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मिथ्यादृष्टि
२. मिथ्यादृष्टि निर्देश
१. मिथ्याष्टिके भेद रा.वा/8/१/१२/५८८/१८ ते सर्व समासेन द्विधा व्यवतिष्ठन्ते-हिताहितपरीक्षाविरहिताः परीक्षकाश्चेति । तत्रैकेन्द्रियादयः सर्वे संज्ञिपर्याप्तकवर्जिता. हिताहितपरीक्षाविरहिताः । -सामान्यतया मिथ्यादृष्टि हिता हितकी परीक्षासे रहित और परीक्षक इन दो श्रेणियोमें बाँटे जा सकते है। तहाँ संज्ञिपर्याप्तकको छोड़कर सभी एकेन्द्रिय आदि हिताहित परीक्षासे रहित है। सज्ञी पर्याप्तक हिताहित परीक्षासे रहित और परीक्षक दोनों प्रकारके होते है।
है. सातिशय व धातायुष्क मिथ्यादृष्टि ल. सा /जी.प्र./२२०/२७३/९ प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखसातिशयमिभ्यादृष्टेर्भणितानि । प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अभिमुख जीव सातिशय मिध्यादृष्टि कहलाते है। घ.४/१,५,६६/३८५ विशेषार्थ-किसी मनुष्यने अपनी संयम अवस्थामें देवायुका बन्ध किया। पीछे उसने संक्लेश परिणामोके निमित्तसे संयमकी विराधना कर दी और इसीलिए अपवर्तनाघातके द्वारा आयुका घात भी कर दिया । यदि वही पुरुष सयमकी विराधनाके साथ ही सम्यक्त्वकी भी विराधना कर मिथ्यादृष्टि हो जाता हैऐसे जीवको घातायुष्क मिथ्यादृष्टि कहते है।
वापत्ति नितरी निवारयन्तोऽर्थव्य मन दुभरद्धौ नितान्तसावधाना', चारित्राचरणाय हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहसमस्तविरति - रूपेषु पञ्चमहावतेषु तन्निष्ठवृत्तय , सम्यग्योगनिग्रहलक्षणामु गुप्तिषु नितान्तं गृहीतोद्योगा, ईर्याभाषेषणादान निक्षेपोत्सर्गरूपासु समितिष्पत्यन्तनिवेशितप्रयत्नाः, तपश्चरणायानशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशेष्वभीक्ष्णमुत्साहमानाः, प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यव्युत्सर्गस्वाध्यायध्यानपरिक्राड कुशितस्वान्ता, वीर्याचरणाय कर्मकाण्डे सर्वशक्त्या व्याप्रियमाणा., कर्मचेतनाप्रधानत्वाद्दूरनिवारिताशुभकर्मप्रवृत्तयोऽपि समुपात्तशुभकर्मप्रवृत्तयः, सकलक्रियाकाण्डाडम्बरोत्तीर्ण दर्शनज्ञानचारित्रैकापरिणतिरूपा ज्ञानचेतना मनागप्यसंभावयन्त., प्रभूतपुण्यभारमन्थरितचित्तवृत्तय., सुरलोकादिक्लेशप्राप्तिपरम्परया सुचिरं संसारसागरे भ्रमन्तीति। जो केवल व्यवहारावलम्बी है वे वास्तवमें भिन्न साध्यसाधन भावके अवलोकन द्वारा निरन्तर अत्यन्त खेद पाते हुए, पुन पुन धर्मादिके श्रद्धानमें चित्त लगाते हैं, श्रुतके संस्कारोंके कारण विचित्र विकल्प जालोंमें फंसे रहते हैं और यत्याचार व तपमें सदा प्रवृत्ति करते रहते है। कभी किसी विषयकी रुचि व विकल्प करते हैं और कभी कुछ आचरण करते हैं। -(१) दर्शनाचरणके लिए प्रशम संवेग अनुकम्पा व आस्तिक्यको धारण करते है, शंका कांक्षा आदि आठों अंगोंका पालन करने में उत्साहचित्त रहते हैं। (२) ज्ञानाचरणके लिए काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिव, अर्थ, व्यंजन व तदुभय इन आठों अंगोंकी शुद्धिमें सदा सावधान रहते हैं। (३) चारित्राचरणके लिए पंचमहावतोंमें, तीनों गुप्तियो में तथा पाँचों समितियों में अत्यन्त प्रयलयुक्त रहते है। (४) तपाचरणके लिए १२ तपोंके द्वारा निज अन्त करणको सदा अंकुशित रखते है। (१) वीर्याचरणके लिए कर्मकाण्डमें सर्व शक्ति द्वारा व्यापृत रहते हैं। इस प्रकार सांगोपांग पंचाचारका पालन करते हुए भी कर्मचेतनाप्रधानपनेके कारण यद्यपि अशुभकर्मप्रवृत्तिका उन्होंने अत्यन्त निवारण किया है तथापि शुभकर्मप्रवृत्तिको जिन्होंने बराबर ग्रहण किया है ऐसे, वे सकल क्रियाकाण्डके आडम्बरसे पार उतरी हुई दर्शनज्ञानचारित्रकी ऐक्यपरिणतिरूप ज्ञानचेतनाको किचित् भी न उत्पन्न करते हुए, बहुत पुण्यके भारसे म थर हुई चित्तवृत्तिवाले वर्तते हुए, देवलोकादिके क्लेशको प्राप्तिकी परम्परा द्वारा अत्यन्त दीर्घकाल तक संसारसागरमें भ्रमण करते हैं।
२. मिथ्यादृष्टि निर्देश १. मिथ्यादृष्टिमें कदाचित् अनन्तानुबन्धीके उदयका
अमाव भी सम्भव है पं.स./प्रा./१/१०३ आवलियमेत्तकालं अणं अधीण होइ णो उदओ . गो, क./मू/४७८/६३२ अणसंजोजिदसम्मे मिच्छ पत्ते ण आवलित्ति अणं। =अनन्तानुबन्धीका विसंयोजक मिथ्यावृष्टि जीव जम सम्यक्त्वको छोडकर मिथ्यात्वगुणस्थानको प्राप्त होता है, उसको एक आवली मात्र काल तक अनन्तानुबन्धी कषायोका उदय नहीं होता है। २. मिथ्यादृष्टिको सर्व व्यवहार धर्म व वैराग्य आदि होने सम्भव हैं प्र. सा./मू./८५ अठे अजधागहणं करुणाभावो य तिदियमणुएमु । विसएस च पसगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि ८५ - पदार्थ का अयथाग्रहण और तिर्यच मनुष्योंके प्रति करुणाभाव तथा विषयोंकी संगति,
ये सम मोहके चिह्न है। दे० सम्यग्दर्शन/III/ • (नव वेयकवासी देवोंको सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें जिनमहिमा दर्शन निमित्त नहीं होता, क्योंकि, वीतरागी होनेके
कारण उनको उसके देखनेसे आश्चर्य नहीं होता।) पं. का./त. प्र./१७२ ये तु केवलव्यवहारावलम्बिनस्ते खलु भिन्नसाध्यसाधनभावावलोकनेनानवरतं नितरां खिद्यमाना मुहुर्मुहुर्धर्मादिश्रद्वानरूपाध्यवसायानुस्यूतचेतस प्रभूतश्रुतसंस्काराधिरोपितविचित्रविकल्पजाल कलमाजितचैतन्यवृत्तय , समस्तयतिवृत्तसमुदायरूपतप'प्रवृत्तिरूपकमकाण्डड्डमराचलिता, कदाचित्किचिद्रीचमाना कदाचित् किंचिद्विकल्पयन्तः, कदाचिरिकचिदाचरन्त., दर्शनापरणाय कदाचित्प्रशाम्यन्त', कदाचित्संविजयमानाः, कदाचिदनकम्पमाना, कदाचिदास्तिक्यमुद्वहन्ता, शंकाकाक्षाविचिकित्सामूत्रष्टितानां व्युत्थापन निरोधाय नित्यबद्धपरिकरा., उपबृहणस्थितिकरणवात्सल्यप्रभावानां भावयमाना बारम्बारमभिवर्धितोसाहा, ज्ञानाचरणाय स्वाध्यायकालमवलोकयन्तो, बहुधा विनयं प्रपवयन्तः, प्रविहितदुर्धरोपधाना., मुष्ट बहुमानमातन्वन्तो निझ
३. इतना होनेपर भी वह मिथ्याडष्टि व असंयती स. सा.मू./३१४ जा एस पयडीअट्ठ चेया णेव विमुचए। अयाणी भवे ताव मिच्छाइट्ठी असजओ ।३१४। -जबतक यह आश्मा प्रकृतिके निमित्तसे उपजना विनशना नहीं छोड़ता है, तब तक वह
अज्ञायक है, मिथ्यादृष्टि है, असंयत है । दे०चारित्र/३ (सम्यक्त्व शून्य होनेके कारण व्रत समिति आदि पालता हुआ भी वह संयत नहीं मिथ्यादृष्टि ही है।)
१. उन्हें परसमय व मिथ्यादृष्टि कहनेका कारण दे०मिथ्याष्टि/१/१(परद्रव्यरत रहनेके कारण जीव परसमय व मिथ्या
दृष्टि होता है।) प्र. सा./त प्र/६४ ये खलु जीवपुद्गलात्मकमसमानजातीयद्रव्यपर्याय सकलाविद्यानामेकमूलमुपगतायथोदितात्मस्वभावमभावनबलीबारत - स्मिन्नेवाशक्तिमुपब्रजन्ति,ते खलच्छलितनिरगल कान्तदृष्टयो मनुष्य एवाहमेष ममैवैतन्मनुष्यशरीरमित्यकारममकाराभ्यां विप्रलभ्यमाना अविचलितचेतनाविलासमात्रादात्मव्यवहारात प्रच्युत्य कोडीकृतसमस्तक्रियाकुटुम्बकं मनुष्यव्यवहारमाश्रित्य रज्यन्तो द्विषन्तश्च
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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