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लोक
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३. जम्बूद्वीप निर्देश
(ज.प./३/३६)इस पर स्थित द्रह का नाम पुन्ड्रीक है (दे लोक/३/१/४)। ति.प. की अपेक्षा इसके द्रह का नाम महापुन्डरीक है। (ति प /
४/२३६०) । ५. विजयाध पर्वत निर्देश १. भरतक्षेत्रके मध्यमें पूर्व-पश्चिम लम्बायमान विजया पर्वत है।
( दे'लोक/३/३/१)। भूमितलसे १० योजन ऊपर जाकर इसकी उत्तर व दक्षिण दिशामें विद्याधर नगरोंको दो श्रेणियाँ है। तहाँ दक्षिण श्रेणीमे १५ और उत्तर श्रेणी में ६० नगर है। इन श्रेणियोसे भी १० योजन ऊपर जाकर उसी प्रकार दक्षिण व उत्तर दिशामें अभियोग देवोंकी श्रेणियाँ है। (दे० विद्याधर/४ )। इसके ऊपर ६ कूट है। (ति १/४/१४६), (रा वा/३/१०/४/१७२/१०), (ह.पु/५/२६), (ज, प/२/४८) । पूर्व दिशाके कूटपर सिद्धायतन है और शेषपर यथायोग्य नामधारी व्यन्तर व भवनवासी देव रहते है । (दे० लोक/५/४)। इसके मूलभागमें पूर्व व पश्चिम दिशाओमें तमिस्र व खण्डप्रपात नामकी दो गुफाएँ है, जिनमें क्रमसे गगा व सिन्धु नदी प्रवेश करती है। (ति प/४/१७५), (रा. वा/३/१०/४/१७/१७१/२७); (ज.प/२/८१)। रा वा व, त्रि सा के मतसे पूर्व दिशामें गगाप्रवेशके लिए खण्डप्रपात और
पश्चिम दिशामें सिन्धु नदीके प्रवेशके लिए तमिस्र गुफा है (दे० लोक/३/१०)। इन गुफाओं के भीतर बहू मध्यभागमें दोनो तटोंसे उन्मग्ना व निमग्ना नामकी दो नदियाँ निकलती है जो गंगा और सिन्धुमें मिल जाती है। (ति. प./४/२३७), (रा. वा/३/१०/४/१७१/३१); (त्रि. सा./५६३); (ज.प/२/६५-६६), २. इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्रके मध्यमें भी एक विजया है, जिमका सम्पूर्ण कथन भरत विजयावत् है ( दे० लोक/३/३) । कूटों व तन्निवासी देवोंके नाम भिन्न है। (दे० लोक/१)। ३. विदेहके ३२ क्षेत्रोंमेसे प्रत्येकके मध्य पूर्वापर लम्बायमान विजया पर्वत है। जिनका सम्पूर्ण वर्णन भरत विजयावत है। विशेषता यह कि यहाँ उत्तर व दक्षिण दोनों श्रेणियों में १५.१५ नगर है। (ति. प./४/२२५७, २२६०); (रा. वा/३/१०/१३/१७६/२०), (ह. पु //२५५-२५६); (त्रि, सा./६११-६६५)| इनके ऊपर भी हकूट है (त्रि. सा। ६१२)। परन्तु उनके व उन पर रहने वाले देवोके नाम भिन्न है। (दे० लोक/१)।
विजया पर्वतार
पश्चिम में
पूर्व
चिन्न सं०-१५
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कृष्ट MHASY.कृट उत्तेएमटकटकटकटखण्ड दक्षिणा 2018/वैप्रवण भरत तिमित्र पूर्णमंद्र विजयाधी मणिभद्र प्रपात भरत 'सिन्दागतन)
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तिमिस्त्र
गुफा ITIHARHATHORITHIवयोगासाग
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६. सुमेरु पर्वत निर्देश १. सामान्य निर्देश विदेहक्षेत्रके बहु मध्यभागमें सुमेरु पर्वत है। (ति.प./४/१७८०); (रा. वा./३/१०/१३/९७३/१६): (ज.प./४/२१) । यह पर्वत तीर्थकरोंके जन्माभिषेकका आसनरूप माना जाता है (ति. प./४/ १७०), (ज. प./४/२१), क्योंकि इसके शिखर पर पाण्डकवनमें स्थित पाण्डक आदि चार शिलाओंपर भरत, ऐरावत तथा पूर्व व पश्चिम विदेहोंके सर्व तीर्थंकरोंका देव लोग जन्माभिषेक करते है (दे० लोक/३/३)। यह तीनो लोकोका मानदण्ड है. तथा इसके मेरु, सुदर्शन, मन्दर आदि अनेकों नाम है (दे० सुमेरु/२)। २. मेरुका आकार यह पर्वत गोल आकार वाला है। (ति.प./४/१७८२)। पृथिवीतलपर १००,०० योजन विस्तार तथा 33000 योजन उत्सेध वाला है। कमसे हानि रूप होता हुआ इसका विस्तार शिवरपर जाकर १००० योजन रह जाता है। (दे० लोक/६/१) । इसकी हानिका क्रम इस प्रकार है-क्रमसे हानि रूप होता हुआ पृथिवीतलसे
५०० योजन ऊपर जानेपर नन्द नवनके स्थानपर यह चारों
ओरसे युगपत ५०० योजन संकुचित होता है । तत्पश्चात ११००० योजन समान विस्तारसे जाता है। पुन ५१५०० योजन क्रमिक हानिरूपसे जानेपर, सौमनस बनके स्थानपर चारों ओरसे ५०० यो, संकुचित होता है। यहाँसे ११००० योजन तक पुन समान विस्तारसे जाता है और उसके ऊपर २५००० योजन क्रमिक हानिरूपसे जानेपर पाण्डुकवनके स्थानपर चारों
ओरसे युगपत ४६४ योजन संकुचित होता है। (ति./४/१७८८१७६१); (ह. पु/१२८७-३०१)। इसका बाह्य विस्तार भद्रशाल आदि वनोंके स्थानपर क्रमसे १००,००,६६१४६५. ४२७२६२ तथा १००० योजन प्रमाण है (ति.प./४/१७८३ १६१०+१६३६+१८१०); (ह. पु./१२८७-३०१) ( और भी दे० लोक/६/६ में इन वनोंका विस्तार)। इस पर्वतके शीश पर पाण्डक वनके बीचोबीच ४० यो, ऊँची तथा १२ यो मूल विस्तार युक्त चूलिका है। (ति.प./ ४/१८९४): (रा. वा./३/१०/१३/१८०/१४), (ह. पु./५/३०२); (त्रि सा./६३७ ): (ज.प/४/१३२), (विशेष दे० लोक/६/४.२ में चूलिका विस्तार )।
जैनेन्द्र सिदान्त कोश
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