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ब्रह्मचर्य
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३. अब्रह्मका निषेध व ब्रह्मचर्यकी प्रधानता
रा. वा./8/4/२७/१६६/३० ब्रह्मचर्यमनुपालयन्तं हिसादयो दोषा न
शन्ति । नित्याभिरतगुरुकुलावासमधिवसन्ति गुणसंपद। वराङ्गनाविलास विभ्रमविधेयीकृत' पापैरपि विधेयी क्रियते । अजितेन्द्रियता हि लोके प्राणिनामवमानदात्रीति । एवमुत्तमक्षमादिषु तत्प्रतिपक्षेषु च गुणदोषविचारपूविकाया क्रोधादिनिवृत्तौ सत्यां तन्निवन्धनकर्माखवाभावात महान संबरो भवति ।-ब्रह्मचर्यको पालन करनेवालेके हिंसा आदि दोष नहीं लगते। नित्य गुरुकुल वासीको गुण सम्पदाएँ अपनेआप मिल जाती हैं। स्त्री विलास विभ्रम आदिका शिकार हुआ प्राणी पापोंका भी शिकार बनता है। संसारमें अजितेन्द्रियता बडा अपमान कराती है। इस तरह उत्तम क्षमादि गुणोंका तथा क्रोधादि दोषोंका विचार करनेसे क्रोधादिकी निवृत्ति होनेपर तन्निमित्तक कोका आस्रब रुककर महान संवर होता है। पं. वि./१/१०५ अविरतमिह तावत्पुण्यभाजो मनुष्या'. हृदि विरचितरागाः कामिनीना वसन्ति । कथमपि न पुनस्ता जातु येषां तदधी, प्रतिदिनमतिनम्रास्तेऽपि नित्यं स्तुवन्ति ।१०।-लोकमें पुण्यवान पुरुष रागको उत्पन्न करके निरन्तर ही स्त्रियोके हृदयमें निवास करते है। ये पुण्यवान पुरुष भी जिन मुनियोंके हृदयमें वे स्त्रियाँ कभी
और किसी प्रकारसे भी नहीं रहती हैं उन मुनियोंके चरणोंकी प्रतिदिन अत्यन्त नम्र होकर नित्य ही स्तुति करते हैं ।१०।
३. ब्रह्मचर्य अणुव्रतके अतिचार १. स्वदार संतोष व्रतकी अपेक्षा दे० ब्रह्मचर्य/१/१/२(स्वस्त्री भोगाभिलाष, इन्द्रियविकार, पुष्टरससेवा, स्त्री द्वारा स्पर्श की हुई शय्याका सेवन करना, स्त्रीके अंगोपांगका अवलोकन करना, स्त्रीका अधिक सरकार करना, स्त्रीका सम्मान करना, पूर्वभोगानुस्मरण, आगामी भोगाभिलाष, इष्ट विषय सेवन ये दस अब्रह्मके प्रकार है । ) मू आ./85६-६६८ पढ़म विउलाहारं विदिय काय सोहणं । तदियं गन्धमलाइ चउत्थं गीयवाइयं ६ तह सयणसोधणपि य इस्थिससग्गपि अत्थसगण । पुम्वरदिसरणमिदियविसयरदी पणीदरससेवा । दस विहमवंभविणं संसारमहादुहाणमावाहं । परिहरेइ जो महप्पा सो दढभव्वदो होदि IEEE१. बहुत भोजन करना, २. तैलादिसे शरीरका संस्कार करना, ३. सुगन्ध पुष्पमालादिका सेवन, ४. गीत-नृत्यादि देखना, ५. शय्या-क्रीडागृह या चित्रशाला आदिकी खोज करना,६.क्टाक्ष करती स्त्रियोके साथ खेलना, ७. आभूषण वस्त्रादि पहचानना, ८ पूर्व भोगानुस्मरण, ६. रूपादि इन्द्रियविषयों में प्रेम, १० इष्ट व पुष्ट रसका सेवन, ये दस प्रकारका अब्रह्म ससारके महा दुखोंका स्थान है। इसको जो महारमा सयमी त्यागता है, वही दृढ ब्रह्मचर्य व्रतका धारी होता है। त सू./७/२८ परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानगकोडाकामतीवाभिनिवेशा: ।२८। - पर विवाह्करण, इत्वरिकापरिगृहीतागमन, इत्व रिका-अपरिगृहीतागमन, अनङ्गक्रीडा, और काम तीवाभिनिवेश ये स्वदारसन्तोष अणुवतके पाँच अतिचार है ।२८१ (र. के. श्रा./६०)। ज्ञा./११/७-६ आद्य शरीरसस्कारो द्वितीय वृष्यसेवनम् । तौर्यत्रिकं तृतीयं स्यात्ससर्गस्तुर्य मिष्यते ।७। योषिद्विषयसकल्प' पञ्चम परिकीर्तितम् । तदङ्गवीक्षण षष्ठं संस्कार सप्तमं मतम् ।। पूर्वानुभोगसभोगस्मरणं स्यात्तदष्टमम् । नवम भाविनी चिन्ता दशम वस्तिमोक्षणम् 18/- प्रथम तो शरीरका संस्कार करना, २ पुष्टरसका सेवन करना, ३, गीत-वादित्रादिका देखना-सुनना, ४. स्त्रीमें किसी प्रकार का संकल्प वा विचार करना, ५. स्त्रीके अंग देखना, ६ देखनेका संस्कार हृदयमें रहना, ७ पूर्व में किये भोगका स्मरण करना, ८
आगामी भोगनेकी चिन्ता करनी, १०. शुक्रका क्षरण । इस प्रकार मैथुनके दश भेद है, इन्हें ब्रह्मचारीको सर्वथा त्यागने चाहिए।७-६ । २. परस्त्री त्याग व्रतकी अपेक्षा सा. ध./३/२३ कन्यादूषणगान्धर्व-विवाहादि विवर्जयेत् । परस्त्रीव्यसनत्यागवतशुद्धिविधित्सया ॥२३ - परस्त्री व्यसनका 'त्यागी श्रावक परस्त्री व्यसनके त्यागरूप बतकी शुद्धिको करनेकी इच्छासे कन्याके लिए दूषण लगानेको और गान्धर्व विवाह आदि करनेको छोडे ।२३। ला. सं/२/१८६,२०७ भोगपत्नी निषिद्धा स्यात्सर्वतो धर्मवेदिनाम ।
ग्रहणस्याविशेषेऽपि दोषो भेदस्य संभवात् ।१६। एतत्सर्व परिज्ञाय स्वानुभूति समक्षतः । पराङ्गनासु नादेया बुद्धि(धनशालिभिः ।२०७१ “धर्मके जाननेवाले पुरुषों को भोगपत्नीका पूर्ण रूपसे त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि यद्यपि विवाहित होनेके कारण वह ग्रहण करने योग्य है, तथापि धर्मपत्नीसे वह सर्वथा भिन्न है, सब तरहके अधिकारोंसे रहित है, इसलिए उसका सेवन करनेमें दोष है ।१८६। (धर्मपत्नी आदि भेद-दे० स्त्री०)। अपने अनुभव और प्रत्यक्षसे इन सबको स्त्रियोंके भेदोंमें समझकर बुद्धिमान पुरुषोंको परस्त्रियों का सेवन करनेमें अपनी बुद्धि कभी नहीं लगानी चाहिए ।२०७१ ३. वेश्या त्याग व्रतकी अपेक्षा सा.ध./३/२० त्यजेत्तौर्यत्रिकासक्ति, वृथाटया विङ्गसङ्गतिम् । नित्यं पण्याङ्गनात्यागी, तद्गगेहगमनादि च ।२०।- वेश्या व्यसनका त्यागी, श्रावक गीत, नृत्य और वाद्यमें आसक्तिको, बिना प्रयोजन धूमनेको, व्यभिचारी पुरुषोंकी संगतिको, और वेश्याके घर आने-जाने आदिको सदा छोड़ देवे ॥२०॥
१. शीलके दस दोष द. पा. टी./E/E/४ कास्ता' शीलविरोधना: स्त्रीसंसर्ग: सरसाहार सुगन्धसंस्कार कोमलशयनासनं शरीरमण्डनं गीतयादित्रश्रवणम् अर्थग्रहण कुशीलसंसर्ग राजसेवा रात्रिसंचरणम् इति दशशील विराधना । १ स्त्रीका संसर्ग, २. स्वादिष्ट आहार, ३ सुगन्धित पदार्थोसे शरीरका संस्कार, ४. कोमल शय्या व आसन आदिपर सोना, बैठना, ५. अलंकारादिसे शरीरका शृङ्गार, ६. गीत वादित्र श्रवण, ७ अधिक धन ग्रहण, ८. कुशीले व्यक्तियोकी स गति, ६. राजाकी सेवा, १०. रात्रिमें इधर-उधर घूमना, ऐसे दस प्रकारसे शीलकी विराधना होती है। ३. अब्रह्मका निषेध व ब्रह्मचर्यकी प्रधानता
1. वेश्या गमनका निषेध बसु. श्रा./८८-६३ कारुय-किराय-चडाल-डोंब पारसियाणमुच्छिट्ठं । सो भवरखेच जो सह वसइ एयरत्ति पि वेस्साए।८८ारतं णाऊण णर सव्वस्सं हरइ बंचणसएहिं । काऊण मुयइ पच्छा पुरिस चम्मट्ठिपरिसेसं १८६। पभणइ पुरओएयस्स सामी मोत्तण णस्थि मे अण्णो । उच्चइ अण्णस्स पुणो करेइ चाडूणि बहुयाणि 1१०1 माणी कुलजा सूरो वि कुणइ दासत्तर्ण पिणीचाण । वेस्सा करण बहुग अवमाण सहइ कामंधो।।१। जे मज्जमंसदोसा वेस्सा गमणम्मि होति ते सव्वे। पाव पि तत्थहिट्ठ पावइणियमेण सविसेस ।१२) पावेण तेण दुक्ख पावइ संसारसायरे धोरे । तम्हा परिहरियव्वा वेस्सा मण-वयण-काएहि 1६३-जो कोई भी मनुष्य एक रात भी वेश्याके साथ निवास करता है, वह कारु (लुहार ), चमार, किरात (भौल), चण्डाल, डोब ( भगी)
और पारसी आदि नीच लोगोका जूठा खाता है। क्योकि, वेश्या इन सभी लोगोंके साथ समागम करती है।४८। वेश्या, मनुष्यको अपने ऊपर आसक्त जानकर सैकड़ो व चणाओसे उसका सर्वस्व हर लेती है और पुरुषको अस्थि-चर्म परिशेष करके, छोड देती है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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