितपाककालात प्राक् सोपायोपक्रमे सत्याघ्रफलादीना दृष्ट पाकरतथा परिच्छिन्नमरणकालात् प्रागुदीरणाप्रत्यय आयुषो भवत्यपवर्त । प्रश्न-अप्राप्तकाल में मरणकी अनुपलब्धि होनेसे आयुके अपवर्तनका अभाव है। उत्तर-जेसे पयाल आदिके द्वारा आम आदिको समयसे पहले ही पका दिया जाता है उसी तरह निश्चित मरण कालसे पहले भी उदीरणाके कारणोस आयुका अपवर्तन हो जाता है। श्लो. वा/५/२/५३/२/२६१/१६ न हि अप्राप्तकालस्य मरणाभाव खड्गप्रहारादिभि. मरणस्य दर्शनात् । - अप्राप्तकाल मरणका अभाव नहीं है, क्योंकि, खड्ग प्रहारादि द्वारा मरण देखा जाता है। ध १३/५,५,६३/३३४/१ कदलीधादेण मर ताणमाउद्विदचरिमसमए मरणाभावेण मरणाउट्ठिदिच रिमममयाण समाणाहियरणाभावादो च ।
कदलीधातसे मरनेवाले जीवोका आयुस्थितिके अन्तिम समयमे मरण नहीं हो सक्नेसे मरण और आयुके अन्तिम समयका सामानाधिकरण नही है। भ आ./वि /८२४/१६४/१२ अकालमरणाभावोऽयुक्त केषुचित्कर्म भूमिजेषु तस्य सतो निषेधादित्यभिप्राय । - अकाल मरणका अभाव कहना युक्त नहीं है, क्योकि कितने ही कर्मभूमिज मनुष्योमे अकाल मृत्यु है। उसका अभाव कहना असत्य वचन है; क्यों कि, यहाँ सत्य पदार्थका निपेध किया गया है। (दे० असत्य/३) १०. अकाल मृत्युकी सिद्धि में हेतु रा. वा./२/५३/११/१५८/१२ अकालमृत्युव्युदासाथ रसायनं चोपदिशति, अन्यथा रसायनोपदेशस्थ वैयर्थ्यम् । न चादोऽस्ति । अत आयुर्वेदसामध्यदिस्त्यकालमृत्यु । दुखप्रतीकारार्थ इति चेत, न; उभयथा दर्शनात् ॥१२॥ कृतप्रणाशप्रसग इति चेत. न, दत्वैव फल निवृत्ते ।१३। बिततापटशोषक्त अयथाकालनिवृत्त पाक इत्ययं विशेष । -१ आयुर्वेदशास्त्रमे अकाल मृत्युके वारणके लिए
औषधिप्रयोग बताये गये है। क्योकि, दवाओके द्वारा श्लेष्मादि दोषोको बलात् निकाल दिया जाता है। अत: यदि अकाल मृत्यु नमानी जाय तो रमायनादिका उपदेश व्यर्थ हो जायेगा। उसे
७. पर्याप्त होनेके अन्तमुहूते काल तक अकाल मृत्यु सम्भव नहीं घ १०/१,२,४,४१/२४०/७ पज्जत्तिसमाणिदसमयप्पहरि जाव अंतोमुहत्त
ण गद ताव कदलीधादण करेदि तिजाणावणमंतोमहत्तणिसी
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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