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पर्याय
.../९७९ ले निन्नाश्च पर्ययाः सूक्ष्मा । १७५। -स्थूली में सूक्ष्मकी तरह स्थूल पर्यायोगे भी सूक्ष्मपर्याय अन्तर्शन होती है।
३. स्थूल व सूक्ष्म पर्यायोंकी सिद्धि
प. पू./१७२१०३,१० का भावार्थ-तत्र व्यतिरेक. स्यात् परस्परा भावलक्षणेन यथा अशविभाग पृथगिति सहान सतामेव ॥ १७२॥ तस्मात् व्यतिरेकत्वं तस्य स्यात् स्थूलपर्यय स्थूल' । सोऽयं भवति न सोऽय यस्मादेतावतैव ससिद्धि. । १७३ | तदिदं यथा स जीवो देवो मनुजाद्भवन्नथाप्यन्य । कथमन्यथात्वभावं न लभेत स गोरसोऽपि नयात् | १८० = नरकादि रूप व्यजन पर्याये स्थूल है. क्योकि उनमें एकजातिपनेकी अपेक्षा सदृशता रहते हुए भी व्यतिरेक देखा जाता है। अर्थात 'यह वह है' यह वह नही है', ऐसा लक्षण घटित होता है । १७२ - १७३ | परन्तु अर्थ पर्यायें सूक्ष्म है। क्योंकि, यद्यपि निरयता तथा नियता होते हुए भी कम कचित् सदृशता तथा विसदृशता होती है । परन्तु उसका काल सूक्ष्म होनेके कारण क्रम प्रतिसमय लक्ष्यमें नही आता । इसलिए 'यह वह नही है' तथा 'वह ऐसा नहीं है' ऐसी विवक्षा बन नहीं सकती ।
९. स्वभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय
नि. सा. / . / ९५.२८ डम्मोपाधिविवज्जिय पज्जाया ते सहायमिदि भणिया | १५ | अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जावो |२८| पाधि रहित पर्याये वे स्वभाव (द्रव्य) पर्याये वही गयी है |१| अन्यकी अपेक्षा रहित जो परमाणुका परिणाम यह (इगत द्रव्यकी) स्वभान पर्याय है
न. च. वृ / २१,२५,३० दव्वाणं खुपयेसा जे जे सहाव संठिया लोए । ते ते पुण पज्जाया जाण तुम दविणसब्भावं | २१| देहायारपएसा जे थक्का उयकम्मणिमुक्का । जीवस्स णिच्चला खलु ते सुद्धा दव्वपज्जाया | २५ | जो खलु अणाइणिहणो कारणरूवो हु कज्जरुवो वा । परमाणुपोग्गलाणं सो दव्वसहावपज्जाओ 1३०1 सब द्रव्योंकी जो अपने-अपने प्रदेशोंकी स्वाभाविक स्थिति है वहीं द्रव्यकी स्वभाव पर्याय जात २१ कर्मोसे निर्मु सिद्ध जीवो जो देहाकार रूपसे प्रदेशोकी निश्चल स्थिति है वह जीवकी शुद्ध या स्वभाव द्रव्य पर्याय है | २५ | निश्चयसे जो अनादि निधन कारण रूप तथा कार्य रूप परमाणु है वही पुद्गल द्रव्यकी स्वभाव द्रव्य पर्याय है । ३०१ (नि.सा./ता वृ./२८), (पं. का./ता वृ./५/१४/१३), (प. प्र. टी / ५७) । आ./३ स्वभावव्यजन पर्यायारपरमशरीरात् किचिन्नसिद्ध. पर्याया अविभागो पुद्गल परमाणु स्वभावव्यपर्याय। = चरम शरीरसे किचित् न्यून जो सिद्ध पर्याय है वह (जीव द्रव्यको) स्वभाव द्रव्य व्यजन पर्याय है। अविभागी पुद्गल परमाणु द्रव्यकी स्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय है । (द्र.सं./टी / २४/६६/११) । पं.का./ता.वृ./१६/३६/११ स्वभावव्यञ्जनपर्यायो जीवस्य सिद्धरूप | = जीवको सिद्ध रूप पर्याय स्वभाव व्यंजन पर्याय हैं ।
१० विभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय
नि.सा.// ९३.२८ शरणारयतिरिवरा पञ्जाया ते विभावमिदि भविदा ११६ धरून पुमो परिणाम सो विहाओ |१८ - मनुष्य, नारक, तिथंच और देवरूप पर्याये में (जोब द्रव्यकी) विभाव पर्यायें कही गयी है । १५ । तथा स्कन्ध रूप परिणाम वह (गल द्रव्यकी विभान पर्याय नही गयी है।
न.च.वृ./ २३.३३ ज चदुर्गादिदेहीणं देहायारं पदेसपरिमाणं । अह विग्गहगइजोवे तं दव्वविहावपज्जायें | २३ | जे सखाई खंधा परि
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पर्याय
जामिआ दुअणुआ दिख धेहि । ते विय दव्बविहावा जाण तुमं पोग्गलाण च |३३| = जो चारो गतिके जीवोका तथा विग्रहगतिमें जीवोंका देहाकार रूपसे प्रदेशोका प्रमाण है, वह जीवकी विभाव द्रव्य पर्याय है । २३। और जो दो अणु आदि स्कन्धो से परिणामित संख्यात स्कन्ध है वे पुद्गलोकी विभाव द्रव्य पर्याय तुम जानो । ३३ । (प. प्र. / टी./५७), (प का . / ता वृ / ५ /१४/१३) |
आ प ० / ३ विभावद्रव्यच्यब्जन पर्यायाश्चतुर्विधा नरनारकादिपर्याया अथवा चतुरशीतिलक्षा योनय । पुद्गलस्य तु द्वयणुकादयो विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्याया । = = चार प्रकारकी नर नारकादि पर्याये अथवा चौरासी लाख योनियाँ जीव द्रव्यकी विभाव द्रव्य व्यजन पर्याय है। तथा दो अणुकादि पुद्गलद्रव्यकी विभाव द्रव्य व्यजन पर्याय है। पं. काता, ./१६/२६/१०.१९) ।
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१६ सुरनारकति मनुष्यलक्षणा परद्रव्यसंबन्धनिवृतवादशुद्धाश्चेति । देव नारक-तियंच मनुष्य स्वरूप पर्याये परद्रव्य के सम्बन्धसे उत्पन्न होती है इसलिए अशुद्ध पर्याये है। (प.का / ता. वृ./१६/३५ /१८) |
नि सा./ता.वृ/२८ स्कन्दपर्याय स्वजातीयविशुद्ध इति । = स्कन्ध पर्याय स्व जातीय बन्धरूप लक्षणसे लक्षित होनेके कारण अशुद्ध है ।
११. स्वभाव गुण व अर्थ पर्याय
न. च. वृ /२२,२७,३१ अगुरुल हुगा अणता समय समयं स समुन्भवा जे वि । दव्वाणं ते भणिया सहावगुणपज्जया जाण ॥२२॥ णाणं दसण सुह बीरियं च ज उहयकम्मपरिहीणं । त सुद्ध जाण तुम जीवे गुणपज्जयं सव्वं ॥ २६॥ रूवरसगधफासा जे थक्का जेसु अणुकदव्बेसु । ते चैव पोग्गलाणं सहावगुणपज्जया गया । ३१। द्रव्योके अगुरुलघु गुणके अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदोकी समय-समय उत्पन्न होनेवाली पर्याये है हो स्वभाव गुणपर्याय कही गयी हैं, ऐसा तुम जानो | २२ | द्रव्य व भावकर्मसे रहित शुद्ध ज्ञान, दर्शन, मुख व वीर्य जीव द्रव्यकी स्वभाव गुणपर्याय जानो । २३| ( प्र / टी / १/५७) एक अणु रूप पुद्गल द्रव्यमे स्थित रूप, रस, गन्ध व वर्ण है, वह पुद्गल अव्यको स्वभाव गुण पर्याय जानो ॥३१॥ (पं. काता /५/१४१७/१३)।
बा. १/२ अगुरुतविकारा स्वभावयास्ते द्वादशमा पवृद्धिरूपा षड्हानिरूपा । - अगुरुलघु गुणके विकार रूप स्वभाव पर्याय होती है । वे १२ प्रकारकी होती है, छह वृद्धि रूप और छह हानि रूप । प्र. सा./त प्र. / १३ स्वभावपर्यायो नाम समस्तद्रव्याणामात्मीयात्मीयागुरुलघुगुणद्वारेण प्रतिस गीयमानपट् स्थानपतितवृद्धिहा निनानात्वानुभूति । समस्त द्रव्योके अपने-अपने अगुरुलघुगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होनेवाली षट् स्थानपतित हानिवृद्धि रूप अनेकत्वकी अनुभूति स्वभाव गुण पर्याय है (प का प्र./९६), (पं.प्र./टी./ १/४०): (पं.का./ता.वृ./१६/३६/०)।
पं.का./ता.वृ./पंक्ति परमाणु वर्णादिम्यों
वर्णान्तरादिपरिणमन स्वभावगुणपर्याय (३/१४/२४) सुद्धा पर्याया अनुरुपुगुणपदवानिवृद्धिरूपेण पूर्वमेव स्वभावगुणपर्यायव्याख्यानकाले सर्वद्रव्याणा कथिता (१६/१६/१४) । = = वर्ण से वर्णान्तर परिणमन करना यह परमाणुको स्वभाव गुणपर्याय है । (५/१४/१४)। शुद्धगुण पर्यायकी भाँति सर्व द्रव्योंकी अगुस्ताकी पर हानि वृद्धि रूपसे शुद्ध अर्थ पर्याय होती है।
१२. विभाव गुण व अर्थ पर्याय
न च / २४,३४ / म दिसुदओहीमणपज्जयं च अण्णाणं तिणि जे भणिया । एवं जोवस्स इमे विभावगुणपज्जया सव्वे ॥ २४॥ रूपाइय जे उत्ता जे
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