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प्रोषधोपवास
भोगतो. म्यावर हिंसा भवेविलामीमा भोगोपभोगविरा वति न लेशोऽपि हिंसाया |१३८ । वाग्गुप्तेर्नास्त्यनृतं न समस्तादानविरहत. स्तेयम्। नामझामैथुनरुच, सहो नागेऽप्यर्थस्य १५६ इत्थमयोचितहि प्रयाति महामतित्वमुपचारात् उदयति चरित्रमोहे सभते तु न संयमस्थान १९६० जो जीम इस प्रकार सम्पूर्ण पाच क्रियाओसे परिमुक्त होकर १६ पहर गमाता है, उसके इतने समय तक निश्चय पूर्वक सम्पूर्ण अहिसा व्रत होता है | १५० भोगोपभोग हेतु से स्थावर जीवोकी हिसा होती है, किन्तु उपवासधारी पुरुषके भोगोपभोगके निमित्तसे जरा भी हिंसा नहीं होती है १५८ होनेसे झूठ वचन नहीं है, मैथुन, अवसायान और शरीर में ममत्वका अभाव होनेसे क्रमश. अब्रह्म चोरी व परिग्रहका अभाव है । १५६ | उपवास में पूर्ण अहिसा व्रतको पालना होनेके अतिरिक्त अवशेष चारों व्रत भी स्वयमेव पलते है । इस प्रकार सम्पूर्ण हिंसा से रहित व प्रोषधोपवास करनेवाला पुरुष उपचारसे महाव्रतीपनेको प्राप्त होता है । अन्तर केवल इतना रह जाता है कि चारित्रमोहके उदय रूप होनेके कारण संयम स्थानको प्रा नही करता है।
म विधान सं/पृ. २४ पर उस अनेकपुण्यसंतानकारणं स्वनिबन्धनम् । पापधतं च क्रमादेतत् व्रतं मुक्तिवशीकरम् | १| यो विधत्ते व्रतं सारमेतत्सर्व सुखावहम्। प्राप्य षोडशमं नाकं स गच्छेत् क्रमश. शिवम् |२| व्रत अनेक पुण्यको सन्तानका कारण है, स्वर्गका कारण है, सुसारके समस्त पापों का नाश करनेवाला है | १| जो महानुभाव सर्व खोरपायक श्रेष्ठ मत धारण करते हैं, वे सोलहवे स्वर्ग सुखको अनुभव कर अनुक्रमसे अविनाशी मोक्ष सुखको प्राप्त करते हैं |२|
★ उपवास भी कथंचित् सावध है - दे० सावद्य ।
३. उपवासमें उद्यापनका स्थान
१. उपवास के पश्चात् उद्यापन करनेका नियम
धर्म परीक्षा /२०/२२ उपवासको विधि पूर्वक पूरा करनेपर फलकी छा करनेवालोंको उद्यापन भी अवश्य करना चाहिए |२२|
सा. ध. /२/७८ पश्चम्यादिविधि कृष्णा, शिवान्ताभ्युदयप्रदम् । उद्योत येद्यथापनि प्ररमन मोक्ष पर्यन्त इन्द्र चक्रम आदि पदोंको प्राप्त करानेवाले पंचमी पुष्पांजली मुकावली तथा रत्नत्रय आदिक मत विधानको करके आर्थिक शक्तिके अनुसार उद्यापन करना चाहिए, क्योंकि नैमित्तिक क्रियाओंके करनेमे मन अधिक उत्साहको प्राप्त होता है। विधानसंग्रह २३ पर सम्पूर्णे ह्यनुकर्तव्यं स्वशस्वी बुधे सर्वथा न्यारत्यादिमतोद्यापनसद्विधौ प्रत मर्यादा पूर्ण हो जानेपर स्व शक्तिके अनुसार उद्यापन करे, यदि उद्यापनकी शक्ति न होवे तो व्रतका जो विधान है उससे दूने व्रत करे । २. उद्यापन न हो तो दुगुने उपवास करे
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धर्म परीक्षा /२०/२३ यदि किसीकी विधि पूर्वक उद्यापन करनेकी सामर्थ्य न हो तो द्विगुण (दुगुने काल तक दुगुने उपवास) विधि करनी चाहिए क्योकि यदि इस प्रकार नहीं किया जाये तो प्रत विधि कैसे पूर्ण हो । ( व्रत विधान सं./ पृ. २३ पर उदधृत) ।
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३. उद्यापन विधि
विधानसंग्रह २३ परत कर्तव्यं जिनागारे महाभिषेकमद्भुतम्। सर्वश्चतुविधै सार्धं महापूजाविकोत्सव १ चन्द्रभृङ्गातिकादय धर्मोस्करणान्येव देय भक्त्या स्वातित |२| पुस्तकादिमहादानं भक्त्या देयं वृषाकर महोत्सव विधेय
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४. उपवास के दिन धावकके कर्तव्य अकर्तव्य
सुवाद्यगीतादिनने || चतुर्विधाय सघायाहारदानादिकं मुदा । आमन्त्र्य परमभक्त्या देयं सम्मानपूर्वकम् |४| प्रभावना जिनेन्द्राणां गासनं चैत्यधामनि । कुर्वन्तु यथाशक्त्या स्तोक चोद्यापन मुदा १५१ = खूब ऊँचे-ऊँचे विशाल जिन मन्दिर बनवाये और उनमें बड़े समारोह पूर्वक प्रतिष्ठा कराकर जिन प्रतिमा विराजमान करे । पश्चात् चतु प्रकार संघ के साथ प्रभावना पूर्वक महाभिषेक कर महापूजा करे |१| पश्चात् घण्टा, झालर, चमर, छत्र, सिहासन, चन्दोवा, भारी, भृंगारी, आरती आदि अनेक प्रकार धर्मोपकरण शक्तिके अनुसार भक्तिपूर्वक देवे [२] आचार्य बादि महापुरुयोंको धर्मबुद्धि तथा ज्ञानवृद्धि हेतु शास्त्र प्रदान करे। और उत्तमोत्तम बाजे, गीत और नृत्य आदिके अत्यन्त आयोजनसे मन्दिरमें महात् उत्सव करे || चतुर्विध संघको विशिष्ट सम्मान के साथ भक्ति पूर्वक बुलाकर अत्यन्त प्रमोदसे आहारादिक चतु प्रकार दान देवे |४| भगवान् जिनेन्द्रके शासनका माहात्म्य प्रगट कर खूब प्रभावना करे। इस प्रकार अपनी शक्तिके अनुसार उद्यापनका व्रत विसर्जन करे |५|
४. उपवास के दिन श्रावकके कर्तव्य अकर्तव्य
१. निश्चय उपवास ही वास्तवमें उपवास है
ध. १३/५,४,२६/५५/३ ण च चउत्रिह आहारपरिच्चागो चेव अणेसणं, रागादीहि सह तपास असणावगमाद अत्र श्लोक:अप्रेवृत्तस्य दोषेभ्यस्सहवासो गुणै. सह । उपवासस्स विज्ञेयो न शरीरविशोषणम् |६| पर इसका यह अर्थ नहीं कि चारों प्रकारके आहारका स्याग ही अणेषण कहलाता है। क्योंकि रागादिके त्यागके साथ ही उन चारोंके त्यागको अनेषण स्वीकार किया है। इस विषयमें एक श्लोक है - उपवास में प्रवृत्ति नहीं करनेवाले जीवको अनेक दोष प्राप्त होते है और उपवास करनेवालेको अनेक गुण, ऐसा यहाँ जानना चाहिए। शरीर के शोषणको उपवास नहीं कहते । दे० प्रोषधोपयास १/१ इन्द्रिय विषयोंसे हटकर आत्मस्वरूपमें तीन होनेका नाम उपवास है | )
२. उपवास के दिन आरम्भ करे तो उपवास नहीं बंधन होता है
का.आ./मू./३७८ उववास कुवं तो आरंभ जो करेदि मोहादो। सो जिय देहं सोसदि ण-भाइए कम्मलेसं पि ३७५॥ जो उपवास करते हुए मोहवश आरम्भ करता है वह अपने शरीरको सुखाता है उसके शमात्र भी कमकी निर्जरा नहीं होती ॥१७॥ विधनसंग्रह २० पर उपविषवारम्भस्यागो यत्र विधीयते । उपवास' स विज्ञेयो शेषं लडूबनं विदुः कषाय, विषय और आरम्भका जहाँ संकल्प पूर्वक त्याग किया जाता है, वहाँ उपवास जानना चाहिए। शेष अर्थात् भोजनका त्याग मात्र लंघन है।
३. उपवासके दिन स्नानादि करनेका निषेध
इन्द्रनन्दि संहिता / १४ पव्वदिणेण वयेसु विण दंतकट्ठण अचमंतपं । ण हाणंजणणस्साणं परिहारा तस्स सण्णेओ | १४ | पर्व और अतके दिनो में स्नान, अंजन, नस्य, आचमन और तर्पणका त्याग समझना चाहिए | १४ |
दे. प्रोषधोपवास/ १/४ ( उपवास के दिन स्नान, माला आदिका त्याग करना चाहिए ) ।
४. उपवासके दिन धावकले कर्तव्य
१२. गृहस्थ को छोड़कर मन्दिर अगा निर्जन प्रसतिका में जाकर निरन्तर धर्मध्यानमें समय व्यतीत करना चाहिए।
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