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________________ प्रकृति बंध ५. सान्तर निरन्तर बम्धी प्रकृतियों सम्बन्धी नियम (प.) प्रकृति निरन्तर बन्धके स्थान प्रमाण १. वेदनीय २. मोहनीय ८,२८२,३६४ ६० ६० ३. नाम १४,३३२ | साता पुरुष वेद हास्य रति तियंचगति २११,२३४, २५२, मनुष्यगति ३१५,३२२,२१८ Jain Education International ६८.२७६.३१४, देवगति पंचे० जाति ६६.२०८ ७,२११, ३८२, बी० शरीर ३१५ पद्म शुक्ल लेश्यावाले तियंच मनुष्य १-२ गुणस्थान तक ७-८ गुणस्थान ६. मोह प्रकृति बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम १. क्रोधादि चतुष्कको बन्ध व्युच्छित्ति सम्बन्धी दृष्टि भेद घ. ८/३.२४/२६/७ क्रोधजल बिगडे जो अबसेसो अणिमट्ठिद्वार मादिभागो दहि सज्जे खंडे को राज्य बहुभाने एमभागावसेसे माणसं जलणस्स बंधवोच्छेदो । पुणो तम्हि एगखंडे सेज्जखंडे कदे तुम एमडासेसे मायावध बोच्छेदो त्ति । कधमेदं णव्वदे। 'सेसे सेसे संखेज्जे भागे गंतूणेत्ति' निच्ानि सादो कसायचा सुतं विरुदि चिपुते सच्च विक्रम, किंतु एवं तुम्ही एत्थ व कायो इयमेव तं चैव सच्चमिदि सुदकेवलीहि पच्चक्खणाणीहि वा विणा अवहारिज्जमाणे मिच्छतपसं गादो। संज्वलन क्रोधके मिनट होनेपर जो दोष अनिवृत्तिनादरकालका संस्थातन भाग रहता है उसके संख्यात खण्ड करनेपर उनमें बहुत भागको बिताकर एक भाग शेष रहनेपर संज्वलन मानक बन्ध व्युच्छेद होता है। पुन एक खण्डके संख्यात खण्ड करनेपर उनमें बहुत खण्डोंको बिताकर एक खण्ड शेष रहनेपर * ९४ तेज, वात, काय, सप्त पृ०, तेज, बात कायसे उत्पन्न हुए, नि. अप, जीव या अन्य यथायोग्य मार्गणागत जीव । आनतादि देव, तथा सासादनसे ऊपर, तथा आनतादिसे आकर उत्पन्न हुए यथा योग्य प. व नि. अप. आदि कोई जीव । भोग भूमिया वि. मनुष्य तथा सासादनसे ऊपर। सनकुमारादिदेव नारकी, भोग भूमिज, तिर्यच मनुष्य । तथा सासादनसे ऊपर । तथा उपरोक्त देवोंमे आकर उत्पन्न हुए पर्याप्त व नि अप जीव ( पृ. २५६ ) अन्य कोई भी योग्य मार्गगागत जीव सनत्कुमारादि देव नारकी ब वहाँसे आकर उत्पन्न हुए यथायोग्य प.नि. अप, जीव । तथा सासादन से ऊपर या अन्य प्रमाण ६८,२५६ ४७ ६६.१६१ 39 ६८.२५६,३१४ ६६.२११ ६६.२०८ ६९२७६.३९४ ६६.२१९ 15 ६६ ६८.२५६,३९४ E ४. गो २४४,२८२,३१४ २८ १६६-९०६.२४ ३४ प्रकृति जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only बै० शरीर औ०० अंगोपांग समचतुरस्र सं० वज्र ऋषभ नाराच ति०, मनुदेव त्यापूर्वी परघात उच्छ्वास प्रo विहायोगति प्रत्येक त्रस सुभग सुस्वर बादर ५. प्रकृति बन्ध सम्बन्धी कुछ पर्या स्थिर आदेय शुभ यशःकीर्ति उच्च गोत्र नीच गोत्र - निरन्तर बन्धके स्थान कोई भी मार्गकागत जीन । तेज, वात काय । देवगतिवद । औदारिक वैक्रियक शरीरयव देवगतिव देवरी। उस उस गतिवत् पंचेन्द्रिय जातिवत देवगतिव जातिव "3 देवगतिवत् 19 पंचेन्द्रियवत नियम प्रमत्त सयतसे ऊपर देवगतिमत् प्रमत्त सयत से ऊपर सज्वलन मायाका बन्ध व्युच्छेद होता है । प्रश्न- यह कैसे जाना जाता है ? उत्तर- 'शेष शेषमें संख्यात बहुभाग जाकर इस वीप्सा अर्थात दो बार निर्देशसे उछ प्रकार दोनों प्रकृतियोंका व्युच्छेदकाल जाना जाता है। प्रश्न- कषाय प्राभृतके सूत्र से तो यह सूत्र विरोधको प्राप्त होता उत्तर ऐसी आशंका होनेपर कहते हैं कि सचमुच में काय प्राभूतके सूत्र से यह सूत्र मिरज है, परन्तु यहाँ एकान्तग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि, 'यही सत्य है' या 'वही सत्य है' ऐसा श्रुतकेवलियो अथवा प्रत्यक्ष ज्ञानियोंके बिना निश्चय करनेपर मिथ्यात्वका प्रसंग होगा । २. हास्यादिके बन्ध सम्बन्धी शंका-समाधान पद्म, शुक्ल लेश्याबाले तिर्यंच मनुष्य १-२ गुणस्थान । नरक व तिर्यंचगति के साथ नहीं चा तियंचगति। तेज व वायुकाय तथा सप्तम पृथिवीमें निरन्तर बन्ध होता है। ध. ८/३,२८/६० / १० वरि हस्स-रदीओ तिगइसंजुत्तं बंधइ, तब्बंधस्स गिरयगइमधेण सह विरोहादो। इतना विशेष है कि हास्य और रतिको सोन गतियोंसे संयुक्त बाँधता है, क्योंकि इनके मका नरकगतिके बन्धके साथ विरोध है । क. पा. ३/३,२२/१८/७ एदाणि चत्तारि वि कम्माणि उक्कस्ससंकिले सेण किण्ण बंज्कंति । ण साहावियादो। प्रश्न- ये स्त्री वेदादि चारो www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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