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मनःपर्यय
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१. मनःपर्ययज्ञान सामान्य निर्देश
मनःपर्ययज्ञानमें स्वव पर मनका स्थान १ | मनःपर्ययका उत्पत्तिस्थान मन है, करणचिह्न नहीं।
दोनों ही शानोंमें मनोमति पूर्वक परकीय मनको जानकर पीछे तद्गत अर्थको जाना जाता है। ऋजुमतिमें इन्द्रियों व मनकी अपेक्षा होती है, विपुलमतिमें नहीं। मनकी अपेक्षामात्रसे यह मतिशान नहीं कहा जा सकता। मतिशान पूर्वक होते हुए भी इसे श्रुतज्ञान नहीं कहा। जा सकता। मन.पर्ययज्ञान प्रत्यक्ष व इन्द्रियनिरपेक्ष है।
मनःपर्ययका स्वामित्व ऋद्धिधारी प्रवर्द्धमान संयतको ही सम्भव है। अप्रमत्तादि गुणस्थानों में उस्पन्न होता है। ऋजु व विपुलमतिका स्वामित्व । निचले गुणस्थानोंमें क्यों नहीं होता। सभी सयमियोंको क्यों नहीं होता। अप्रशस्त वेदमें नहीं होता। -दे० वेद/६ । उपशम सम्यक्त्व व परिहार विशुद्धि आदि गुण विशेषोंके साथ नहीं होता
-दे० परिहार विशुद्धि/७१ द्वि. व प्र. उपशमसम्यक्त्वके कालमें मनःपर्ययके सद्भाव व अभाव सम्बन्धी हेतु । पंचम कालमें सम्भव नहीं-दे० अवधिज्ञान/२/७ ॥
ध.६/१,६-११४/२८/६ परकीयमनोगतोऽर्थो मन , तस्य पर्याया विशेषा'
मन पर्याया, तात् जानातीति मन पर्ययज्ञानम् । परकीय मनमें स्थित पदार्थ मन कहलाता है। उसकी पर्यायो अर्थात 'विशेषोको मन पर्यय कहते है। उनको जो ज्ञान जानता है वह मन पर्य यज्ञान है । (ध. १३/५५५,२१/२१२/४ ) । दे. मन पर्यय । ३/२ (स्वमनसे परमनका आश्रय लेकर मनोगत अर्थ
को जाननेवाला मन पर्यय ज्ञान है।) २. पदार्थ के चिन्तवन युक्त मन या शानको जानना ध. १/१,१,२/६४/४ मणपज्जवणाणं णाम परमणोगयाई मुत्तिदबाई तेण मणेण सह पच्चक्रलं जाणदि । जो दूसरोके मनोगत मूर्तीक द्रव्योंको उस मनके साथ प्रत्यक्ष जानता है. उसे मन पर्ययज्ञान कहते है। ध. १३/५,५,२१/२१२/८ अधवा मणपज्जवसण्णा जेण रूढिभवा तेण चितिए विचितिए वि अत्थे बट्टमाणणाणविसया त्ति घेत्तव्वा । - अथवा 'मन'पर्यय' यह संज्ञा रूढिजन्य है। इसलिए चिन्तित व अचिन्तित दोनो प्रकारके अर्थ में विद्यमान ज्ञानको विषय करनेवाली यह सज्ञा है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
२. उपरोक्त दोनों लक्षणोंका समन्वय घ. १३/५,५,२१/२१२/४ परकीयमनोगतोऽथों मन', मनस' पर्यायाः विशेषा" मन पर्याया', तान् जानातीति मनःपर्ययज्ञानम् । सामान्यव्यतिरिक्तविशेषग्रहणं न संभवति, निविषयत्वात् । तस्मात् सामान्यविशेषात्मकवस्तुग्राहि मन पर्ययज्ञानमिति वक्तव्यं चेत्नैष दोष , दृष्टत्वात । तहि सामान्यग्रहणमपि कर्तव्यम् । (न), सामथ्र्यलभ्यत्वात् । एदं वयणं देसामासियं। कुदो। अचि तियाण अचितियाणं च अस्थाणमवगमादो।
___परकीय मनको प्राप्त हुए अर्थ का नाम मन है। उस मन (मनोगत पदार्थ ) की पर्यायो या विशेषोका नाम मन पर्याय है। उन्हें जो जानता है, वह मन पर्यायज्ञान है।-विशेष दे० लक्षण नं०१। प्रश्न--सामान्यको छोड़कर केवल विशेषका ग्रहण करना सम्भव नहीं है, क्योकि, ज्ञानका विषय केवल विशेष नही होता, इसलिए सामान्य विशेषात्मक वस्तुको ग्रहण करनेवाला मन.पर्ययज्ञान है, ऐसा कहना चाहिए। उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योकि, यह बात हमें इष्ट है । प्रश्न-तो इसके विषय रूपसे सामान्यका भी ग्रहण करना चाहिए। उत्तर-नही, क्योकि सामर्थ्य से ही उसका ग्रहण हो जाता है। अथवा यह वचन ( उपरोक्त लक्षण नं०१) देशामर्शक है. क्योंकि, इससे अचिन्तित और अर्धचिन्तित अर्थोका भी ज्ञान होता है। अथवा (चिन्तित पदार्थोके साथ-साथ उस चिन्तबन युक्त ज्ञान या मनको भी जानता है-दे० लक्षण न०२)। भावार्थ-'परकीय मनोगत पदार्थ' इतना मात्र कहना सामान्य विषय निर्देश है और 'चिन्तित अचिन्तित आदि पदार्थ' यह कहना विशेषविषय निर्देश है। अथवा 'चिन्तित अचिन्तित पदार्थ' यह कहना विशेष विषय निर्देश है और 'इससे युक्त ज्ञान व मन' यह कहना सामान्य विशेष निर्देश है। पदार्थ सामान्य, पदार्थ विशेष और ज्ञान या मन इन तीनो बातोको युगपत् ग्रहण करनेसे मनपर्यय ज्ञानका विषय सामान्य विशेषात्मक हो जाता है। ३. मनःपर्ययज्ञानका विषय १. मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषयकी अपेक्षा दे० मन पर्यय/२/४,१० ( दूसरोके मनमे स्थित संज्ञा, स्मृति, चिन्ता, मति आदिको तथा जीवो के जीवन-मरण, सुख-दुख तथा नगर आदिका विनाश, अतिवृष्टि, सुवृष्टि, दुभिक्ष-सुभिक्ष, क्षेम-अक्षेम, भय-रोग आदि पदार्थों को जानता है।)
१. मनःपर्ययज्ञान सामान्य निर्देश
१. मनःपययज्ञान सामान्यका लक्षण
१. परकीय मनोगत पदार्थको जानना ति.प./४/१७३ चिंताए अचिंताए अद्भचिंताए विविहभेयगयं । जं जाणइ
परलोए तं चिय मणपज्जवं णाणं ।६७३-चिन्ता, अचिन्ता और अर्धचिन्ताके विषयभूत अनेक भेदरूप पदार्थको जो ज्ञान नरलोकके भीतर जानता है, वह मन पर्ययज्ञान है। (प.स./प्रा./१/१२५); (ध. १/१.१,११५/गा. १८५/३६०), (क. पा. १/१,१/१२८/४३/३ ):
(गो.जी./मू./४३८८५७) । स. सि /१,६/६४/३ परकीयमनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते । साहचर्यात्तस्य पर्य यर्ण परिगमनं मन'पर्ययः । - दुसरेके मनोगत अर्थ को मन कहते है, उसके मनके सम्बन्धसे उस पदार्थका पर्ययण अर्थात परिगमन करनेको या जाननेको मन पर्ययज्ञान कहते है। (रा. वा./ १/१/४४/२१); (क. पा १/१,१/११४/१२/), (गो. जी /जी.प्र./
४३०/८५८/५)। रा.वा./९/९/४/४४/१६ तदावरण कर्मक्षयापशमादि-द्वितीयनिमित्तवशात् परकीयमनोगतार्थ ज्ञानं मन पर्ययः।-मन-पर्यय ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमादिरूप सामग्रीके निमित्तसे परकीय मनोगत अर्थको जानना मन पर्यय ज्ञान है । (६. का, त. प्र./४१), (द्र. सं./टी./५/ १७/२) । (न्या दी./२/१३/३४) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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