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३७ परिहार विशुद्धि
परिहार विशुद्धि समयपरिहारसुद्धिसंजदस्स । = यह जघन्य परिहारशुद्धि सयमलब्धि ८.शंका समाधान सर्व सक्लिष्ट सामायिक-छेदोपस्थापना शुद्धि संयमके अभिमुख हए अन्तिम समयवर्ती परिहार शुद्धिसंयतके होती है।
ध, १/१,१,१२६/२७५/५ उपरिष्टास्किमित्ययं स यमो न भवेदिति चेन्न,
ध्यानामृतसागरान्तर्निमग्नात्मना वाचंयमानामुपसंहतगमनागम५, परिहार संयम धारणमें आयु सम्बन्धी नियम
नादिकायव्यापाराणा परिहारानुपपत्ते । प्रवृत्तः परिहरति नाप्रवृत्तध/१/८/२७१/३२७/१० तीसं वासेण विणा परिहारसुद्धिसंजमस्य स्ततो नोपरिश्टात् संयमोऽस्ति। संभवाभावा। -तीस वर्ष के बिना परिहार विशुद्धि संयमका होना
ध १/१,१,१२६/३७६/२ परिहारर्धरुपरिष्टादपि सत्त्वात्तत्रास्यास्तु संभव नहीं है । (गो. जी./मू./४७२/८८१)।
सत्त्वमिति चेन्न, तत्कायस्य परिहरणलक्षणस्यासत्त्वतस्तत्र तदध.७/२,२.१४६/१६७/८ तीसं वस्साणि गमिय तदो वासपुधत्तेण तित्थ
भावात ।-प्रश्न-ऊपरके आठवें आदि गुणस्थानों में यह सयम क्यो यरपादमूले पच्चक्खाणणामधेयपुव्व पढिदूण पुणो पच्छा परिहार
नहीं होता। उत्तर-नही, क्योकि, जिनकी आत्माएँ ध्यानरूपी सुद्धिसजभं पडिव जिय देसूणपुवकोडिकालमच्छिदूण देबेसुप्पण्णस्स
सागरमे निमग्न है, जो वचन यमका (मौनका) पालन करते है और वत्तव्वं । एवमछतीसवस्सेहि ऊणिया पुधकोडी परिहारसुद्धि
जिन्होंने आने जाने रूप सम्पूर्ण शरीर सम्बन्धी व्यापार सकुचित सजमस्स कालो वुत्तो। के वि आइरिया सोलसबस्सेहि के वि
कर लिया है ऐसे जीवोंके शुभाशुभ क्रियाओंका परिहार बन ही नहीं बावीसवस्से हि ऊणिया पुवकोडी त्ति भणं ति । तीस वर्षोंको सकता है। क्योंकि, गमनागमन रूप क्रियाओमें प्रवृत्ति करनेवाला ही बिताकर (फिर संयम ग्रहण किया। उसके ) पश्चात् वर्ष परिहार कर सकता है प्रवृत्ति नहीं करनेवाला नही। इसलिए ऊपरके पृथक्त्वसे तीर्थ करके पादमूलमे प्रत्याख्यान नामक पूर्वको पढ़कर आठवे आदि गुणस्थानों में परिहार शुद्धि सयम नहीं बन सकता है। पुन' तत्पश्चात् परिहारविशुद्धि संयमको प्राप्तकर और कुछ कम
प्रश्न-परिहार ऋद्धिकी आठवें आदि गुणस्थानोमे भी सत्ता पाथी पूर्व कोटि वर्ष तक रहकर देवों में उत्पन्न हुए जीवके उपर्युक्त
जाती है, अतएव वहाँपर इस संयमका सद्भाव मान लेना चाहिए। काल प्रमाण कहना चाहिए । इस प्रकार अडतीस वर्षोसे कम पूर्वकोटि
उत्तर--नही, क्योंकि, आठवे आदि गुणस्थानोमे परिहार ऋद्धि वर्ष प्रमाण परिहार शुद्धि संयतका काल कहा गया है। कोई आचार्य पायी जाती है, परन्तु वहॉपर परिहार करने रूप कार्य नही पाया सोलह वर्षोंसे और कोई बाईस वर्षोंसे कम पूर्वकोटि वर्षप्रमाण कहते जाता, इसलिए आठवे आदि गुणस्थानों में इस सयमका अभाव है। है। (गो, जी./जी. प्र/४७३/८८१/१२, ७१६/११५४/११)।
ध,५/१,८,२७१/३२७/८ एत्य उवसमसम्मत्तं णस्थि, तीसं बासेण विणा परिहारसुद्धिसंजमस्य सभवाभावा। ण च तेत्तियकाल मुबसमसम्मत्त
स्सावट्ठाणमत्थि, जेण परिहारसुद्धिसंजमेण उबसमसम्मत्तस्मुबली 4. इसकी निर्मलता सम्बन्धी विशेषताएँ
होज्ज । ण च परिहारसुद्धिसंजमछह तस्स उवसमसेडीचडणहूँ ध.७/२,२,१४६/१६७/८ सयमही होण• बासपुधत्तेण तित्थयरपाद- दसणमोहणीयस्सुवसामण्णं पि सभवइ, जेवसमसेडिम्हि दोण्ह मूले पच्चक्रवाणणामधेयपुव्व पढिदूण पुणो पच्छा परिहारसुद्धिसंजर्म पि सजोगो होज्ज । प्रश्न-(परिहारविशुद्धिसंयतोके उपसम पडिवज्जिय ।-सर्व सुखी होकर• पश्चात् वर्ष पृथक्त्वसे तीर्थकर- सम्यक्त्व क्यों नहीं होता १) उत्तर-१. परिहार शुद्धि सयतोंके के पाद मूलमें प्रत्याख्यान नामक पूर्वको-पढ़कर पुन, तत्पश्चात
उपशम सम्यक्त्व नही होता है क्योकि, तीस वर्ष के बिना परिहारपरिहार विशुद्धि संयमको प्राप्त करता है। (गो जी./जी,प्र/४७३/ शुद्धि संयमका होना सम्भव नहीं है। और न उतने कालतक १६७/८)।
उपशम सम्यक्त्वका अवस्थान रहता है, जिससे कि परिहारशुद्धि संयमके साथ उपशम सम्यक्त्व की उपलब्धि हो सके । २. दूसरी बात
यह है कि परिहारशुद्धि सयमको नही छोडनेवाले जीवके उपशम ७. इसके साथ अन्य गुणों व ऋद्धियोंका निषेध
श्रेणीपर चढ़नेके लिए दर्शन मोहनीय कर्मका उपशम हाना भी पं. सं /प्रा /१/१६४ मणपज्जवपरिहारो उवसमसम्मत्त दोण्णि आहारा ।
सम्भव नहीं है, जिससे कि उपशम श्रेणीमे उपशम सम्यक्त्व और एदेसु एक्कपयदे णस्थि त्ति असेसयं जाणे ११६४ - मन पर्ययज्ञान
परिहारशुद्धि संयम, इन दोनोका भी संयोग हो सके । परिहार विशुद्धि सयम, प्रथमोपशम सम्यक्त्व और दोनों आहारक अर्थात आहारकशरीर और आहारक अंगोपाग, इन चारों में से किसी एकके होनेपर, शेष तीन मार्गणाएँ नहीं होती ऐसा जामना चाहिए। ९. अन्य सम्बन्धित विषय ।१४। (गो. जी./मू./७३०/१३२५) । ध.४/१,३,६/१२३/७ (परिहारसुद्धिसंजदेसु) समत्तसंजदे तेजाहार
१. अप्रशस्त वेदोंके साथ परिहार विशुद्धिका विरोध -देवहा । णत्थि। -परिहार विशुद्धि संयतके तैजससमद्धात और आहारक समुद्धात ये दो पद नहीं होते।
२. परिहार विशुद्धि व अपहृत संयममें अन्तर। -सयम/२ । ध.४१,८,२७१/३२७/१० ण च परिहारसुद्धिसंजमछद्द'तस्स उबसम- ३. परिहार विशुद्धि संयमसे प्रतिपात संभव है। -दे० अन्तर/१ । सेडीचडण दसणमोहणीयस्सुवसामण्ण पि संभवह। - परिहार ४. सामायिक, छेदोपस्थापना व परिहार विशुद्धिमें अन्तर। विशुद्धि सयमको नही छोड़नेवाले जीवके उपशमश्रेणीपर चढ़नेके
-दे० छेदोपस्थापना। लिए दर्शन मोहनीय कर्मका उपशम होना भी संभव नही है । अर्थात
५. परिहार विशुद्धि संयममें क्षायोपशमिक भावों सम्बन्धी। परिहारविशुद्धि संयमके उपशम सम्यक्त्व व उपशमश्रेणी होना
-दे० स यत/२ । सम्भव नही। (गो. जी./जी, प्र./७१५/१२)।
६. परिहार विशुद्धि संयममें गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणाध.१४/५,६,१५८/२४७/१ परिहारसुद्धिसजदस्स विउव्वण रिद्धी( ए) आहाररिद्धीए च सह विरोहादो। - परिहारशुद्धिसयतजीवके
स्थानके स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ। -दे० 'सत। विक्रियाऋद्धि और आहारक ऋद्धिके साथ इस संयम होनेका ७. परिहार विशुद्धि संयतके सत्, संख्या, स्पर्शन, विरोध है। (गो जी./जी.प्र/७१५/११५४/११); (गो. क./जी. प्र./ काल, अन्तर, भाव व अल्प बहुत्व रूप ११६/११३/६)
आठ प्ररूपणाएँ।
-दे० वह वह नाम ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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