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प्रतिज्ञा हानि
प्रतिभा
क' पुनराह अनित्य. शब्द इति । सोऽयं प्रतिज्ञातार्थनिह्नव प्रतिज्ञासन्यास इति। -पक्षके निषेध होनेपर प्रतिज्ञात 'माने हुए अर्थका छोड देना' 'प्रतिज्ञा संन्यास कहलाता है। जैसे-इन्द्रिय विषय होनेसे शब्द अनित्य है इस प्रकार कहनेपर दूसरा कहे कि 'जाति इन्द्रिय विषय है और अनित्य नहीं। इसी प्रकार शब्द भी इन्द्रिय विषय है पर अनित्य न हो। इस प्रकार पक्षके निषेध होनेपर यदि कहे कि कौन कहता है कि शब्द अनित्य है, यह प्रतिज्ञा किये हुए अर्थका छिपाना है। इसीको प्रतिज्ञासंन्यास कहते है ( श्लो. वा. ४/न्या, १७८/३७४/१६ में इसपर चर्चा )। प्रतिज्ञा हानि-न्या. सू /म. व टी./५/२/२/३०६ प्रतिदृष्टान्तधर्माभ्यानुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानि. १२। ऐन्द्रियकत्वाद नित्यः शब्दो घटवदिति कृते अपर आह । दृष्टमै न्द्रियकत्वं सामान्ये नित्ये कस्मान्न तथा शब्द इति प्रत्यवस्थिते इदमाह यद्यन्द्रियक सामान्यं नित्यं कामं घटो नित्योऽस्त्विति । = साध्यधर्म के विरुद्ध धर्म से प्रतिषेध करनेपर प्रति दृष्टान्तमें माननेवाला प्रतिज्ञा छोडता है इसको 'प्रतिज्ञाहानि' कहते हैं। जैसे--'इन्द्रियके विषयहोनेसे घटकी नाई शब्द अनित्य है' ऐसी प्रतिज्ञा क्रनेपर दूसरा कहता है कि 'नित्य जातिमें इन्द्रिय विषयत्व है। तो वैसे ही शब्द भी क्यों नहीं'। ऐसे निषेधपर यह कहता है कि 'जो इन्द्रिय विषय जाति नित्य है तो घट भी नित्य हो', ऐसा माननेवाला साधक दृष्टान्तका मित्यत्व मानकर 'निगमन' पर्यन्त ही पक्षको छोडता है। पक्षका छोडना
HT प्रतिज्ञाका छोडना है, क्योंकि पक्ष प्रतिज्ञाके आश्रय है। (श्लो. वा. ४/न्या./१०२/३४५/ह में इसपर चर्चा)। प्रतिग्रह-दे० भक्ति/२/६ । प्रतिघात-स.सि /२/४०/१६३/६ मूर्तिमतो मूत्यन्तरेण व्याघात' प्रतिघात। -एक मूर्तीक पदार्थका दूसरे मूर्तीक पदार्थके द्वारा जो । व्याघात होता है, उसे प्रतिपात कहते हैं । (रा.वा./२/४०/९/१४६/४)। प्रतिघाती-स्थूल व सूक्ष्म पदार्थों में प्रतिघाती व अप्रतिधातीपना
-दे० सूक्ष्म/३। प्रतिच्छन्न-भूत जातिके व्यन्तर देवोंका एक भेद-दे० भूत। प्रतिजीवीगुण-दे० गुण/१ । प्रतितंत्र सिद्धांत-दे० सिद्धान्त । प्रतिदृष्टांतसमा-न्या सु./म. व टी /१/९//२६१ दृष्टान्तस्य कारणानपदेशात् प्रत्यवस्थानाच्च प्रतिदृष्टान्तेन प्रसगप्रतिदृष्टान्तसमौ हा क्रियाहेतुगुणयोगी क्रियावान लोष्ट इति हेतु पदिश्यते न च हेतुमन्तरेण सिद्धिरस्तीति प्रतिदृष्टान्तेन प्रत्यवस्थान प्रतिदृष्टान्तसम.1 क्रियावानात्मा क्रियाहेतुगुणयोगाइ लोष्टव दित्युक्ते प्रतिदृष्टान्त उपादीयते क्रियाहेतुगुणयुक्तमाकाश निष्क्रियं दृष्टमिति । क. पुनराकाशस्य क्रियाहेतुर्गुणो वायुना संयोग, संस्कारापेक्ष वायुवनस्पतिसंयोगवदिति। - वादीके द्वारा कहे गये दृष्टान्तके प्रतिकूल दृष्टान्त स्वरूप करके प्रतिवादी द्वारा जो दूषण उठाया जाता है, वह प्रतिदृष्टान्तसमा जाति इष्ट की गयी है। इसका उदाहरण यो है कि (क्रियावत्त्व गुणके कारण आत्मा क्रियावाला है जैसे कि लोष्ट ) इस ही आत्माके क्रियावत्त्व साधनेमे प्रयुक्त किये गये दृष्टान्तके प्रतिकूल दृष्टान्त करके दूसरा प्रतिवादी प्रत्यवस्थान देता है कि क्रियाके हेतुभूत गुणके ( वायुके साथ ) युक्त हो रहा आकाश तो निष्क्रिय देखा जाता है। उस हीके समान आत्मा भी क्रिया रहित हो जाओ। यदि यहाँ कोई प्रश्न करे कि क्रियाका हेतु आकाशका कौनसा गुण है। प्रतिवादीकी ओरसे उत्तर यों है कि वायुके साथ आकाशका जो सयोग है, वह क्रियाका कारण गुण है। जैसे-कि वेग नामक
संस्कारको अपेक्षा रखता हुआ, वृक्षमे वायुका संयोग क्रियाका कारण हो रहा है। अत आकाशके समान आत्मा क्रिया हेतुगुणके सद्भाव होने पर भी क्रियारहित हो जाओ। (श्लो. वा ४/न्या. ३६४/४८६/ १ में इसपर चर्चा)। प्रतिनीत-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१ । प्रतिपक्ष-दे० पक्ष । प्रतिपत्तिक ज्ञान-दे० श्रुतज्ञान/II प्रतिपत्तिक समास ज्ञान-दे० श्रुतज्ञान III प्रतिपद्यमान स्थान-दे० लब्धि/५ । प्रतिपातस सि./१/२४/१३०/८ प्रतिपतनं प्रतिपात' । = गिरनेका नाम प्रतिपात
है । (रा वा./१/२४/१/८५/१६)। रा.वा./१/२२/४/८२/४ प्रतिपातीति विनाशो विद्य व प्रकाशवत् ।
-प्रतिपाती अर्थात बिजलीकी चमक्की तरह विनाशशील बीचमें ही छूटनेवाला ( अवधिज्ञान )। प्रतिपाती-प्रतिपाती संयम लब्धि स्थान-दे० लब्धि/५ । प्रतिपाती अवधिज्ञान-दे० अवधिज्ञान/६ । प्रतिपाती मनःपर्यय ज्ञान-दे० मन.पर्यय/२ ।
छना-दे० समाचार। प्रतिबंध-प्रतिबन्ध निमित्त या कारण-दे० निमित्त/१ । प्रतिबध्य-प्रतिबंध्य प्रतिबन्धक विरोध-देविरोध । प्रतिबद्धता-१.क्षण व प्रतिबुद्धताका लक्षण घ./८/३,४१/८/१० खण-लवा णाम काल विसेसा । सम्मइसण-णाण-बदसील-गुणाणमुज्जालण कलंक-पक्रवालण संधुक्खणं वा पडिबुझणं णाम, तस्य भावो पडिबुज्झणदा । खण-लवं पडि पडिबुज्मणदा खणलवपडिबुज्झणदा।क्षण और लव ये काल विशेषके नाम है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, व्रत और शील गुणोंको उज्ज्वल करने, मल को धोने, अथवा जलानेका नाम प्रतिबोधन है और इसके भावका नाम प्रतिबोधनता है। प्रत्येक क्षण व लवमें होने वाले प्रतिबोधको क्षणलव प्रतिबुद्धता कहा जाता है।
प्रतिपच्छना० सम
२. एक इसी भावनामें शेष भावनाओंका समावेश ध/८/३,४१/८/१२/तीए एक्काए वि तित्थयरणामकम्मस्स बंधो । एत्थ वि पुव्वं व सेसकारणाणमंतब्भावो दरिसेदव्यो। तदो एवं तित्थयरणामकम्मबंधस्स पंचमं कारणं । उस एक ही क्षण-लव प्रतिबुद्धतासे तीर्थकर नामकर्मका बन्ध होता है। इसमें भी पूर्वके समान शेष कारणोका अन्तर्भाव दिखलाना चाहिए। इसलिए यह तीर्थंकर नामकर्म के बन्धका पाँचवाँ कारण है। प्रतिबोध-ध/३,४१/८५/१० सम्मईसण-णाण-बद-सील-गुणाणमुज्जालण कलंकपक्रवालणं सधुक्रवणं वा पडिबुज्झणं णाम सम्यग्दशन-ज्ञान, व्रत और शील गुणो को उज्ज्वल करने, मलको धोने अथवा जलाने का नाम प्रतिबोधन है । प्रतिभग्न-क. पा/३/१,२२/१४०६/२३१/8 उक्कस्सद्विदि बघतो पडिहग्गपढमादिसमएसु सम्मत्त ण गेण्हदि त्ति जाणावण?मतोमुहुत्तद्ध' पडिभग्गो त्ति भणिद । प्रतिभग्न शब्द का अर्थ उत्कृष्ट स्थिति बंधके योग्य उत्कृष्ट संवलेश रूप परिणामोसे प्रतिनिवृत्त होकर विशुद्धिको प्राप्त हुआ होता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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