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ब्रह्मचर्य
बई सो हवे जो स्त्रीके शरीरको अशुचिमय और दुर्गन्धित जानकर उसके रूप- लावण्यको भी मन में मोहको पैदा करनेवाला मानता है। तथा मन-वचन और कायसे परायी स्त्रीको माता, बहन और पुत्री के समान समझता है, वह श्रावक स्थल ब्रह्मचर्यका धारी है। पा.पा./२१/४३/२१ माचये स्वारसंतोष परवारनिवृत्ति कस्यचित्सर्वस्त्री निवृति स्वस्त्री सन्तोष अथवा परस्त्री से निवृत्तिवा किसी के सर्वथा स्त्रीके त्यागका नाम ब्रह्मचर्य व्रत है ।
४. माधवं प्रतिमाका लक्षण
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रक प्रा./१४२ मलषोणं मलयोनि गलन्मतं प्रतिगधिभर पश्यन्न मनङ्गाद्विरमति यो ब्रह्मचारी | १४३१ जो मलके बीजभूत, महको उत्पन्न करनेवाले, मलप्रवाही दुर्गंधयुक्त, जानक मा ग्लानियुक्त अंगको देखता हुआ काम सेवन से विरक्त होता है, यह मचर्य प्रतिमाका भारी ब्रह्मचारी है ॥१४३॥
वसु. श्रा / २१७ पुत्तणवविहाणं पि मेहुणं सव्वदा विवज्जंतो । इस्थिकहाइगिवितोत्तमगुणरं भयारी यो २७ जो पूर्वी नौ प्रकार के मैथुनको सर्वदा याग करता हुआ स्त्रीकथा आदि भी निवृत हो जाता है, वह सातवे प्रतिमा रूप गुणका धारी ब्रह्मचारी श्रावक है। २१७ गुणा १००), (प्र.सं./टी./४५/८), (का अ./२८४), (सा. ध. / ७ /१७), (ला. सं /६/२५ ) ।
५. शीलके लक्षण
शील पा./ /४०.सी विसयविरागो 1४० पंचेन्द्रिय विषयसे विरक्त होगा शोल कहलाता है।
- व्रतोकी रक्षाको शील
घ. ८/३, ४१/८२/५ वद परिरक्खण सीलं णाम । कहते है । ( प. प्र /टी./२/६७) । अन. घ. /४/१७२ शीलं व्रतपरिरक्षणमुपैतु शुभयोगवृत्तिमितरहतिम् । संज्ञाक्षविरतिरोधी क्ष्नादियममलात्यय क्षमादश्च ॥ १७२॥ जिसके
द्वारा व्रतोकी रक्षा की जाय उसको शील कहते है। संज्ञाओंका परिहार और इन्द्रियोंका निरोध करना चाहिए, तथा उसममादि दस धर्मको धारण करना चाहिए । १७२ ॥ ० प्रकृति
प्रकृति शोस और स्वभान ये एकार्थमाची है)।
६. शीलके १८००० मंग व भेद १. सामान्य भेद
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भा. पा./पं. जयचन्द / १२०/२४०/१ शीलकी दोय प्रकार प्ररूपणा है - एक तो स्वय पर विभाग अपेक्षा है जर दूसरी स्त्री के ससर्ग की
अपेक्षा है ।
१. स्वद्रव्य परद्रव्यके विभागकी अपेक्षा
यू. बा./१०१०१०२०जीए करणे सण्णा इंदिय भोम्गादि सम
अयोग्येहि भरथा अट्ठारहसील सहस्साहं | १०१७ तिह सुहसंजोगी जोगो करणं च असुहसंजोगो । आहारादी सण्णा फासंदिय इदिया या । १०१८ | पुढविगदगागणिमारुदपत्तेयअणं तकायिया चैव । विगतिगचपचेदिय भोम्मादि हरदि दस पदे २०११ म अज्जव लाघव तक संजमो आकिचणदा । तह होदि बंभचेर सच्च चागो य दस धम्मा १०२०१ = १. तीन योग तीन करण चार सज्ञा पाँच इन्द्रिय दस पृथ्वी आदिक काय, दस मुनि धर्म- इनको आपस में गुणा करने से अठारह हजार शील होते है । १०१७ । २. मन, वचन, कायका शुभकर्मके ग्रहण करनेके लिए व्यापार वह योग है और अशुभके लिए प्रवृत्ति वह करण है । आहारादि चार संज्ञा है, स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियों है | १०१०१ पृथ्वी, जल, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति साधारण वनस्पति, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चन्द्र पचेन्द्रिय पृथिवी आदि दस है । १०१६। उम क्षमा, माम
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२. ब्रह्मचर्य निर्देश
शौच, रूप, संयम, किचन्य, मह्मचर्य, सत्य त्याग मे दस मुनिधर्म है | १०१०१ (भा.पा./डी / ११०/२६७/६), (भा.पा.. जयचन्द / १२०/२४०/४)
२. स्त्री संसर्गकी अपेक्षा
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काष्ठ, पाषाण, चित्राम (३ प्रकार अचेतन स्त्री ) xमन अर काय - (२४२६) (यहाँ वचन नाही) कृत कारित अनुमोदना (६३१८) पाँच इन्द्रिय (१-५-१० ) । द्रव्यभाव (१०x२ - १००) । क्रोधमान माया लोभ (१८०x४ - ०२०) । ये तो अतन स्त्रीके आश्रित कहे देवी, मनुष्यणी, तिर्यचिनी (३ प्रकार चेतन, स्त्री) x मन, वचन, काय (१५३-६) कृत-कारित अनुमोदना (Ex३ - २७) । पंचेन्द्रिय (२७४५ - १३५) । द्रव्य भाव (१३५x२२७० ) । चार संज्ञा ( २७०x४ = १०८०) । सोलह कषाय (१०८०x१६ - १७२८० ) । इस प्रकार चैतन स्त्रीके आश्रित १०२०० भेद कहे। कुल मिलाकर (७२०+१०२८०) शीतके १८००० भेद हुए (भा.पा/टी./११/
२६७/१४) (मा. पापं जयचन्द / १२०/२४०) |
२. ब्रह्मचर्य निर्देश
१. ब्रह्मचर्य व्रतकी ५ भावनाएँ
भ.आ./
१२९० महिलालोयणपुर दिसरणं सन्तनसहिवहाह पणिदरसेहिय विरदी भावना पंच बंभस्स । १२१०१ स्त्रियों के अंग देखना, पूर्वानुभूत भोगादिका स्मरण करना, स्त्रियाँ जहाँ रहती है वहाँ रहना, शृंगार कथा करना, इन चार बातोंसे विरक्त रहना, तथा बल व उन्मत्तता, उत्पादक पदार्थों का सेवन करना, इन पाँच Water त्याग करना ये ब्रह्मचर्यकी पाँच भावनाएँ है । १२१०। (मु. आं./३४०) चा पा./मू. (१५)। ख. सू. /७/०
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स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षण पूर्वरतानुस्मरण
पृथ्येष्ठरसस्वशरीरसंस्कारयागाः पञ्च 101 - स्त्रियों में रागको पैदा करनेवाली कथा सुननेका श्याग, स्त्रियोंके मनोहर अंगों को देखनेका त्याग, पूर्व भोगोंके स्मरणका त्याग, गरिष्ठ और इष्ट रसका श्याग तथा अपने शरीरके संस्कारका व्याग में ब्रह्मचर्यकी पाँच भावनाएँ है एम
स. सि / ७ /६/३४७ /११ अब्रह्मचारी मदविभ्रमोदभ्रान्तचित्तो वनगज इव वासिता तो विवश धन्धपरिक्लेशाननुभवति मोहाभिमा कार्याकार्यानभिज्ञो न चिरकुसमाचरति पराड़नालिङ्गनसद कृतर तिश्चैव वैरानुबन्धिनो दिनवधवन्धसर्वस्वहरणादीनपायान् प्राप्नोति प्रेत्य चाशुभ गतिमश्नुते गर्हितश्च भवति अतो विरतिरात्महिता । जो अब्रह्मचारी है, उसका चित्त मदसे भ्रमता रहता है । जिस प्रकार वनका हाथी हथिनीसे जुदा कर दिया जाता है, और विवश होकर उसे वध, बन्धन, और क्लेश आदि दू खोको भोगना पड़ता है, ठीक यही अवस्था अब्रह्मचारीकी होती है। मोहसे अभिभूत होनेके कारण वह कार्य अकार्य विवेक रहित होकर कुछ भी उचित आचरण नहीं करता । पर स्त्रीके रागमें जिसकी रति रहती है, इसलिए वह बैरको बढानेवाले लींगका छेदा जाना, मारा जाना, बाँधा जाना और सर्वस्वका अपहरण किया जाना आदि दुलोको और परलोकमें अशुभगतिको प्राप्त होता है। राधा गर्हित होता है । इसलिए अब्रह्मका स्याग आत्महितकारी है।
२. ब्रह्मवयं धर्मके पालनायें कुछ भावनाएँ
भ.आ./मू./८८२/६१४ कामका इत्यिका दोसा असुचित्तबुद सेवा य संगीति इत्थीषु वे मदोष स्त्रीकृत दोष शरीरकी पवित्रता और संसर्ग दोष इन पाँच कारणो से स्त्रियों से वैराग्य उत्पन्न होता है
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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