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परिस्पन्द
परिहार प्रायश्चित्त परिषहजय व कायक्लेशमें अन्तर-दे० कायक्लेश ।
परिहार प्रायश्चित्त है। (रा वा/३/२२/९/६२९/३२), (त.सा/७/२६)
(भा पा./टी, ७८/२२३/१३) । ३. अवधि आदि दर्शन परिषहोंका भी निर्देश क्यो।
२. परिहार प्रायश्चित्तके भेद नहीं करते
ध. १३/१,४,२६/६२/४ परिहारो विहो अणवट्ठओ पर चिओ चेदि । रा.वा./8/8/३१/६१२/३३ नूनमस्मिस्तद्योग्या गुणा न सन्तीत्येवमादि
___-परिहार दो प्रकारका होता है-अनवस्थाप्य और पार चिक। वचनसहनमवध्यादिदर्शनपरीषहजय , तस्योपसरूपानं कर्तव्यमिति;
(चा.सा./१४४/४)। तन्न; कि कारणम् । अज्ञानपरीषहाविरोधाद । तत्कथमिति चेत् ।
चा, सा/१४४/४ तत्रानुपस्थापन निजपरगणभेदाइ द्विविध । - उपरोक्त उच्यते-अवध्यादिज्ञानाभावे तत्सहचरितदर्शनाभाव , आदित्यस्य
दो भेदोमें से अनुपस्थापन भी निजगण और परगणके भेदसे दो प्रकारप्रकाशाभावे प्रतापाभाववत । तस्मादज्ञानपरीषहेऽवरोध । = प्रश्न
___ का होता है। अवधिदर्शन आदिके न उत्पन्न होनेपर भी 'इसमें वे गुण नही है' आदि रूपसे अवधिदर्शन आदि सम्बन्धी परिषह हो सकती है, अत ३. निज गणानुपस्थापन या अनवस्थाप्यका लक्षण उसका निर्देश करना चाहिए था। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि ये
ध. १३/१,४,२६/६२/४ तत्थ अणवट्ठओ जहण्णेण छम्मासकालो उक्कादर्शन अपने-अपने ज्ञानोके सहचारी है अत: अज्ञानपरिषहमें ही स्सेण मारसवासपेरंतो। कायभूमीदो परदो चेव कयाविहारो पडिइनका अन्तर्भाव हो जाता है। जैसे-सूर्य के प्रकाशके अभावमें प्रताप
बंदणविरहिदो गुरुबदिरित्तासेसजणेसु कयमोणाभिग्गहो रखवायनही होता, उसी तरह अवधिज्ञानके अभावमें अवधिदर्शन नही
विलपुरिमड्ढेयट्ठाणणिविवयदीहि सोसिय-रस-रुहिर-मासो होदि । होता। अत. अज्ञानपरिषहमे ही उन उन अवधिदर्शनाभाव आदि
- अनवस्थाप्यपरिहार प्रायश्चित्तका जघन्य काल छह महीना और परिषहोका अन्तर्भाव है।
उत्कृष्ट काल बारह वर्ष है। वह काय भूमिसे दूर रहकर ही 'विहार
करता है, प्रतिवन्दनासे रहित होता है, गुरुके सिवाय अन्य सब ४. दसवें आदि गुणस्थानों में परिषहोंके निर्देश सम्बन्धी
साधुओके साथ मौन रखता है तथा उपवास, आचाम्ल, दिनके
पूर्वाधमें एकासन और निर्विकृति आदि तपों द्वारा शरीरके रस, स.सि./8/१०/४२८/८ आह युक्तं तावद्वीतरागच्छद्मस्थे मोहनीया
रुधिर और मांसको शोषित करनेवाला होता है। भावात् तत्कृतवक्ष्यमाणाष्टपरिषहाभावाच्चतुर्दशनियमवचनम् ।
चा, सा./१४५/१ तेन ऋष्याश्रमाइ द्वात्रिंशददण्डान्तरविहितविहारेण सूक्ष्मसाम्पराये तु मोहोदयसभावात् 'चतुर्दश' इति नियमो
बालमुनीनपि बंदमानेन प्रतिवन्दनाविरहितेन गुरुणा सहालोचयता नोपपद्यत इति । तदयुक्तम्, सन्मात्रत्वाव। तत्र हि केवलो लोभसंज्वलनकषायोदय, सोऽप्यतिसूक्ष्म'। ततो वीतरागछद्मस्थकल्प
शेषजनेषु कृतमौनव्रतेन विधृतपराड्मुखपिच्छेन जघन्यतः पञ्चपञ्चोप
वासा उत्कृष्टतः षण्मासोपघासा' कर्त्तव्याः, उभयमप्याद्वादशवर्षात्यात चतुर्दश' इति नियमस्तत्रापि युज्यते । ननु मोहोदयसहाया
दिति । ददिनन्तरोक्तान्दोषानाचरतः निजगणोपस्थापनं प्रायभावान्मन्दोदयत्वाच्च शुदादिवेदनाभावात्तत्सहनकृतपरिषहव्यपदेशो
श्चित्तं भवति ।-जिनको यह प्रायश्चित्त दिया जाता है वे मुनियोंनयुक्तिमवतरति । तन्न। किं कारणम् । शक्तिमात्रस्य विवक्षि
के आश्रमसे बत्तीस दण्डके अन्तरसे बैठते है, बालक मुनियोंको तत्वात् । सर्वार्थ सिद्धिदेवस्य सप्तमपृथिवीगमनसामर्थ्यव्यपदेशवत् ।
(कम उम्रके अथवा थोडे दिनके दीक्षित मुनियोको) भी वन्दना वीतरागछद्मस्थस्य कर्मोदयसद्भावकृतपरीषहव्यपदेशो युक्तिमवतरति ।-प्रश्न-वीतराग 'छद्मस्थके मोहनीयके अभावसे तत्कृत आगे
करते है, परन्तु बदले में कोई मुनि उन्हे वन्दना नहीं करता। वे कहे जानेवाले आठ परिषहोका अभाव होनेसे चौदह परिषहोके
गुरुके साथ सदा आलोचना करते रहते हैं, शेष लोगों के साथ बात
चीत नहीं करते है परन्तु मौनव्रत धारण किये रहते है, अपनी नियमका वचन तो युक्त है, परन्तु सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें मोहनीयका उदय होनेसे चौदह परिषह होते है, यह नियम नहीं
पीछीको उलटी रखते हैं। कमसे कम पाँच-पाँच उपवास और मनता 1 उत्तर- यह कहना अयुक्त है, क्योंकि वहाँ मोहनीयकी
अधिकसे अधिक छह-छह महीनेके उपवास करते रहते है, और इस सत्तामात्र है। वहॉपर केवल लोभ संज्वलनकषायका उदय होता है,और
प्रकार दोनों प्रकारके उपवास १२ वर्ष तक करते रहते हैं यह निज वह भी अतिसूक्ष्म इसलिए वीतराग छमस्थके समान होनेसे सूक्ष्मसाम्प
गणानुपस्थापन नामका प्रायश्चित्त है। रायमें भी चौदह परिषह होते हैं यह नियम बन जाता है ।प्रश्न- आचार सार/६/५४ यह प्रायश्चित्त उत्तम, मध्यम, व जघन्य तोन प्रकारइन स्थानों में मोहके उदयकी सहायता न होनेसे और मन्द उदय से दिया जाता है। यथा--उत्तम-१२ वर्ष तक प्रतिवर्ष ६ महीनेका होनेसे क्षुधादि वेदनाका अभाव है, इसलिए इनके कार्यरूपसे परिषह' उपवास । मध्यम-१२ वर्ष तक प्रतिवर्ष प्रत्येक मासमें ५ से अधिक संज्ञा युक्तिको प्राप्त नहीं होती। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि यहाँ और १५ से कम उपवास । जघन्य-१२ वर्ष तक प्रतिवर्ष प्रत्येक मासशक्तिमात्र विवक्षित है। जिस प्रकार सर्वार्थ सिद्धिके देवके सातवी में ५ उपवास। पृथ्वीके गमनकी सामर्थ्यका निर्देश करते है, उसी प्रकार यहाँ भी १. परगणानुपस्थापन प्रायश्चित्तका लक्षण जानना चाहिए। अर्थात् कर्मोदय सद्भावकृत परिषह व्यपदेश हो सकता है । (रा. वा./६/१०/२-३१६१३/१०)।
चा. सा./१४५/४ स सापराध. स्वगणाचार्येण परगणाचार्य प्रति प्रोतव्यः
सोप्याचार्यस्तस्यालोचनमाकर्ण्य प्रायश्चित्तमहत्त्वाचार्यान्तरं *केवलीमें परिषही सम्बन्धी शंकाएं-दे० केवली/४। प्रस्थापयति, सप्तम यावत् पश्चिमश्च प्रथमालोचनाचार्य प्रति परिस्पन्द-१. आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्द-दे० योग/१ । २. प्रस्थापपति, स एव पूर्वः पूर्वोक्तप्रायश्चित्तेनेनमाचरयति। -अपने जीवके चलिताचलित प्रदेश-दे. जोव/४] ३, परिस्पन्दात्मक
संघके आचार्य ऐसे अपराधीको दूसरे संघके आचार्यके समीप भेजते भावका विषय-दे० भाव ।
है, वे दूसरे संघके आचार्य भी उनकी आलोचना सुनकर प्रायश्चित्त परिहार-परस्पर परिहारलक्षणविरोध-दे० विरोध ।
दिये बिना ही किसी तीसरे सबके आचार्यके समीप भेजते हैं, इसी
प्रकार सात संघोंके समीप उन्हें भेजते हैं अन्तके अर्थाव सातवें परिहार प्रायश्चित्त
संधके आचार्य उन्हें पहिले आलोचना सुननेवाले आचार्य के स.सि./8/२२/४४०/९ पक्षमासादिविभागेन दूरतः परिवर्जन परिहार' । समीप भेजते है तब वे पहले ही आचार्य उन्हें ऊपर लिखा हुआ
-पक्ष महीना आदिके विभागसे संघसे दूर रखकर प्याग करना (निजगणानुपस्थापनमें कहा हुआ) प्रायश्चित्त देते हैं।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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