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४. प्रकृति बंध विषयक शंका-समाधान
प्रकृति बंध
..ध्रव व अध्रुव बन्धी प्रकृतियोंकी अपेक्षा
३. अघातिया कर्मोंका कार्य प संप्रा/४/२३७ आवरण निग्ध सव्वे कमाय मिच्छत्त णिमिण
___क. पा. १/१,९/७०/१६ पर विशेषार्थ-जिनके उदयका प्रधानतया कार्य बण्णचद् । भयणिदागुरुतेयाकम्मुवघाय धुवाउ सगदाल ।२३७॥
संसारको निमित्तभूत सामग्रीको प्रस्तुत करना है, उन्हें अधातिया१ ध्र वबन्धी प्रकृतियाँ-पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, पाँच
कर्म कहते है। अन्तराय, सभी अर्थात् सोलह कषाय, मिथ्यात्व, निर्माण, वर्णादि
दे० वेदनीय/२ (वेदनीयकर्मके कारण नाना प्रकारके शारीरिक सुख दुखचार, भय, जुगुप्सा, अगुरुलघु, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, और
___ के कारणभूत बाह सामग्रीकी प्राप्ति होती है।) उपघात, ये सैंतालीस धवबन्धी प्रकृतियों है ।२३७१ (पं.स./प्रा./ ४. प्रकृति बन्ध विषयक शंका-समाधान २४), (प स/स./२/४२-४३); (पं. स /स/४/१०७-१०८); १. बध्यमान व उपशान्त कम में 'प्रकृति' व्यपदेश कैसे (गो क/जी प्र./१२४/१२६/६)।
घ. १२/४,२,१०,२/३०३/२ प्रक्रियते अज्ञानादिक फलमनया आत्मनः २. अध्र धबन्धी प्रकृतियॉ-निष्प्रतिपक्ष और सप्रतिपक्षके भेदसे
इति प्रकृतिशब्दव्युत्पते। उदीर्णस्य भवतु नाम प्रकृतिव्यपदेश., परिवर्तमान (अध वबन्धी) प्रकृतियोके दो भेद है। अत देखो फलदातृत्वेन परिणतत्त्वात् । न बध्यमानोपशान्तयोः, तत्र तदभावा'अगला शीर्षक'।
दिति । न, विष्वपि कालेषु प्रकृति शब्दसिद्ध । तेण जो कम्मक्खंधो 1. सप्रतिपक्ष व अप्रतिपक्ष प्रकृतियोंकी अपेक्षा
जीवस्स बट्टमाणकाले फलं देइ जो च देहस्सदि, एदेसिं दोण पि प. स./प्रा./२३८-२४० परदादुस्सासाणं आयावुज्जीवमाउ चत्तारि ।
कम्मवंधाणं पयडित सिद्ध। अधवा, जहा उदिण्ण वट्टमाणकाले तित्थयराहारदुर्य एक्कारस होति सेसाओ ।२३। सादियरं वेयावि
फलं देदि. एवं बज्झमाणुवसंतापि वि वट्टमाणकाले वि देति फल, हस्साइचउक पच जाईओ। संठाणं संघयणं छच्छक चउक आणु
तेहि विणा कम्मोदयस्स अभावादो । ...भूदभबिस्सपज्जायाणं पुवीय य १२३६। गइ चउ दोय सरीरं गोयं च य दोण्णि अंगबंगा
बट्टमाणत्तभुवगमादो बा गमणयम्मि एसाबुप्पत्ती घडदे । य १२३६। दह जुयलाण तसाइ गयणगइदुअं विसठिपरिवत्ता ।२४०।
-जिसके द्वारा आत्माको अज्ञानादि रूप फल किया जाता है वह १.निष्प्रतिपक्ष प्रकृतियों-परघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, चारो
प्रकृति है, यह प्रकृति शब्दकी व्युत्पत्ति है। प्रश्न-उदीर्ण कर्म आयु, तीर्थकर और आहारक द्विक ये ग्यारह अधू व निष्प्रतिपक्ष
पुद्गल स्कन्धकी प्रकृति संज्ञा भले ही हो, क्योकि वह फलदान प्रकृतियाँ हैं ।२३८(पं.सं /प्रा./२१०); (गो, कम्./१२५); (पं. सं./ स्वरूपसे परिणत है। बध्यमान और उपशान्त कर्म-पुदगल स्कन्धोंस/२/४४), (पं.स/सं./४/१०६-११०)।
को यह संज्ञा नहीं बन सकती, क्योंकि, उनमे फलदान स्वरूपका २. सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ-साता वेदनीय, असाता वेदनीय, तीनों वेद,
अभाव है ? उत्तर-१. नहीं, क्योकि तीनो ही कालोमें प्रकृति शब्दकी हास्यादि चार (हास्य, रति, अरति, और शोक), एकेन्द्रियादि ५
सिद्धि की गयी है। इस कारण जो कर्म-स्कन्ध वर्तमान कालमें फल जातियों, छह संस्थान, छह सहनन, ४ आनुपूर्वी, ४ गति, औदारिक
देता है और भविष्यतम फल देगा, इन दोनो ही कर्म स्कन्धोंकी और वैक्रियक ये दो शरीर तथा इन दोनोके दो अंगोपांग, दो गोत्र,
प्रकृति संज्ञा सिद्ध है। २ अथवा जिस प्रकार उदय प्राप्त कर्म वर्तमान त्रसादि दश युगल त्रिस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुस्वर,
कालमें फल देता है, उसी प्रकार बध्यमान और उपशम भावको सुभग. आदेय यश कीर्ति ये २०) और दो विहायोगति, ये बासठ
प्राप्त कर्म भी वर्तमान काल में भी फल देते है, क्योंकि, उनके बिना सप्रतिपक्ष अध वबन्धी प्रकृतियाँ है ।२३६-२४०। (प.स/प्रा /२/
कर्मोदयका अभाव है। ३. अथवा भूत व भविष्यत् पर्यायोको ११-१२), (गो क./म./१२५/१२७); (प. सं / स /२/४५-४६); (प. सं./ वर्तमान रूप स्वीकार कर लेनेसे नैगम नयमें यह व्युत्पत्ति बैठ स./४/१११-११२)
जाती है। ९. अन्तर्माध योग्य प्रकृतियाँ
२. प्रकृतियोंकी संख्या सम्बन्धी शंका गो, क /मू./३४/३६ देहे अविणाभावी बंधणसंघाद इदि अबंधुदया।
ध ६/१.६-१,१३/१४/५ अद्वैव मुलपयडीओ। त कुदो णव्वदे। अठ्ठवष्णचउक्केऽभिण्णे गहिदे चत्तारि बधूदये ।३४ पाँचों प्रकारके
कम्मजणिदकज्जेहितो पुधभूदकज्जस्स अणुवलंभादो। -प्रश्न-यह शरीरोंका अपना-अपना बन्धन व संघात अविनाभावी है। इसलिए
कैसे जाना जाता है कि मूल प्रकृतियाँ आठ ही है। उत्तर-आठ बन्ध और उदयमें पाँच बन्धन व पाँच संघात ये दशों जुदे न कहे
कर्मोके द्वारा उत्पन्न होनेवाले कार्योसे पृथग्भूत कार्य पाया नहीं शरीर प्रकृति विषै गर्भित किये। तथा अभेद विवक्षासे वर्णादिककी
जाता, इससे जाना जाता है कि मूल प्रकृतियाँ आठ ही है। मूलप्रकृति चारही ग्रहण की, २० नहीं।
नोट-(उत्तर प्रकृतियोकी संख्या सम्बन्धी शका समाधान-दे०-उस ३. प्रकृति बन्ध निर्देश
उस मूल प्रकृतिका नाम)। १. आठ प्रकृतियोंके आठ उदाहरण
३. एक ही कर्म अनेक प्रकृति रूप कैसे हो जाता है प. सं./प्रा./२/३ पड़ पडिहारसिमज्जाडि चित्त कुलालभंडयारीणं ।
स. सि./८/४/३८१/२ एकेनात्मपरिणामेनादीयमानाः पुद्गला ज्ञानाजह एदेसि भावा तह विय कम्मा मुणेयव्वा ।। - पन (देव-मुखका वरणाद्यनेकभेदं प्रतिपद्यन्ते सकृदुपभुक्तान्नपरिणामरसरुधिरादिवत् । आच्छादक वस्त्र) प्रतीहार (राजद्वारपर बैठा हुआ द्वारपाल) असि -एक बार खाये गये अन्नका जिस प्रकार रस, रुधिर आदि रूपसे (मधुलिप्त तलवार) मद्य (मदिरा) हडि (पैर सानेका खोडा) चित्रकार अनेक प्रकारका परिणमन होता है उसी प्रकार एक आत्मपरिणामके (चितेरा) कुम्भकार और भण्डारी (कोषाध्यक्ष) इन आठोंके जैसे द्वारा ग्रहण किये गये पुदगल ज्ञानाबरणादि अनेक भेदोको प्राप्त होते अपने अपने कार्य करनेके भाव होते है, उस ही प्रकार क्रमशः कर्मोक है। (गो क /जी. प्र/३३/२७/४) । भी स्वभाव समझना चाहिए।३। (गो. क./मू./२१/१५), (गो. क./
रा वा/८/२/३,७/५६८/8 यथा अन्नादेरभ्यवह्रियमाणस्यानेकविकारजी.प्र./२०/१३/१३); (द्र, सं./टी./३३/१२/८)।
समर्थवातपित्तश्लेष्मरबलरसभावेन परिणामविभाग तथा प्रयोगा२. पुण्य व पाप प्रकृतियोंका कार्य
पेक्षया अनन्तरमेव कर्माणि आवरणानुभवन-मोहापादन-भवधारणप. प्र./मू./२/६३ पावें णारउ तिरिउ जिउ पुण्णे अमरु बियाणु। मिस्से नानाजातिनामगोत्र-व्यवच्छेदकरणसामर्थ्यवैश्वरूप्येण आत्मनि
माणुस-गइ लहइ दोहि वि खइ णिब्वाणु।६३ = यह जीव पापके सनिधानं प्रतिपद्यन्ते ।३। यथा अम्भो नभस' पतदेकरसं उदयसे नरकगति और तिर्यच गति पाता है, पुण्यसे देव होता है, भाजनविशेषात विष्वग्रसत्वेन विपरिणमते तथा ज्ञानशक्त्युपपुण्य और पापके मेलसे मनुष्य गतिको पाता है, और दोनोंके क्षयसे रोधस्वभावाविशेषात् उपनिपतव कर्म प्रत्यासर्व सामर्थ्यभेदात मोक्षको पाता है। (और भी दे०-'पुण्य' व 'पाप'।
मत्याद्यावरणभेदेन व्यवतिष्ठते ।। १. जिस प्रकार स्वाये हुए
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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