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प्रकृति बंध
४. प्रकृति बन्ध विषयक शंका-समाधान भोजनका अनेक विकारमे समर्थ वात, पित्त, श्लेष्म, खल, रस वचनं तत्समीपे तन्निबन्धनत्वात । .. आयुनिवन्धनानि हि प्राणिनां आदि रूपसे परिणमन हो जाता है । उसी तरह बिना किसी प्रयोगके सुखादीनि ।२०। तदनन्तरं नामवचनं तदुदयापेक्षत्वात प्रायो नामोदकम आवरण, अनुभव, मोहापादन, नाना जाति नाम गोत्र और यस्य ।२११ ततो गोत्रवचनं प्राप्तशरीरादिलाभस्य सशब्दअन्तराय आदि शक्तियोसे युक्त होकर आत्मासे अन्ध जाते है।३। नाभिव्यक्तेः ।२२। परिशेषादन्ते अन्तरायवचनम् ।२३१ -१. ज्ञान२. जैसे-मेघका जल पात्र विशेषमें पड़कर विभिन्न रसोमे परिणमन से आत्माका अधिगम होता है अत' स्वाधिगमका निमित्त होनेसे वह कर जाता है (अथवा हरित पल्लव आदि रूप परिणमन हो जाता है। प्रधान है, अत ज्ञानावरणका सर्वप्रथम ग्रहण किया है ।१६। २. (प्रसा.) उसी तरह ज्ञान शक्ति का उपरोध करनेसे ज्ञानावरण साकारोपयोग रूप ज्ञानसे अनाकारोपयोगरूप दर्शन अप्रकृष्ट है परन्तु सामान्यत' एक होकर भी अबान्तर शक्ति भेदसे मत्यावरण श्रुतावरण बेदनीय आदिसे प्रकृष्ट है क्योकि उपलब्धि रूप है, अत दर्शनावरणआदि रूपसे परिणमन करता है। इसी तरह अन्य कर्मों का भी मूल का उसके बाद ग्रहण किया।१७। ३. इसके बाद वेदनाका ग्रहण और उत्तर प्रकृति रूपसे परिणमन हो जाता है ।
किया है, क्योकि, वेदना ज्ञान-दर्शनकी अव्यभिचारिणी है, घटादि ध १२/४,२,८,११/२८७/१० कम्मइयवग्गणाए पोग्गनक्वंधा एयसरूवा रूप विपक्षमें नही पायी जाती ।१८। ४ ज्ञान, दर्शन और सुख-दुःख कध जीवसबधेण अट्ठभेदमाढउक्कते। ण, मिच्छत्तासजम-कसाय- वेदनाका विरोधी होनेसे उसके बाद मोहनीयका ग्रहण क्यिा है। जोगपच्चयाबळंभबलेण समुप्पण्णसत्तिसं जूत्तजीवसबधेण कम्म- यद्यपि मोही जीवीके भी ज्ञान, दर्शन, सुखादि देखे जाते है फिर इयपोग्गलक्खधाणं अट्ठकम्मायारेण परिणमण पडिविरोहाभावादो। भी प्राय मोहाभिभूत प्राणियोको हिताहितका विवेक आदि नहीं -प्रश्न-कार्मण वर्गणाके पौद्गलिक स्कन्ध एक स्वरूप होते हुए रहते। अत. मोहका ज्ञानादिसे विरोध कह दिया है ।१६। ५. जीवके सम्बन्धसे कैसे आठ भेदको प्राप्त होते है । उत्तर-नही, क्योकि प्राणियोको बायु निमित्तक सुख-दुख होते है। अत' आयुका क्थन मिथ्यात्व, असयम, कषाय और योगरूप प्रत्ययोके आश्रयसे उत्पन्न इसके अनन्तर किया है। तात्पर्य यह है कि प्राणधारियोको ही र्म हुई आठ शक्तियोसे सयुक्त जीवके सम्बन्धसे कार्मण पुद्गल-स्कन्धो- निमित्तक सुखादि होते है और प्राण धारण वायुका कार्य है ।२०॥ का आठ कर्मोके आकारसे परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है। ६ आयुके उदयके अनुसार ही प्राय गति आदि नामकर्मका उदय ४. एक ही पुदगल कर्ममें अनेक कार्य करनेकी शक्तिकैसे होता है अत' आयुके बाद नामकर्मका ग्रहण किया है ।२१। ७ शरीर रा. वा./८/४/8-१४/५६८/२६ पुद्गलद्रव्यस्यैकस्यावरणसुखदु खादिनिमि
आदिकी प्रापिके बाद ही गोत्रोदयसे शुभ अशुभ अादि व्यवहार होते त्तत्वानुपपत्तिविरोधात हा न वा, तत्स्वाभाव्यादग्नेहपाकप्रताप
है। अत. नासके बाद गोत्रका कथन किया गया है ।२२॥ ८. अन्य प्रकाशसामर्थ्यवत् ।१०। अनेकपरमाणुस्निग्धक्षबन्धापादितानेका
कोई कर्म बचा नही है अत अन्तमें अन्तराय का कथन किया गया स्मकस्कन्धपर्यायार्थादेशात स्यादनेकम् । ततश्च नास्ति विरोधः।
है १२३ ।११। पराभिप्रायेणेन्द्रियाणां भिन्नजातीयाना क्षीराद्य पयोगे वृद्धिवत् । गो.क././१६-२० अन्भरहिदादु पुव्वं णाणं तत्तो हि दसणं होदि ।
"यथा पृथिव्यप्तेजोवायुभिरारब्धानामिन्द्रियाणा भिन्नजाती- सम्मत्तमदो विरिय जीवाजीवगदमिदि चरिमे ।१६। आउबलेण याना क्षीरघृतादिवेकमप्युपयुज्यमानम् अनग्राहक दृष्ट तथेदमपि
अवठिदि भवस्स इदि णाममाउपुवं तु । भवमस्सिय णीचुच्च इदि इति ।१२। वृद्धिरेकब, तस्या घृताद्यनुग्राहकमिति न विरोध इति,
गोदं णामपुवं तु १८। णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीयतन्न, कि कारणम्। प्रतीन्द्रियं वृद्धिभेदाव। यथै वेन्द्रियाणि
मोहणीयं । आउगणामं गोदतरायमिदि पढिदमिदि सिद्ध ॥२०॥ भिन्नानि तथैवेन्द्रियवृद्धयोऽपि भिन्ना ।१३। यथा भिन्नजातीयेन -१. आत्माके सब गुणों में ज्ञानगुण पूज्य है, इस कारण सबसे पहले क्षीरेण तेजोजातीयस्य चक्षुषोऽनुग्रह ,तथेव आत्मर्मणोश्चेतनाचेतन- कहा। उसके पीछे दर्शन, तथा उसके भी पीछे सम्यक्त्वको कहा है। त्वार अतुल्यजातीय कर्म आत्मनोऽनग्राहकमिति सिद्धम् । प्रश्न- तथा वीर्य शक्ति रूप है। वह जीव व अजीव दोनीमें पाया जाता है। पुद्गल द्रव्य जब एक है तो वह आवरण और सुख-दुखादि अनेक जीवमें तो ज्ञानादि शक्तिरूप, और अजीव-पुद्गलमें शरीरादिकी कार्योका निमित्त नही हो सकता। उत्तर-ऐसा ही स्वभाव है। शक्ति रूप रहता है। इसी कारण सबसे पीछे कहा गया है। इसीजैसे एक ही अग्निमे दाह,पाक, प्रताप और सामर्थ्य है उसी तरह एक लिए इन गुणोंके आवरण करनेवाले कर्मोका भी यही क्रम माना है। ही पुद्गलमे आवरण और सुख दुखादिमे निमित्त होनेकी शक्ति है, ।१६। २. (अन्तराय कर्म कथ चित अघातिया है, इसलिए उसको इसमे कोई विरोध नही है। २. द्रव्य दृष्टिसे पुदगल एक होकर भी सर्व कर्मों के अन्तमे कहा है) दे० अनुभाग/३/५। ३. नामकर्मका अनेक परमाणुके स्निग्धरूक्ष वन्धसे होनेवाली विभिन्न स्कन्ध पर्यायो- कार्य चार गति रूप शरीरकी स्थिति रूप है। वह आयुकर्म बलसे की दृष्टि से अनेक है, इसमे कोई विरोध नही है। ३ जिस प्रकार ही है। इसलिए आयुकर्मको पहले कहकर पीछे नामकर्मको कहा है। वैशेषिकके यहाँ पृथिवी, जल, अग्नि और वायु परमाणुओसे निष्पन्न और शरीरके आधारसे ही नीचपना व उत्कृष्टपना होता है, इस कारण भिन्न जातीय इन्द्रियोका एक ही दूध या धी उपकारक होता है उसी नामकर्मको गोत्रके पहले कहा है ।१८। ४. ( वेदनीयकर्म कथंचित प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए। ४. जैसे इन्द्रियाँ भिन्न है वैसे घातिया है। इसलिए उसको घातिया कर्मोके मध्यमें कहा । दे० अनुउनमें होनेवाली वृद्धियों भी भिन्न-भिन्न है। जैसे पृथिवी जातीय भाग/३/४)। ५. इस प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, दूधसे तेजो जातीय चक्षुका उपकार होता है उसी तरह अचेतन
मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय यह कर्मों का पाठकम सिद्ध कर्मसे भी चेतन आत्माका अनुग्रह आदि हो सकता है। अतः भिन्न
हुआ ॥२०॥ जातीय द्रव्योमे परस्पर उपकार माननेमे कोई विरोध नहीं है। ५. आठों प्रकृतियोंके निदेशका यही क्रम क्यों
६. ध्रवबन्धी व निरन्तरबन्धी प्रकृतियोंमें अन्तर रा. वा./८/४/१६-२३,७६६/२० क्रमप्रयोजन ज्ञानेनात्मनोऽधिगमात् । ध८/३,६/१७/७ णिरतरबधस्स धुवबंधस्स को विसेसो। जिस्से पयडीए ततो दर्शनावरणमनाकारोपलब्धे। • साकारोपयोगाद्धि अनाकारो- पच्चओजस्थ करथे वि जीवे अणादिभ्रषभावेण लम्भइ साधुचर्षधषयडी। पयोगो निकृष्यते अन भिव्यक्तग्रहणात् । उत्तरेभ्यस्तु प्रकृष्यते अर्थी- जिस्से पयडीए पच्चो णियमेण सादि-अधुओ अंतोमुत्तादिकालापलब्धितन्त्रत्वात ।१७। तदनन्तरं वेदनावचनं तदव्यभिचारात् ।। बछाई सा णिरंतरबंधपयडी। -प्रश्न-निरन्तर पन्ध और ज्ञानदर्शनाव्यभिचारिणी हि वेदना घटादिष्वप्रवृत्त ।।१८। ततो ध्र वबन्धमें क्या भेद है। उत्तर-जिस प्रकृतिका प्रत्यय जिस किसी मोहाभिधानं तद्विरोधात ।...क्वचिद्विरोधदर्शनातन सर्वत्र । भी जीवमें अनादि एवं ध व भावसे पाया जाता है। वह घु घबन्ध मोहाभिभूतस्य हि कस्यचित हिताहितविवेकादिर्नास्ति।१६। आयु- प्रकृति है, और जिस प्रकृतिका प्रत्यय नियमस सााद एष बभब तथा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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