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प्रतिभाग
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प्रतिसूर्य
प्रतिभा-श्लो० वा/३/१/२०/१२४/६६२/३ उत्तर-प्रतिपत्ति. प्रतिभा प्रतिष्ठा विधान-१ प्रतिष्ठाविधान क्रम-प्रमाण-(क) वसुकैश्चिदुक्ता सा श्रुतमेव, न प्रमाणान्तरं, शब्दयोजनासद्भावात् । नन्दि प्रतिष्ठापाठ परिशिष्ट ।४(ख )वसुन ग्दिश्रावकाचार(ग) वसुअत्यन्ताभ्यासादाशुप्रतिपत्तिरशब्दजा कूटद्रुमादायकृताभ्यासस्याशु- नन्दिप्रतिष्ठापाठ । १ आठ दस हाथ प्रमाणाप्रतिमा निर्माणा(ख /३६३. प्रवृत्ति प्रतिभापर प्रोक्ता । सा न श्रुत, सादृश्यप्रत्यभिज्ञानरूपत्वा
४०१) २. प्रतिष्ठाचार्य में इन्द्रका सकल्प (ख०/४०२-४०४) ३. मण्डपमें त्तस्यास्तयो पूर्वोत्तरयोहि दृष्टदृश्यमानयो कूटद्रुमयोः सादृश्यप्रत्य
सिहासनकी स्थापना ( रख /४०५-४०६) ४ मण्डपकी ईशान दिशामें भिज्ञा झटित्येकर्ता परामृषन्ती तदेवेत्युपजायते। सा च मतिरेव
पृथक् वेदीपर प्रतिमाका धूलिक्ल शाभिषेक (ख./४०७-४०८); निश्चितेत्याह । उत्तरकी समीचीन प्रतिपत्ति हो जाना प्रतिभा है ।
५. प्रतिमाकी प्रोक्षण विधि ( ख./४०६);६. आकारकी प्रोक्षण विधि किन्ही लोगोंने उसको न्यारा प्रमाण माना है। किन्तु हम जनो के
(स्व./१०६), ७.गुणारोपण, चन्दन तिलक, मुखावर्ण, मन्त्र न्यास न्यारे प्रमाणस्वरूप नहीं है क्योकि वाचक शब्दोकी योजनाका सद्भाव
व मुखपट (ख१११-४२१) ८ प्रतिमाके कंकण बन्धन, काण्डक है। किन्तु अत्यन्त अभ्यास हो जानेसे झटिति, कूट, वृक्ष, जल
स्थापन, यव ( जो) स्थापन, वर्ण पूरक, और इक्षु स्थापन, विशेष आदिमें उस प्रतिभाके अनुसार प्रवृत्ति हो जाती है। जो यह
मन्त्रोच्चारण पूर्वक मुखोद्धाटन (ग./११२/१११), ६.रात्रि जागरण, अनभ्यासी पुरुषकी प्रतिभा है, वह तो श्रृत नही है। क्यों कि पहिले
चार दिन तक पूजन ( ख/४२२-४२३) १० नेत्रोन्मीलन । कहीं देख लिये गये और अब उत्तर कालमें देखे जा रहे कूट, वृक्ष आदिके एकपनमे झट सादृश्य प्रत्यभिज्ञा उपज जाती है । अत. वह २. उपरोक्त अंगोंके लक्षण मतिज्ञान ही है। प्रतिभाग-लब्ध (ध/प्र०३)।
१. प्रतिमा सर्वांग सुन्दर और शुद्ध होनी चाहिए। अन्यथा प्रतिष्ठा
कारकके धन जन हानिको सूचक होती है । ( क./१-८१) २. जलपूर्ण प्रतिभूत-भूत जातिके व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० भूत।
घटमे डालकर हुई शुद्ध मिट्टीसे कारीगर द्वारा प्रतिमापर लेप कराना प्रतिमा-१.मूर्ति रूप प्रतिमा-दे० चैत्य चैत्यालय।२ सल्लेखना
धूलिकलगाभिषेक कहलाता है। (ग./७०-७१) ३, सधवा स्त्रियों गत साधुकी १२ प्रतिमाएं -दे० सल्लेखना/४/११/२ ॥३. श्रावककी ११
द्वारा मॉजा जाना प्रोक्षण कहलाता है। (ग/७२); ४ सर्वोषध जल से प्रतिमाएँ-दे० श्रावक(१।
प्रतिमाको शुद्ध करना आवर शुद्धि है। (ग/७३-८६);५ अरहप्रतिमान प्रमाण-दे० प्रमाण/५ ॥
तादिकी प्रतिमामें उन उनके गुणो का संकल्प करना गुणारोपण है।
(ग./१५-१००); ६ प्रतिमाके विभिन्न अगोपर बीजाक्षरोका लिखना प्रतियोगी-१.जिस धर्ममे जिस धर्मका अभाव होता है वह धर्म मत्र संन्यास है । (ग./१०१-१०३) ७. प्रतिमाके मुखको वस्त्रसे ढाँकना
उस अभावका प्रतियोगी कहलाता है जैसे-घटमें पटत्व । २. वह मुखपट विधान है। (ग./१०७); ८. प्रतिमाको आँखमें काजल डालना वस्तु जो अन्य वस्तुपर आश्रित हो।
नेत्रोन्मीलन कहलाता है। नोट-यह सभी क्रियाएँ यथायोग्य प्रतिरूप-भूत जातिके व्यन्तर देवोका भेद-दे० भूत । व्यंतर२/१॥
मन्त्रोच्चारण द्वारा निष्पन्न की जाती है। प्रतिरूपक-स सि /७/२७/३६७/- कृत्रिमै हिरण्यादिभिर्वञ्चनापूर्व- ३. अचलप्रतिमा प्रतिष्ठा विधि को व्यवहार प्रतिरूपकव्यवहार बनावटी चाँदी आदिसे कपट
स्थिर या अचल प्रतिमा की स्थापना भी इसी प्रकार की जाती है । केवल पूर्वक व्यवहार करना प्रतिरूपक व्यवहार है। (रा.वा./७/२७/५/५५४/
इतनी विशेषता है कि आकर शुद्वि स्वस्थानमें ही करें। (भित्ति या १७) इसमें मायाचारीका भी दोष आता है-दे० मात्रा/२ ।
विशाल पाषाण और पर्वत आदिपर) चित्रित अर्थात उकेरी गयी, प्रतिलेखन-दे० पिच्छि।
रंगादिसे बनायी गयी या छापी गयी प्रतिमाका दर्पणमें प्रतिबिम्ब प्रतिलोम क्रम-पघ./१०/२८७ भाषा-सामान्यकी मुख्यता तथा
दिखाकर और मस्तकपर तिलक देकर तत्पश्चात प्रतिमाके मुख विशेषकी गौणता करनेसे जो अस्ति-नास्ति रूप वस्तु प्रतिपादित
वस्त्र देवे। आकर शुद्वि दर्पणमे करे अथवा अन्य प्रतिमामें करे। होती है उसे अनुलोम क्रम कहते है। तथा विशेषकी मुख्यता और
इतना मात्र ही भेद है, अन्य नहीं । (ख/४४३-४४५) सामान्यकी गौणता करनेसे जो अस्ति नास्ति रूप वस्तु प्रतिपादित प्रतिष्ठा तिलक-आ० ब्रह्मदेव ( ई श ११अन्त) द्वारा रचित होती है उसे प्रतिलोम क्रम कहते है।
सस्कृत भाषाका एव ग्रन्थ । (ती [३।३१३) प्रति विपला-कालका एक प्रमाण विदोष-दे० गणित/११/४। प्रतिष्ठापना शुद्धि-दे० समिति/१ । प्रति विपलांस-कालका एक प्रमाण विशेष --दे० गणिता/१/४।। प्रतिष्ठापना समिति-दे० समिति/१ । प्रतिश्रमण अनुमति-दे० अनुमति ।
प्रतिष्ठा पाठ-१ आ. इन्द्रनन्दि (ई श.१०मध्य) कृत वेदी प्रतिश्रुति-मपु./२/६३-६६ प्रथम कुलकर थे। सूर्य चन्द्रमाको देख
तथा प्रतिमा की शुद्धि व प्रतिष्ठा विधान विषयक ग्रन्थ है। कर भयभीत हुए लोगोंके भयको इन्होने दूर किया था। विशेष
२ आ० वमुनन्दि ( जयसेन) (ई.१०६८-१११८) कृत १२४ संस्कृत दे. शनाका पुरुष/३।
श्लोक प्रमाण प्रतिष्ठा सार संग्रह (ती /३/२३१) । ३.पं० आशाधर प्रतिषेध-दे० निषेध ।
(ई. ११७३-१२४३) कृत संस्कृत ग्रन्थ ।
प्रतिष्ठित-प्रतिष्टित प्रत्येक वनस्पति-दे० वनस्पति/३ । प्रतिष्ठाघरव १३/१४/सु ४०/२४३ धरणी धारणा ठरणा कोट्ठा पदिट ठा ४० प्रतिष्ठन्ति बिनाशेन विना अस्यामर्था इति
प्रतिसरण-स.सा./ता.७/३०६/३८८/१० प्रतिसरणं सम्यक्त्वादिप्रतिष्ठा =धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा ये एकार्थ
___गुणेषु प्रेरणं ।- सम्यक्त्वादि गुणोकी प्रेरणा करना प्रतिसरण है। नाम है।४०। जिसमें विनाशके बिना पदार्थ प्रतिष्ठित रहते है वह प्रतिसारी ऋद्ध-दे० ऋद्धि/२/४ । बुद्धि प्रतिष्ठा है।
पह हनुमानजीका मामा था। जो कि हनुमानकी माता प्रतिष्ठाचार्य-दे० आचार्य/३।
अजनाको जगलसे लाया था। (प.पु/१७/३४५-३४६) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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