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परिग्रह
ये
का ग्रहण व सग्रह होता है, वह सब बाह्य परिग्रह कहलाता है। इसका मूल कारण होनेसे वास्तव में अन्तरग परिग्रह ही प्रधान है। उसके न होनेपर बाह्य पदार्थ परिषद् संज्ञाको प्राप्त नहीं होते, क्योंकि ये साधकको जबरदस्ती राग बुद्धि उत्पन्न करानेको समर्थ नहीं है। फिर भी अन्तरंग परिग्रहका निमित्त होनेके कारण श्रेयोमार्ग में इनका त्याग करना इष्ट है।
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१ परिग्रहके लक्षण ।
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परिग्रहके मेद
१
निज गुणोंका ग्रहण परिग्रह नहीं ।
३ वातादिक विकाररूप (शारीरिक) मूर्च्छा परिग्रह नहीं।
परिग्रहकी अत्यन्त निन्दा
परिग्रहका हिसामें अन्तर्भाव
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गृहस्थ के ग्रहण योग्य परिग्रह
साधुके ग्रहण योग्य परिग्रह ।
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परिग्रह त्याग व्रत व प्रतिमा
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परिग्रह त्याग अणुव्रतका लक्षण ।
२
परिग्रह त्याग महाव्रतका लक्षण ।
३ परिग्रह त्याग प्रतिमाका लक्षण ।
४ परिग्रह त्याग व्रतको पाँच भावनाएँ ।
व्रतकी भावनाओं सम्बन्धी विशेष विचार दे०/२ ५ परिग्रह परिमाणाव्रतके पाँच अतिचार ।
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परिग्रह परिमाण व्रत व प्रतिमामें अन्तर । परिग्रह त्यागको महिमा ।
परिग्रह त्याग व व्युत्सर्गं तपमें अन्तर - दे० व्युत्सर्ग / २ । परिग्रह परिमाण व क्षेत्र वृद्धि अतिचार में अन्तर
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परिग्रह सामान्य निर्देश
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- दे० ग्रंथ 1
कमका उदय परिग्रह आदिकी अपेक्षा होता है
-दे० हिंसा / १/४
समन्वय
दानार्थ भी धन संग्रहकी इच्छाका
-दे० उदय/२ । - ३० परिग्रह
-दे० दिग्वत । परिग्रह में कदाचित् किचित् अपवादका ग्रहण
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- दे० अपवाद | विधिनिषेध
दे० दान /६ ।
अंतरंग परिग्रहकी प्रधानता
बाह्य परिग्रह नहीं अन्तरंग ही है ।
तीनों का सम्बन्धी परिग्रहमें इच्छाकी प्रधानता।
अभ्यन्तर के कारण बाह्य है, बाह्यके कारण अभ्यन्तर
नहीं ।
अन्तरंग त्याग ही वास्तव में व्रत है।
अन्तरंग त्यागके बिना बाह्य त्याग अतिचित्कर है।
बाह्य त्यागमें अन्तरंगको ही प्रधानता है।
बाह्य परिग्रहकी कथंचित् मुख्यता व गौणता
बाह्य परिग्रहको परिग्रह कहना उपचार है।
बाह्य त्यागके बिना अन्तरंग त्याग अशक्य है ।
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१. परिग्रह सामान्य निर्देश
बाह्य पदार्थोंका आश्रय करके ही रागादि उत्पन्न होते है ।
बाह्य परिग्रह सर्वदा बन्धका कारण है।
बाह्याभ्यन्तर परिग्रह समन्वय
दोनोंमें परस्पर अविनाभावीपना ।
बाह्य परिग्रहके ग्रहणमें इच्छाका सद्भाव सिद्ध है।
बाह्य परिग्रह दुःख व इच्छाका कारण है ।
इच्छा हो परिग्रह ग्रहणका कारण है । आकिंचन्य भावनाले परिचहका त्याग होता है। अभ्यन्तरत्यागमें सर्वबाह्य त्याग अन्तर्भूत है । परिग्रह त्यागवतका प्रयोजन ।
निश्चय व्यवहार परिग्रहका नवायें ।
अचेलकत्व के कारण व प्रयोजन - दे० 'अचेलकत्व' ।
१. परिग्रह सामान्य निर्देश
१. परिग्रह के लक्षण
त. सू. /७/१७ मूर्च्छा परिग्रह |१७|= मूर्च्छा परिग्रह है |७| स.सि./४/११/२६२/५ लोभायोदयाद्विषयेषु सङ्ग परिग्रह स.सि./६/ १२ / ३३२/१० ममेदंबुद्धिलक्षण परिग्रह | ससि / ७ /१०/२६६/१० रागादयः पुनः कर्मोदयतन्त्रा इति अनात्मस्वभा
पाया। ततस्तेषु सङ्कल्पः परिग्रह इति युज्यते । १. लोभ कषायके उदयसे विषयो मंगको परिग्रह कहते है (रा.वा./४/२१ ३ / २३६/७ ), २. 'यह वस्तु मेरी है, इस प्रकारका संकल्प रखना परिग्रह है। (स.सि./०/१७/३२५/६ ) ( रा. ना./६/१२/३/५२५/२७) (त.सा /४/०७): ( साप / ४/५६) ३. रागादि तो हमके उदयसे होते है, अत: वह आत्माका स्वभाव न होनेसे हेय है । इसलिए उनमें होनेवाला संकल्प परिग्रह है। यह बात बन जाती है। (रावा /७/ १०/५/२४५/१०) ।
रामा/६/१५/३/२२५/२० ममेदं वस्तु अहमस्य स्वामीत्यात्मात्मीयाभिमान' संकल्पः परिग्रह हरमुच्यते। यह मेरा है मैं इसका स्वामी इस प्रकारका ममत्व परिणाम परिग्रह है ।
घ. १२/४,२८,६/२८२/९ परिगृह्यत इति परिग्रहः बाह्यार्थः क्षेत्रादि, परिगृह्यते अनेनेति च परिग्रह माह्मार्थमहेतुरत्र परिणामः । = परिगृह्यते इति परिग्रह' अर्थात् जो ग्रहण किया जाता है । इस निरुक्तिके अनुसार क्षेत्रादि रूप बाह्य पदार्थ परिग्रह कहा जाता है, तथा 'परिगृह्यते अनेनेति परिग्रह" जिसके द्वारा ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है, इस निरुक्तिके अनुसार यहाँ बाह्यपदार्थ के ग्रहण कारणभूत परिणाम परिग्रह कहा जाता है।
स सा.आ./२१० इच्छा परिग्रह इच्छा है वहीं परिग्रह है।
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२. निज गुणका प्रहण परिग्रह नहीं
स. सि./७/१७/३५५/६ यदि ममेदमिति संकल्प परिग्रह; संज्ञानाद्यपि परिग्रहः प्राप्नोति तदपि हि ममेदमिति संकाप्यते रागादिपरिणामबद मेष दोष 'प्रमत्तयोगाद् इत्यनुवर्तते। ततो ज्ञानदर्शनचा रिश्तोऽप्रमत्तस्य मोहाभावात्र मुर्च्छाऽस्तीति निष्परिग्रह सिद्धं । किच तेषां ज्ञानादीनामहेयत्वादात्मस्वभावत्वादपरिग्रहत्वस् ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोठ
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