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प्रकृति बंध
५. प्रकृति बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम
अन्तर्मुहर्त आदि काल तक अवस्थित रहनेवाला है वह निरन्तर बुढिदंसणादो । तम्हा ण पयडी अणुभागो त्ति घेत्तबो। = प्रश्नबन्धी प्रकृति है।
प्रकृति अनुभाग क्यो नही हो सकती। उत्तर-१. नहीं, क्योकि, प्रकृति ७. प्रकृति और अनुमागमें अन्तर
योगके निमित्तसे उत्पन्न होती है, अतएव उसकी कषायसे उत्पत्ति
होने में विरोध आता है। भिन्न कारणोंसे उत्पन्न होनेवाले कार्योमें एकघ. १२/४,२,७,१६६/8/७ पयडी अणुभागो किण्ण होदि। ण, जोगादो रूपता नहीं हो सकती, क्योंकि इसका निषेध है। दूसरे, अनुभागकी उम्पज्जमाणपयडीए कसायदो उत्पत्तिविरोहादो। ण च भिण्णकार- वृद्धि प्रकृतिकी वृद्धिमें निमित्त होती है, क्योकि, उसके महान होनेपर गाणं कजाणमेयत्तं, विप्पडिसेहादो। कि च अणुभागवुड्ढी पयडि- प्रकृतिके कार्य रूप अज्ञानादिककी वृद्धि देखी जाती है। इस कारण वुढिणिमित्ता, तीए महतीए संतीए पयडिकज्जस्स अण्णाणादियस्स प्रकृति अनुभाग नहीं हो सकती, ऐसा जानना चाहिए। ५. प्रकृति बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम १. युगपत् बन्ध योग्य सम्बन्धी -(गो. क./जी, प्र./200/88/१)।
(प्रत्यनीक, अन्तराय, उपधात, प्रद्वेष, निह्नव, आसादन) ये छहो युगपत ज्ञानावरण वा दर्शनावरण दोनोंके बन्धको कारण है। २. सान्तर निरन्तर बन्धी प्रकृतियो सम्बन्धी--(ध.८/३३/१)।
(विवक्षित उत्तर प्रकृतिके बन्धकालके क्षीण होनेपर नियमसे ( उसी मल प्रकृतिको उत्तर ) प्रतिपक्षी प्रकृतियोंका बन्ध सम्भव है। ३. ध्रुव अध्रुव बन्धी प्रकृतियों सम्बन्धो-(ध, ८/२६/४०)
मल नियम-(ओघ अथवा आदेश जिस गुणस्थान में प्रतिपक्षी प्रकतियोंका बन्ध होता है उस ओघ या मार्गणा स्थानके उस गुणस्थानमें उन प्रकृतियोका अध व बन्धका नियम जानना। तथा जिस स्थानमे केवल एक ही प्रकृतिका बन्ध है, प्रतिपक्षीका नहीं, उस स्थानमें ध्र व ही बन्ध जानो। यह प्रकृतियाँ ऐसी है जिनका बन्ध एक स्थानमें ध्रव होता है तथा किसी अन्य स्थानमें अध व हो जाता है। ४. विशेष प्रकृतियोंके बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम-ध.प्र.); (गो. क./जी, प्र./भा./पृ )।
प्रमाण
प्रकृति
बन्ध सम्बन्धी नियम
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प्रमाण
प्रकृति
बन्ध सम्बन्धी नियम
१-२ शान दर्शनावरण गो./600/RCE IS ज्ञानावरणी
दर्शनावरणी
३. वेदनीय ध./११०/४०, साता
घ./११८ घ. ११/३१२
असाता साता, असाता
।
४. मोहनीय घ/१४ । पुरुष वेद ध/६० | हास्य, रति विशेष दे० आगे शीर्षक न०६
५. आयु गो./६३४/८३६ | तिर्यंचायु गो./६४५/६०५ | मनुष्यायु घ./६३,६५ | आयु सामान्य
६. नाम गो./७४५/EKE | नरक, देवगति
पं. स./प्रा./३/६८) तीर्थ कर
सम्यक्त्व सहित ही बँधे । दोनो युगपत बंधती है। पं.स /प्रा./३/ आ० द्विक
संयम गो./५२८/६८६ अगोपाग सा० वस पर्याप्त व अपर्याप्त सहित
ही बंधे। ध./६६ वैक्रि० अगोपाग नरक देव गति सहित ही बॅधे औ०
तियंच मनुष्यगति सहित ही बॅधे ।
, नरकगतिके साथ न बंधे शेष| गो./१२८/६८६ सहनन सामान्य
त्रस पर्याप्त व अपर्याप्त प्रकृति गतिके साथ बंधे।
सहित ही बंधे। चारों गति सहित बंधे।।
|घ/६६ आनुपूर्वी सामान्य उस उस गति सहित ही बंधे, दोनो प्रतिपक्षी है एक साथ
अन्य गति सहित नहीं। न बँधे। गो,/५२८/६८६ परघात
त्रस स्थावर पर्याप्त सहित ही बॅधे। गो./१२४/६८३ आतप
पृथिवीकाय पर्याप्त सहित ही बंधे। नरक गति महित न बंधे। गो/५२४/६८३/
उद्योत
तेज, वात, साधारण वनस्पति, बादर, सूक्ष्म तथा अन्य सर्व सूक्ष्म नही बॉधते अन्यत्र
बॅधती है। | गो./५२८/६८६ / उच्छ्वास सप्तम पृथ्वीमें नियमसे बँधे ।
बस स्थावर पर्याप्त सहित ही बंधे।। तेज, वात, कायको न बंधे। ।
प्रशस्त अप्रशस्त | त्रस पर्याप्त सहित ही बँधे । उस उस गति सहित ही थे।
विहायोगति
सुस्वर-दुस्वर ध/७४
स्थिर नरक गतिके साथ न बंधे। मनुष्य तियंच पर्याप्त ही बँधे
शुभ अपर्याप्त नहीं।
ध./२८ यश कीति देव नारकी न बाँधे अन्य त्रस ध./७४ तीर्थकर
नरक व तिर्यचगतिके साथ न स्थावर बाँधते है।
विशेष दे० आगे शीर्षक नं०७ बंधे। देव नरक गति सहित न बंधे।। ७. गोत्र
घ/२२ उच्चगोत्र । नरक तिर्यंच गतिके साथ नबंधे। देव नरक गति सहित ही बंधे। नोट-जहाँ नियम नहीं कहा वहाँ सर्वत्र ही बन्ध सम्भव जानना ।
गो/७४५/१०३
गो./५४६/७०८ ||
एकेन्द्रि० जाति
अप० औ० व औ०
मिश्र शरीर बै० शरीर
घ/६६
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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