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मधुर संभाषण
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मनःपर्यय
हो गया और सगरसे पूर्व वैरका बदला चुकानेके लिए 'पर्वत' को हिसात्मक यज्ञोके प्रचारमें सहयोग देने लगा। मधर संभाषण-दे० सत्य/२। मधुरा-१ म. पु/१६/२०७-२१० कोशल देशके वृद्वग्राममें मृगायण नामक ब्राह्मणको स्त्री थी। मरकर पोदनपुर नगरके राजाकी पुत्री रामदत्ता हुई । (यह मेरु गणधरका पूर्वका नवाँ भव है-दे० मेरु)। २. दक्षिण द्रविड देशमें वर्तमान मडुरा ( मदुरा) नगर । (द्र. स./ प्र. १ जवाहरलाल शास्त्रो)। मधुसूदन-दे०. मधुकेटभ । मधुसूदन सरस्वती-वेदान्त शास्त्रके अद्वैत सिद्धिके रचयिता ।
समय ई. १३५० ।-दे. वेदान्त/१ । मधुस्त्रावी-दे ऋद्धिा । मध्य-१. दक्षिण व उत्तर वारुणीवर समुद्रका रक्षक देव-दे
व्यतर/४ । २. भरतक्षेत्र आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । मध्य खंड द्रव्य-दे० कृष्टि । मध्यधन-दे० गणित/II/५/३। मध्यम पद-दे० पद। मध्य प्रदेश-जीवके आठ मध्य प्रदेश-दे. जीव/। मध्यम स्वर-दे० स्वर । मध्यमा वाणी-दे० भाषा। मध्य मीमांसा दे० दर्शन/षट्दर्शन । मध्यलोक-१ मध्यलोक परिचय-दे० लोक/३-६ २. मध्य
लोकके नकशे-दे० लोक/७ । मध्यस्थ-दे० माध्यस्थ्य । मध्याह्न-ठीक दोपहरका संधिकाल । मनःपयय-बिना पूछे किसीके मन की बातको प्रत्यक्ष जान जाना मन पर्य यज्ञान है। यद्यपि इसका विषय अवधिज्ञानसे अल्प है, पर सुक्ष्म होने के कारण उससे अधिक विशुद्ध है। और इसलिए यह सयमी साधुओको ही उत्पन्न होना सम्भव है। यद्यपि प्रत्यक्ष है परन्तु इसमे मनका निमित्त उपचारसे स्वीकार किया गया है। यह दो प्रकारका है-ऋजुमति और विपुलमति । प्रथम केवल चिन्तित पदार्थको ही जानता है, परन्तु विपुलमति चिन्तित, अचिन्तित, अर्धचिन्तित व चिन्तितपूर्व सबको जाननेमे समर्थ है।
| मन.पर्यय, मति व श्रुतज्ञानमें अन्तर
-दे०मन पर्यय/३। मन.पर्यय क्षायोपशमिक कैसे- दे० मतिज्ञान/२/४ । मन.पर्यय निसर्गज है-दे० अधिगम । | मन.पर्ययका दर्शन नहीं होता-दे० दर्शन/६। मन.पर्ययज्ञानका विषय १. मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषयकी अपेक्षा । २. द्रव्य क्षेत्र काल व भावको अपेक्षा । ३ मन पर्यय ज्ञानकी त्रिकालग्राहकता। मूर्तद्रव्यग्राही मन.पर्यय द्वारा जीवके अमूर्त भावोंका
ग्रहण कैसे? ५ . मूर्तग्राही मन.पर्यय द्वारा जीवके अमूर्त कालद्रव्य
सापेक्ष भावोंका ग्रहण कसे? क्षेत्रगत विषय सम्बन्धी स्पष्टीकरण । मन.पर्ययज्ञानके भेद । मन.पर्ययशानमें जाननेका क्रम ।-दे० मन पर्यय/३ । मोक्षमार्गमे मनःपर्ययकी अप्रधानता
-दे० अवधिज्ञान/२। प्रत्येक तीर्थकरके कालमें मन.पर्ययज्ञानियोंका प्रमाण ।
-दे० तोथंकर/५॥ * मन.पर्यय सम्बन्धी गुणरथान, मार्गणास्थान, जीवसमास आदि २० प्ररूपणाएँ।
-दे० सत। मन पर्ययज्ञानियोंकी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबद्दुत्वरूप प्ररूपणाएँ
-दे० वह-वह नाम । सभी मार्गणास्थान में आयके अनुसार व्यय होनेका नियम
-दे० मार्गणा।
| १ | मनःपयय ज्ञानसामान्य निर्देश १ मन.पर्ययज्ञान सामान्यका लक्षण
१ परकीय मनोगत पदार्थको जानना। २. पदार्थ के चिन्तवनयुक्त मन या ज्ञानको जानना। उपरोक्त दोनों लक्षणोंका समन्वय । मन पर्ययज्ञानकी देश प्रत्यक्षता -दे० मन पर्यय/३/६ । मन.पर्ययज्ञान व अवधिज्ञानमें अन्तर
-दे० अवधिज्ञान/२ । * अवधिकी अपेक्षा मन.पर्ययकी विशुद्धता
-दे अवधिज्ञान/२।
ऋजु व विपुलमति ज्ञान निर्देश ऋजुमति सामान्यका लक्षण । ऋजुत्वका अर्थ । ऋजुमतिके भेद व उनके लक्षण । ऋजुमतिका विषय १. मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषयकी अपेक्षा । २-४. द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावको अपेक्षा। ऋजुमति अचिन्तित व अनुक्त आदिका ग्रहण क्यों नहीं करता। वचनगत ऋजुमतिकी मन.पर्यय सशा कैसे ? विपुलमति सामान्यका लक्षण। विपुलत्वका अर्थ । विपुलमतिके भेद व उनके लक्षण। विपुलमतिका विषय १. मनोगत अय व अन्य सामान्य विषयकी अपेक्षा।
२-४, द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा। ११ / अचिन्तित अर्थगत विपुलमतिको मन पर्नपस कैसे ? ।
विशुद्धि व प्रतिपातको अपेक्षा दोन अन्तर
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जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश
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