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१.परिग्रह सामान्य निर्देश
परिग्रह
-प्रश्न-'यह मेरा है' इस प्रकारका संकल्प हो परिग्रह है तो ज्ञानादिक भो परिग्रह ठहरते है, क्योकि रागादि परिणामोके समान ज्ञानादिकमे भो 'यह मेरा है। इस प्रकारका संकल्प होता है। उत्तरयह कोई दोष नही है, क्योकि 'प्रमत्तयोगात' इस पदको अनुवृत्ति होती है, इसलिए जो ज्ञान, दशन और चारित्रवाला होकर प्रमाद रहित है उसके मोहका अभाव होनेसे मुर्छा नहीं है, अतएव परिग्रह रहितपना सिद्ध होता है। दूसरे वे ज्ञानादिक अहेय है और आत्माके स्वभाव है इसलिए उनमे परिग्रहपना नही प्राप्त होता । (रा.वा /७/१७/४/५४५/१४)।
३. वातादि विकाररूप मूर्छा परिग्रह नहीं स.सि /७/१७/३५४/१ लोके वातादिप्रकोपविशेषस्य मर्छति प्रसिद्धिरस्ति तद्ग्रहण कस्मान भवति । सत्यमेवमेतत् । मूच्छिरय मोह सामान्ये वर्तते । “सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्वव तिष्ठन्ते" इत्युक्त विशेषे व्यवस्थितः परिगृह्यते। - प्रश्न-लोकमे वातादि प्रकोप विशेषका नाम मूच्छा है ऐसी प्रसिद्वि है, इसलिए यहाँ इस मूच्र्वाका ग्रहण क्यो नहीं किया जाता । उत्तर-यह कहना सत्य है, तथापि मूच्छि धातुका सामान्य मोह अर्थ है. और सामान्य शब्द तहगत विशेषोमे ही रहते है, ऐसा मान लेनेपर यहाँ मूच्र्वाका विशेष अर्थ हो लिया गया है, क्योकि यहाँ परिग्रहका प्रकरण है। (रा वा // १७/२/५४५/३)। ४. परिग्रहकी अत्यन्त निन्दा
मैथुन कर्ममे रत होता है। नरकादिकमें जितने दुख है वे सब इससे उत्पन्न होते है। प. प्र /मू /२/८८-१० चेल्ला-चेल्ली-पुत्थियहि तूसइ मूढ णिभंतु । एयहि लज्जइ णाणियउ बधहं हेउ मुणतु ।८८) चट्टहि पट्टहि कुंडियहि चेल्ला-चेल्लियएहि । मोहु जणेविणु मुणिवरह उप्पहि पाडिय तेहि ८६। केण वि अप्पड वंचियउ सिरु लंचिवि छारेण । सयल वि संगण परिहरिय जिगवरलिगधरेण । -अज्ञानी जन चेला चेली पुस्तकादिकसे हर्षित होता है, इसमे कुछ सन्देह नहीं है, और ज्ञानीजन इन बाह्य पदार्थोसे शरमाता है, क्योकि इन सबौंको बन्धका कारण जानता है ।८८। पीछी, कमण्डलु, पुस्तक और मुनि श्रावक रूप चेला, अजिंका. श्राविका इत्यादि चेली-ये संघ मुनिबरोको मोह उत्पन्न कराके वे उन्मार्ग में डाल देते है।८। जिस किसीने जिनवरका भेष धारण करके भस्मसे सिरके केश लौच किये है, लेकिन सब परिग्रह नही छोड़े, उसने अपनी आत्माको ठग लिया । प्र. सा/त. प्र./२१३ २१६ सर्व एव हि परद्रव्यप्रतिबन्धा उपयोगोपराकत्वेन निरुपरागोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदायतनानि तदभावादेवाच्छिन्नश्रामण्यम । उपधे . छेदत्वमैकान्तिक्मेव । वास्तवमे सर्व ही परद्रव्य प्रतिबन्धक उपयोगके उपरंजक होनेसे निरुपराग उपयोग रूप श्रामण्यके छेदके आयतन है। उनके अभावसे ही अच्छिन्न श्रामण्य होता है ।२१३। उपधिमे एकान्तसे सर्वथा श्रामण्यका छेद ही है। (और छेद हिसा है)। पु सि. उ./११६ हिसापयित्वात्सिद्वा हिंसान्तरङ्गसङ्गेषु । बहिरड्गेषु तु नियतं प्रयातु मूच्छेब हिसात्वम् ।११६॥ = हिसाके पर्याय रूप होने के कारण अन्तर ग परिग्रहमें हिसा स्वयं सिद्ध है, और बहिर ग परिग्रहमे ममत्व परिणाम ही हिसा भावको निश्चयसे प्राप्त होते है।११६॥ ज्ञा./१६/१२/१७८ संगात्कामस्तत. क्रोधस्तस्माद्धिसा तयाशुभम् । तेन श्वाभ्री गतिस्तस्यां दुखं वाचामगोचरम् ।१२. = परिग्रहसे काम होता है, कामसे क्रोध, क्रोधसे हिंसा, हिसासे पाप, और पापसे नरकगति होती है। उस नरकगतिमें वचनोके अगोचर अति दुःख होता है। इस प्रकार दुखका मूल परिग्रह है ।१२) प वि./१/५३ दुानार्थ मवद्यकारणमहो निम्रन्थताहानये, शय्याहेतु तृणाद्यपि प्रशमिना लज्जाकर स्वीकृतम् । यत्तरिक न गृहस्थयोग्यमपर स्वर्णादिक साप्रत, निर्ग्रन्थेष्वपि चेत्तदस्ति नितरा प्राय प्रविष्टः कलि ।५३१८जब कि शय्याके निमित्त स्वीकार किये गये लज्जाजनक तृण (प्याल) आदि भी मुनियो के लिए आर्त-रौद्र स्वरूप दुनि एवं पापके कारण होकर उनकी निर्ग्रन्थताको नष्ट करते है, तब फिर वे गृहस्थके योग्य अन्य सुवर्णादि क्या उस निर्ग्रन्थताके घातक न होंगे। अवश्य होंगे। फिर यदि वर्तमानमें निर्ग्रन्थ मुनि सुवर्णादि रखता है तो समझना चाहिए कि कलिकालका प्रवेश हो चुका
सु.पा/मू /१६ जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुय च हवइ लिगस्स । सो
गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिओ निरायारो।१६। जिसके मतमें लिगधारीके परिग्रहका अल्प वा बहुत ग्रहणपना कहा है सो मत तथा उस मतका श्रद्धावान पुरुष निन्दा योग्य है जाते जिनमत विष परिग्रह रहित है सो निरागार है निर्दोष है। मो. पा./सू 1७६ जे पचचेलसत्ता गंथग्गाहीय जायणासीला। बाधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्रवमग्गम्मि ७g) -जो पाँच प्रकारके ( अण्डज, कसिज, वल्कल, रोमज, चर्मज) वस्त्रमें आसक्त है, मॉगनेका जिनका स्वभाव है, बहुरि अध कर्म अर्थात पापकर्म विषै रत है, और सदोष आहार करते है ते मोक्षमार्गत च्युत है ।। 'लि पा /मू १५ सम्मूहदि रक्खेदि य अट्ट झाएदि बहुपयत्तेण। सो पावमाहिदमदो तिरिक्वजोणी ण सो समणो ।५। जो निग्रन्थ लिगधारी परिग्रह कू सग्रह करै है, अथवा ताका चिन्तवन करे है, बहुत प्रयत्नसे उसकी रक्षा कर है, वह मुनि मापसे मोहित हुई है बुद्धि जिसकी ऐसा पशु है श्रमण नही ।। (भ. आ./म /११२६
११७३)। र सा /मू /१०६ धणधण्ण पडिग्गहण समणाण दूसण होइ ।१०। - जो मुनि धनधान्य आदि सबका ग्रहण करता है वह मुनि समस्त मुनियो
को दूषित करनेवाला होता है। मू.आ /६१८ मूल छित्ता समणो जो गिण्हादो य बाहिर जोग । बाहिरजोगा सव्वे मूलविहूणस्स कि करिस्संति ९१८ - जो साधु अहिंसादि मूलगुणोको छेद वृक्षमूलादि योगोको ग्रहण करता है, सो मूलगुण रहित है । उस साधुके सब बाहरके योग क्या कर सकते है,उनसे कर्मोंका क्षय नही हो सकता।६१८1 स सि /७/१७/३५५/११ तन्मूला. सर्व दोषा' संरक्षणादयः सजायन्ते । तत्र च हिंसावश्यंभाविनी। तदर्थमनृतं जत्पति। चौयं वा आचरति मैथुने च कमणि प्रयतते। तत्प्रभवा नरकादिषु दुखप्रकारा। - सन दोष परिग्रह मूलक ही होते हैं। 'यह मेरा है' इस प्रकारके सकल्प होने पर सरक्षण आदि रूप भाव होते है। और इसमें हिसा अवश्यम्भाविनी है। इसके लिए असत्य बोलता है, चोरी करता है,
५, साधुके ग्रहण योग्य परिग्रह प्र. सा /मू /२२२-२२५ छेदो जेण ण विजदि गहणविसग्गेमु सेवमाणस्स । समणो तेणिह बट्टदु काल वेत्त वियाणित्ता १२२२१ अप्पडिकुट उवधि अपत्थणिज्ज असजदजणेहि । मुच्छादिजणणरहिद गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं ।२२३। उवयरणं जिणमग्गे लिंग जहजादरूवमिदि भणिदं । गुरुवयण पि य विणओ सुत्तज्झयणं च णिहिटूठ १२२३॥ -जिस उपधिके (आहार-विहारादिकके ) ग्रहण विसर्जनमें सेवन करने में जिससे सेवन करने वालेके छेद नहीं होता उस उपधि युक्त काल क्षेत्रको जानकर इस लोकमें श्रमण भले वर्ते ।२२२। भले ही अल्प हो तथापि जो अनिन्दित हो, असयतजनोसे अप्रार्थनीय हो, और जो मुर्धादिको जनन रहित हो, ऐसा ही उपधि श्रमण ग्रहण करो।२२३। यथाजात रूप (जन्मजात-नग्न) लिग जिनमार्ग में
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा० ३-४
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