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मिथ्यादृष्टि
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१. भेद व लक्षण
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मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमें कदाचित् अनन्तानुबन्धीके उदयके अभावको सम्भावना। सभी गुणस्थानोंमें आयके अनुसार व्यय होनेका । नियम
-दे० मार्गणा। इसका सासादन गुणस्थानके साथ संबंध
-दे० सासादन/२। | मिथ्यादृष्टिको सर्व व्यवहारधर्म व वैराग्य आदि
सम्भव है। | इतना होनेपर भी वह मिथ्यादृष्टि व असंयत है। मिथ्यादृष्टिको दिये गये निन्दनीय नामदे० निन्दा । उन्हें परसमय व मिथ्यादृष्टि कहनेका कारण । मिथ्यादृष्टिकी बाह्य पहिचान । | मिथ्यादृष्टियोंमें औदयिक भावकी सिद्धि ।
१. भेद व लक्षण १.मिथ्यादृष्टि सामान्यका लक्षण
१ विपरीत श्रद्धालु पं. सं प्रा./१/८ मिच्छादिट्ठी उवइट्ठ पबयणं ण सहहदि । सद्दहदि
असब्भाव उबडहूँ अणुवइटहँ च ८% ( मोहके उदयसे-भ.आ.) मिथ्याहि जीव जिन उपदिष्ट प्रवचनका श्रद्धान नहीं करता। प्रत्युत अन्यसे उपदिष्ट या अनुपदिष्ट पदार्थोंके अयथार्थ स्वरूपका श्रद्धान करता है। (भ, आ /मू./४०/१३८); (६.सं.प्रा./१/१७०); (ध. ६/१,६-८/8/गा. १५/२४२), (ल सा/म् /१०६/१४७), (गो. जी./मू /१८/४२,६५६/११०३) । रा बा /8/१/१२/५८८/१५ मिथ्यादर्शनकर्मोदयेन वशीकृतो जीवो मिथ्यादृष्टिरित्यभिधीयते। यत्कृतं तत्त्वार्थानामश्रद्धानं ।= मिथ्यादर्शन कर्म के उदयके वशीकृत जीव मिथ्या दृष्टि कहलाता है। इसके कारण उसे तत्त्वार्थीका श्रद्धान नहीं होता है। (और भी दे० मिथ्यादर्शन/१)। ध. १/१,१,६/१६२/२ मिथ्या वितथा व्यलीका असत्या दृष्टिदर्शन विपरीतै कान्तविनयसंशयाज्ञानरूपमिथ्यात्वकर्मोदयजनिता येषां ते मिथ्यादृष्टयः। अथवा मिथ्या वितथं, तत्र दृष्टिः रुचि श्रद्धा प्रत्ययो येषा ते मिथ्यादृष्टयः मिथ्या, वितथ, व्यलीक और असत्य ये एकार्थवाची नाम है। दृष्टि शब्द का अर्थ दर्शन या श्रद्धान है। इससे यह तात्पर्य हुआ कि जिन जीवोंके विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञानरूप मिथ्यात्वकर्म के उदयसे उत्पन्न हुई मिथ्यारूप दृष्टि होती है, उन्हे मिथ्यादृष्टि जीव कहते है। द्र, सं./टी./१३/३२/१० निजपरमात्मप्रभृति षड्द्रव्यपञ्चास्तिकायसप्ततत्त्वनवपदार्थेषु मूढत्यादि पञ्चविंशतिमलरहितवीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन यस्य श्रद्धानं नास्ति स मिथ्यादृष्टिर्भवति ।-निजात्मा आदि षद्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व, और नवपदार्थोमें तीन मूढता आदि पच्चीस दोषरहित, वीतराग सर्वज्ञद्वारा कहे हुए नयविभागसे जिस जीवके श्रद्धान नहीं है, वह जीव मिथ्यादृष्टि होता है।
मिथ्याष्टिके भावोंकी विशेषता इसके परिणाम अध.प्रवृत्तिकरणरूप होते है
-दे० करण/४ । १-३ गुणस्थानों में अशुभोपयोग प्रधान है
-दे० उपयोग/II/४/५ । विभाव भी उसका स्वभाव है-दे० विभाव/२ । | उसके सर्व भाव अज्ञानमय है।
उसके सर्व भाव बन्धके कारण है। उसके तत्त्वविचार नय प्रमाण आदि सब मिथ्या है। उसकी देशनाका सम्यक्त्वप्राप्तिमें स्थान
-दे० लब्धि /३/४॥ उसके व्रतोंमें कथचित् व्रतपना -दे० चारित्र/६/८ । भोगोंको नहीं सेवता हुआ भी सेवता है
--दे० राग/६।
४ मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टिमें अन्तर
दोनोंके श्रद्धान व अनुभव आदिमें अन्तर । दोनोंके तत्त्व कर्तृत्वमें अन्तर । दोनोंके पुण्यमें अन्तर । दोनोंके धर्म सेवनके अभिप्रायमें अन्तर । दोनोंकी कर्मक्षपणामें अन्तर । मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्दृष्टिके आशयको नहीं जान सकता। जहाँ ज्ञानी जागता है वहाँ अशानी सोता है
-दे० सम्यग्दृष्टि/४। मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टिके राग व भोग आदिमें अन्तर सम्यग्दृष्टि की क्रियाओंमें प्रवृत्तिके साथ निवृत्ति अंश रहता है।
---दे० संवर/२।
२. परद्रव्य रत मो.पा./न./१५ जो पुण परदब्बरओ मिच्छादि ठि हवेह सो साहू । मिच्छत्तपरिणदो उण बज्झदि दुठ्ठठकम्मे हि ॥१॥ -परद्रव्यरत साधु मिथ्यादृष्टि है और मिथ्यात्वरूप परिणमता हुआ दुष्ट अष्टकर्मोंका बन्ध करता है। (और भी दे० 'समय' में परसमयका
लक्षण ।) प.प्र /म./१/७७ पज्जरत्तउ जीवडउ मिच्छादिछि हवेह । बंधा बहु
विधकम्माणि जेण ससारैभमति !७७। -शरीर आदि पर्यायोंमें रत जीव मिथ्यावृष्टि होता है। वह अनेक प्रकारके कर्मोको बाँधता हुआ ससारमें भ्रमण करता रहता है। ध, १/१,१.१/८२/७ परसमयो मिच्छत्त । -परसमय मिथ्यात्वको
कहते है। प्र सा/ता वृ/१४/१२२/१६ कर्मोदयजनितपर्यायनिरतत्वात्परसमया मिथ्यादृष्टयो भण्यन्ते । -कर्मोदयजनित मनुष्यादिरूप पर्यायोंमें निरत रहनेके कारण परसमय जीव मिथ्यादृष्टि होते है। दे० समय/पर समय-(पर द्रव्योंमें रत रहनेवाला पर समय कहलाता
है)। (और भी दे० मिथ्यादृष्टि/२/५)। पंध./उ./8EO तथा दर्शनमोहस्य कर्मणस्तूदयादिह । अपि यावदना
त्मीयमात्मीयं मनुते कुदृक् ।१०। -तथा इस जगत में उस दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे मिथ्यादृष्टि सम्पूर्ण परपदार्थों को भी निज मानता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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