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परिहार विशुद्धि
परिहार विशुद्धि
५. पारचिक प्रायश्चित्तका लक्षण ध १३/५,४,२६/६२/७ जो सो पार चिओ सो एव विहो चेव होदि, कितु साधम्मियवजियखेत्ते समाचरेयव्यो । एत्थ उक्छस्सेण छम्मासक्ववण पि उवइ छ । = पार चिक तप भी इसी (अवस्थाप्य जैसा) प्रकारका होता है। किन्तु इसे साधर्मी पुरुषोसे रहित क्षेत्रमे आचरण करना चाहिए । इसमे उत्कृष्ट रूपसे छह मासके उपवासका भी उपदेश दिया गया है। आचार सार/६/६२-६४ स्वधर्मरहितक्षेत्रे प्रायश्चित्ते पूरो दिते। चार पारधिकं जैनधर्मात्यन्तरतेमतम् २॥ सघो:शविरोधान्तपुरस्त्रीगमनादिषु । दोषेष्ववन्ध पाप्येष पातकीति अहि कृत ।६॥ चतुर्विधन सधेन देशान्निष्कासितोऽप्यद । अपने धर्म से रहित अन्य क्षेत्रमें जाकर जहाँ लोग धर्मको नही जानते वहाँ पूर्व कथित प्रायश्चित्त करना पारं चिक है।६२। संध और राजासे विरोध
और अन्त पुरकी स्त्रियोंमे जाने आदि दोषोंके होनेपर उस पापीको चतुर्विध सधके द्वारा देशसे निकाल देना चाहिए। चा. सा/१४६/३ पारञ्चिकमुच्यते,. चातुर्वर्ण्य श्रमणा संघ स्भूय तमाहूय एष महापातकी समयबाह्यो न वन्द्य कति घोषयित्वा दत्वानुपस्थान प्रायश्चित्तदेशान्निर्धाटयन्ति । = पार चिक प्रायश्चित्तकी क्रिया इस प्रकार है-कि आचार्य पहले चारों प्रकारके मुनियोके संघको इकट्ठा करते हैं, और फिर उस अपराधी मुनिको बुलाकर घोषणा करते है कि यह मुनि महापापी है अपने मतसे बाह्य है, इसलिए वन्दना करनेके अयोग्य है। इस प्रकार घोषणा कर तथा अनुपस्थान नामका प्रायश्चित्त देकर उसे देशसे निकाल देते है। *परिहार प्रायश्चित्त किसको किस अपराधमें दिया जाता है-दे० प्रायश्चित्त /४ ।
-परिहार विशुद्धि अत्यन्त निर्मल चारित्र है जो अत्यन्त धीर व उच्चदर्शी साधुओको ही प्राप्त होता है।
१. परिहारविशुद्धि चारित्रका लक्षण स. सि /8/१८/४३६/७ परिहरणं परिहार प्राणिवधान्निवृत्ति । तेन विशिष्टा शुद्धिर्य स्मिस्तत्परिहारविशुद्धिचारित्रम् । = प्राणिवधसे निवृत्तिको परिहार कहते है। इस युक्त शुद्धि जिस चारित्रमें होती है वह परिहारविशुद्धि चारित्र है। (रा.वा./8/१८/८/६१७/१६) (त.
सा./६/४७); (चा, सा /८३/५); (गो. क /प्र /१४७/७१४/७)। पं.सं /प्रा./१/१३१ पंचसमिदो तिगुत्तो परिहरइ सया वि जोहु
सावज्ज। पंचजमेयजमो वा परिहारयसंजदो साह।१२। पाँच समिति और तीन गुप्तियोसे युक्त होकर सदा ही सर्व सावद्य योगका परिहार करना तथा पाँच यमरूप भेद सयम (छेदोपस्थापना) को अथवा एक यमरूप अभेद सयम (सामायिक) को धारण करना परिहार विशुद्धि सयम है, और उसका धारक साधु परिहार विशुद्धि संयत कहलाता है। (ध. १/१,१,१२३/गा. १८६/३७२), (गो जी./मू. ४७१), (पं. सं /१/२४१)। यो, सा. यो/१०२ मिच्छादिउ जो परिहरणु सम्मद्दसण-सुद्धि । सो परिहारविमुद्धि मुणि लहू पावहि सिव-सिद्धि ।१०२। --मिथ्यात्व आदि के परिहारसे जो सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि होती है, उसे परिहारविशुद्धि समझो, उससे जोब शीघ मोक्ष-सिद्धिको प्राप्त करता
है।१०। ध, १/१,१,१२३/३७०/८ परिहारप्रधान' शुद्धिसयत परिहारशुद्धिसंयत ।
-जिसके ( हिंसाका ) परिहार ही प्रधान है ऐसे शुद्धि प्राप्त स यतों
को परिहार-शुद्धि-सयत कहते है।। द्र.सं./टी./३/१४८/३ मिथ्यात्वरागादिविकल्पमालाना प्रत्याख्यानेन परिहारेण विशेषेण स्वात्मनः शुद्धिर्मग्यपरिहारविशुद्धिश्चारित्र
मिति ।- मियाल राणादि निकलप मलाला प्रत्याख्यान अर्थात त्याग करके विशेष रूपमे जो पात्मशुद्धि असा निर्मलता, सो परिहार विशुद्धि चारित्र है।
२. परिहारावशुद्धि संयम विधि भ आ/वि /२५/३६४/२० जिनमल पस्थासमर्था क्लपस्थितमाचार्य
मुक्ला परिहारसयम गृहन्ति इति परिहारिका भण्यन्ते । शेषास्तेपामनपहा रिका । वसतिमाहार च मुक्त्वा नान्यद गृहन्ति । सयमार्य पनिनेखन गहन्ति। चनुबिमानुपसर्गा-महन्ते। दृढतयो निरन्तर ध्यानान हितचित्ता। त्रय , पञ्च, सप्त, नब षणा नियन्ति । रोगेण बदनयोपद्र ताश्च तत्प्रतिकार चन कुर्वन्ति ।। रवाध्यायकालप्रतिलेखनादिकाश्च क्रियान सन्ति तेषा। श्मशानमध्येऽपि तेषा न ध्यान प्रतिष्धि । आवश्यकानि यथाकाल कुर्वन्ति। अनुज्ञाप्य देवकुलादिषु वसन्ति । आसीधिका च निधी धिका च निष्क्रमणे प्रवेशे च संपादयन्ति । निर्देशक मुक्त्वा इतरे दशविधे समाचारे वर्तन्ते । उपकरणादिक्षानं, ग्रहण, अनुपालन, विनयो, वंदना सल्लापश्च न तेषामस्ति सघन सह। तेषा । परस्परेणास्ति सभोग । मौनाभिग्रहरतास्तिस्रो भाषा मुब वा प्रष्टव्याहृतिमनुज्ञाकरणी प्रश्ने च प्रवृत्ता च मार्गस्य शक्तिम्य वा योग्यायोग्यत्वेन शय्य,घरगृहस्य, बसतिर वामिनो वा प्रश्न... व्यावादि. कण्टकादिविधे स्वयं न निराकुर्वन्ति । परे गदि निशर्मस्तूष्णीमवतिष्ठन्ते । तृतीययाम एव नियोगतो भिक्षार्थ गच्छन्ति । यत्र क्षेत्रे छटग चर्या अपुनरुक्ता भवन्ति तत्क्षेत्रमा सप्रयोग्य शेषमयामिति वर्जयन्ति। -जिनकल्पको धारण करनेमे असमर्थ चार या पाँच साधुस पमे परिहारविशुद्धि सयम धारण करते है। उनमे भी एक आचार्य कहलाता है। शेषमे जो पीछे से धारण करते है उन्हे अनुपहारक कहते है। ये साधु बस्तिका, आहार, सरतर, पीछी व कमण्डलके अतिरिक्त अन्य कुछ भी ग्रहण नहीं करते। धैर्य पूर्वक उपसर्ग सहते है। वेदना आदि आनेपर भी उसका प्रतिकार नहीं करते । निरन्तर ध्यान व स्वाध्यायमे मग्न रहते है। श्मशानमे भी ध्यान करनेका इनको निषेध नहीं । यथाकाल आवश्यक क्रियाएँ करते है। शरीरके अगोको पीछीसे पोछने की क्रिया नहीं करते। बस्तिकाके लिए उसके स्वामीसे अनुज्ञा लेता तथा नि सही असहीके नियमों को पालता है। निर्देशको छोडकर समस्त समाचारोको पालता है। अपने साधर्मी के अतिरिक्त अन्य सबके साथ आदान, प्रदान, वन्दन, अनुभाषण आदि समस्त व्यवहारोका त्याग करते है। आचार्य पदपर प्रतिष्ठित परिहार सयमी उन व्यवहारोका त्याग नहीं करते। धर्मकार्यमे आचार्य से अनुज्ञा लेना, विहारमे मार्ग पूछना, वस्तिकाके स्वामीसे आज्ञा लेना, योग्य अयोग्य उपकरणों के लिए निर्णय करना, तथा क्सिीका सन्देह दूर करनेके लिए उत्तर देना, इन कार्योके अतिरिक्त वे मौनमै रहते है, उपसर्ग आनेपर स्वयं दूर करनेका प्रयत्न नहीं करते, यदि दूसरा दूर करे तो मौन रहते है। तीसरे पहर भिक्षाको जाते है। जहाँ छ भिक्षाएँ अपुनरुक्त मिल सके ऐसे स्थान में रहना ही योग्य समझते है। ये दोपस्थापना चारित्रके धारी होते है।
३. गुणस्थानों की अपेक्षा स्वामित्व ष ख १/१,१/म १२६/३७५ परिहार-सुद्धि-संजदा दोसु ढाणेसु पमत्तसजद-ट्ठाणे अप्पमत्त-स्जद-ट्टाणे ।१२६ - परिहार-शुद्धिसंयत प्रमत्त और अप्रमत्त इन दो गुणस्थानोंमे ही होते है ।१२६॥ (द्र स/टी/११/९४८/२), (गो जी म्/४६७,६८१)।
४. उत्कृष्ट व जघन्य स्थानोंका स्वामित्व ध, ७/२,११,१६६/५६६/१एमा परिहारसुद्धिस जमलद्धी जहणिया क्स्स होदि। सबसकिलिस मामाइयछेद बछावण भिमुहचरिम
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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