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बंध
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१. बन्ध सामान्य निर्देश
प्र. सा./त. प्र/१७६-१७७ येने व माहरूपेण रागरूपेण द्वेषरूपेण वा भावेण पश्यति जानाति च तेनैवोपरज्यते एव । योऽयमुपराग' स खलु स्निग्धरूझत्वस्थानीयो भावबन्ध ॥१७६। यस्तु जीवस्यौपाधिकमोहरागद्वेषपर्यायैरेकत्वपरिणाम' स केवलजीवबन्ध' ११७७१ = जिस मोह-राग वा द्वषरूप भावसे देखता और जानता है, उसीसे उपरक्त होता है, यह तो उपराग है यह वास्तवमें स्निग्ध रूक्षत्व स्थानीय भावबन्ध है ।१७६। जोवका औपाधिक मोह-राग-द्वेषरूप पर्यायके साथ जो एकत्व परिणाम है, सो केवल जीवबन्ध है। द्र.सं /मू. ३२ बज्झदि कम्म जेण दु चेदणभावेण भावबधो सो १३२॥
-जिस चेतन परिणामसे कर्म बंधता है, वह भावबन्ध है ।३२॥ द्र. सं./टी./३२/११/१० मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपेण बाशुद्ध चेतन
भावेन परिणामेन बध्यते ज्ञानावरणादि कर्म येन भावेन स भावबन्धो भण्यते। -मिथ्यात्व रागादिमें परिणति रूप अशुद्ध चेतन भाव स्वरूप जिस परिणामसे ज्ञानावरणादि कर्म बँधते है, वह परिणाम भावबन्ध कहलाता है।
३. द्रन्यबन्धरूप जोवपुद्गल उभयबन्ध त. स./८/२ सकषायरवाज्जीवः कर्मणो योग्याच पुद्गलानादत्ते स बन्धः
कषाय सहित होनेसे जीव कर्मके योग्य प्रदगलौको ग्रहण करता है, वह बन्ध है ।। स.सि./१/४/९४/४ आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रवेशानुप्रवेशात्मकोऽजीवः।
आत्मा और कर्म के प्रदेशोंका परस्पर मिल जाना अजीव बन्ध है। (रा.वा./१/४/१७/२६/२६)। स.सि./८/२/३७७/११ अतो मिथ्यादर्शनाखावेशादाद्रीकृतस्यात्मनः सर्वतो योगविशेषात्तेषां सूक्ष्मै कक्षेत्रावगाहिनामनन्तानन्तप्रवेशाना पद्धगलानां कर्मभावयोग्यानामविभागेनोपश्लेषो बन्ध इत्यारख्यायते। यथा भाजनविशेष प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलाना मदिराभावेन परिणामस्तथा पुदगलानामप्यात्मनि स्थितान योगकषायवशारकर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः। मिथ्यादर्शनादिके अभिनिवेश द्वारा गीले किये गये आत्माके सब अबस्थाओं में योग विशेषसे. उन सूक्ष्म एक क्षेत्रावगाही अनन्तानन्त कर्मभावको प्राप्त होने योग्य पुदगलोंका उपश्लेष होना बन्ध है। यह कहा गया है। जिस प्रकार पात्र विशेषमें प्रक्षिप्त हुए बिविध रसवाले बीज, फल और फलोंका मदिरा रूपसे परिणमन होता है, उसी प्रकार आत्मामें स्थित हुए पुद्गलोका भी योग और कषायके निमित्तसे कर्मरूपसे परिणमन जानना चाहिए । (रा.बा/८/२/८-६/५६६/३); (क.पा./१/१३,१४/ /१२५०-२६१/४ ) (ध. १३/५.५,२/३४७/१३); (द्र.सं./मू.व.टी./३२); (गो.क./जी प्र./३३/२७/२)। न.च../१५४ अप्पपरसामुत्ता पुग्गलससी तहाविहा गेया। अण्णोणं -मिल्लता बंधोखलु होइ णिशाह १९५४-आत्म प्रदेश और पुदगलका अन्योन्य मिलन बन्ध है (जीव बन्ध है का, अ.); (का.अ./मू./ २०३); (द्र.सं./टी/२८/८५/११)। ध १३/५,५,८२/३४७/१० ओरालिय-वेउब्बिय-आहार-तेया-कम्मइयवग्गगाणं जोवार्ण जो बंधी सो जीवपोग्गलबंधी णाम । औदारिकवैक्रियक-आहारक-तैजस और कार्मण बर्गणाएं: इनका और जीवों
का जो मंध है वह जीव-पुदगल बंध है। भ.प्रा./वि./३८/१३४/१०मध्यते परवशतामापद्यते आत्मा येन स्थितिपरिणतेन कर्मणां तत्कर्म बन्धः। स्थिति परिणत जिस कर्मके द्वारा
बारमा परतन्त्र किया जाता है. वह कर्म 'बन्ध' है। प्र.सा./तप्र./१७७ यः पुनः जीवकर्म पुद्गलयोः परस्परपरिणाम निमित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्परमवगाह' स तदुभयबन्धः । जीव और कर्म पुदगलके परस्पर परिणाम के निमित्तमात्रसे जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह है सो उभयबंध है । (पं.ध./3/४७)।
गोक./जी प्र./४३८/११/१४ मिथ्यात्वादिपरिणामैर्यत्पुद्गलद्रव्यं ज्ञाना
वरणादिरूपेण परिणमति तच्च ज्ञानादीन्यावृणोतीत्यादि संबन्धो बन्ध । मिथ्यात्वादि परिणामों के द्वारा जो पुद्गल द्रव्य ज्ञानाबरणादि रूप परिणमित होकर ज्ञानादिको आवरण करता है। इनका यह संबंध है सो बंध है। पं.ध./उ./१०४ जीवकर्मोभयो बन्ध' स्यान्मिथः साभिलाषुकः । जीव'
कर्मनिबद्धो हि जीयबद्ध' हि कर्म तत् ।१०४।-जो जीव और कर्मका परस्परमें एक दूसरेकी अपेक्षासे अन्ध होता है, वह उभयबन्ध कहलाता है। क्योकि जीव कर्मसे बंधा हुआ है तथा वह कर्म जीवसे बँधा हुआ है।
६. अनन्तर व परम्पराबन्धका लक्षण घ. १२/४,२,१२,१/३७०/७ कम्मश्यवग्गणाए रिठदपोग्गलवरवधा मिच्छ
तादिपच्चएहि कम्मभावेण परिणदपढमसमए अणं तरबंधा। कधमेदेसिमणं तरबंधत्तं । कम्मइयवग्गणपजयपरिच्चत्ताणं तरसमए चेव कम्मपञ्चएण परिणयत्सादो।..संधविदियसमयप्पाहूडि कम्मपोग्गलवरवंधाणं जीवपदेसाणं च जो बंधो सो परंपरबंधो णाम । "पढमसमए बंधो जादो, विदियसमये वि तेसिं पोग्गलाणं बंधो चेव, तिदियसमये वि बंघो चेब, एवं बंधस्स णिरंतरभावो बंधपर परा णाम । ताए बंधापरंपराबंधा त्ति दब्बा । घ. १२/४,२,१२,४/३७२/२ णाणावरणीयकम्मरवधा अणं ताणता णिरतरमण्णोण्णेहि संबद्धा होदूण जे दिहा ते अणं तरबंधा णाम ।...अण'ताणता कम्मपोग्गलवरवंधा अण्णोणसंबद्धा होद्रण सेसकम्मरवधेहि असंबद्धा जीवदुवारेण इदरेहि संबंधमुवगया परंपरबंधा णाम । -१. कार्मण वर्गणा स्वरूपसे स्थित पुदगल स्कन्धोंका मिथ्यावादिक प्रत्ययकोंके द्वारा कर्म स्वरूपसे परिणत होनेके प्रथम समयमें जो बन्ध होता है उसे अनन्तरबन्ध कहते हैं ।...चूकि वे कार्मण वर्गणा रूप पर्यायको छोड़नेके अनन्तर समयमें ही कर्म रूप पर्यायसै परिणत हुए हैं, अतः उनकी अनन्तरबन्ध संज्ञा है । ...अन्ध होनेके द्वितीय समयसे लेकर कर्म रूप पुद्गल स्कन्धों और जीवप्रदेशोंका जो गन्ध होता है उसे परम्परा बन्ध कहते हैं।...प्रथम समयमें बन्ध हुआ. द्वितीय समयमें भी उन पुगलोंका बन्ध ही है, तृतीय समयमैं भी बन्ध ही है, इस प्रकारसे बन्धकी निरन्तरताका नाम अन्ध परम्परा है। उस परम्परासे होनेवाले बन्धोंको परम्परा बन्ध समझना चाहिए। २ जो अनन्तानन्त ज्ञानावरणीय कर्म रूप स्कन्ध निरन्तर परस्परमें सम्बद्ध होकर स्थित हैं वे अनन्तर बन्ध है ।...जो अनन्तानन्त कर्म-पुद्गल स्कन्ध परस्परमें संबद्ध होकर शेषकर्म संबद्धोंसे असंबद्ध होते हुए जीबके द्वारा इतर स्कन्धोंसे सम्बन्धको प्राप्त होते हैं, वे परम्परा बन्ध कहे जाते हैं। ७. विपाक व अविपाक प्रत्ययिक जीव माव बन्धके बक्षण ध. १४/५.६.१४/१०/२ कम्माणमुदओ उदीरणा वा विवागो णाम । विवागो पञ्चओ कारणं जस्स भावस्स सो विवागपञ्चइओ जीवभावबंधो णाम। कम्माणमुदयउदीरणाणमभावो अविधागो णाम । कम्माणमुघसमो नओ वा अविवागो ति भणिदं होदि । अविवागो पञ्चओ कारणं जस्स भावस्स सो अविवागपञ्चश्यो जीवभावबंधो णाम । कम्माणमुदय-उदीरणाहितो तवसमेण च जो उपज्जइ भावो सो तदुभयपञ्चइयो जीवभावमंधो णाम । -कर्मोके उदय और उदीराको विपाक कहते हैं। और विपाक जिस भावका प्रत्यय अर्थात् कारण है उसे बिपाक प्रत्यायिक जीवभावबन्ध कहते है (अर्थात जीवके औदयिक भाव वे० उदय/8)। कर्मोके उदय और उदीरणाके अभावको अविपाक कहते
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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