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पवनंजय
२. बृहद विधि - बृहद विधानसंग्रह / पृ. ५०
कृष्ण पक्ष
मास
आश्विन
कार्तिक
मंगसिर
पौष
माघ
फाल्गुन
क्षेत्र
वैशाख
ज्येष्ठ
आषाढ
श्रावण
भाद्र
उपवास
तिथि
६,१३
१२
११
२,१५
४,७,१४
४.८.८६११
४,१०
१०
पांडव
१३-१५ का तेला
४,६,८,१४
६-७
बेला तिथि
१०-११
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५-७
१-२
१३-१४ का तेला
१०
२,१२
उपवास
तिथि
शुक्ल पक्ष
१४
३.१२
२.१३
५,७,१५
१०
१.११
७,१०
६.१३
८.१०
१५
८-१०
१५
३,१५
६-१५
बेला तिथि
७-८
२-३
१२-१३
6-69 का तेला
कुल- ४ तेला, ७ बेला व ४८ उपवास ।
नमस्कार मन्त्रका निकाल जाप्य करना चाहिए। (किशनसिह क्रिया कोष ।
११-१३
का तेला
पवनंजय
पू/ १२ / लोक आदित्यपुरके राजा प्रह्लादका पुत्र था ( ८ ) । हनुमानका पिता था (३०७) । पवन दे० पवन । पवाइज्नमाण जो उपदेश आचार्य सम्मत होता है और चिरकालसे अविच्छिन्न सम्प्रदायके क्रमसे चला आता हुआ शिष्य परपराके द्वारा लाया जाता है वह पवाइज्जमाण कहा जाता है । पशु १ ५. १२/५.५.१४० / ३६२ / १२ सरोमन्या पादो नाम जो रोयते है वे पशु कहलाते है २ मुनियों के लिए पशु सग निषेध । -दे० सगति ।
पश्चात् स्तुति-१ बाहारका एक दोष ६० आहार / II २.
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वस्तिका का एक दोष- देव वस्तिका ।
पश्चातानुपूर्वी – दे० आनुपूर्वी । पश्यन्ती -- दे० भाषा | पांचाल - १. भरतक्षेत्र मध्य आर्यखण्डका एक देश - दे० मनुष्य / ४; २. कुरुक्षेत्र के पूर्ववर्ती देश चर्मण्यती नदी तक विस्तृत था दो भाग थे - उत्तर व दक्षिण। उत्तर पाचालकी राजधानी अहिच्छत्रा ( अहिक्षेत्र ) और दक्षिण पाचालकी राजधानी कम्पिला थी। ( म.
पु / प्र. ४६ / पं पन्नालाल ) ।
- श्रुतावतारकी पट्टावली के अनुसार भगवान् वीरके पश्चात मूल परम्परा में तीसरे ११ अगधारी थे । समय- वी. नि. ३८३-४२०
पांडुर
( ई० पू० १४४ - १०५ ) - दे० इतिहास / ४ / १ । २.पा.पु / सर्ग / श्लोक युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल सहदेव मे पाँचों कुरुवंशी राजा पाण्डुके पुत्र होनेसे पाण्डव कहलाते थे (८२१७) भीमके मनसे अपमानित होने तथा इनका राज्य हड़पना चाहनेके कारण कौरव राजा दुर्योधन इनसे द्वेष करता था (१०/३४-४०)। उसी द्वेष व उसने इनको साक्षागृह जलाकर मारनेका पत्र किया, पर किसी प्रकार पाण्डव बहाँसे बच निकले ( १८ /६०, ११५,१६६ ) | और अर्जुन स्वयंवरमे द्रौपदी व गाण्डीव धनुष प्राप्त किया ( १५/१०२)। वहीं पर इनका कौरवो से मिलाप हुआ ( १५/१४३, १८२ - २०२ ) तथा आधा राज्य बॉटकर रहने लगे ( १६ / २-१ ) परन्तु पुन दुर्योधनने जुमे इनका सर्व राज्य जीतकर इन्हे बारह वर्ष अज्ञातवास करनेपर माध्व किया ( १६ / ९४.१०१-१२२) सहायनमें इनकी दुर्योधनके साथ मुठभेड हो गयी (१०/८७-२२१)। जिसके पश्चात इन्हें विराट नगर में राजा विराटके यहाँ छद्मवेशमें रहना पडा (१०/२३०) | द्रौपदीपर दुराचारी दृष्टि रखनेके अपराध में यहाँ भीमने राजाके साले की चक व उसके १०० भाइयो को मार डाला ( १७/२७८ ) । छद्मवेशमे ही कौरवो भिडकर अर्जुनने राजाके गोकुलको रक्षा की ( १३ / ९५९)। अन्तमें कृष्ण जरासन्ध युद्धमें इनके द्वारा सब कौरव मारे गये ( १६ / ११.२० / २६६ ) | एक विद्याधर द्वारा हर ली गयी द्रौपदीको अर्जुनने विद्या सिद्ध करके पुन प्राप्त किया ( २१ / ११४, ११८ ) । तत्पश्चात भगवान नेमिनाथके समीप जिन दीक्षा धार (१४/१५) शत्रुजय गिरि पर पोर तप किया (२३ / ९२) दुर्योधनके भानजे कृत दुस्सह उपसर्गको जीरा युधिष्ठिर, भीम व अर्जुन मुक्त हुए और कुल व सहदेव सर्वार्थसिद्धि में देव हुए ( २५/५२-१३६) । पांडव पुराण - १ देवप्रभ सूरि (वि. १२००) कृत मूल पाण्डव पुराण के आधार पर भट्टारक शुभ चन्द्र (वि १६०८. ई. १५५१) द्वारा रचित, २५ पर्वों में विभक्त ५१०४ श्लोक प्रमाण संस्कृत छन्द बद ग्रन्थ (ती /३/३६७) २ यश कीर्ति (त्रि १५३५ - १६१३) कृत अपभ्रंश काव्य । (ती./३/४९९) । ३. वादि चन्द्र (ई. १६०१) कृत । पांडु - १. चक्रवर्तीकी नम निधियों से एक० ताका पुरुष २. पा. पु / सर्ग / श्लोक भीष्मके सौतेले भाई व्यासका पुत्र था (७/ ११७ ) । अन्धकवृष्णिकी कुन्ती नामक पुत्री से छद्मवेश सम्भोग किया। उससे कर्ण नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (७/१६४-१६६,७/२०४) । तत्पश्चात् उसकी छोटी बहन मद्री सहित कुन्तीसे विवाह किया (८/२४-१००) कुन्तीसे युधिष्ठिर, अर्जुन व भीम, तथा नदी से नकुल व सहदेव उत्पन्न हुए। ये पाँचो ही आगे जाकर पाण्डव नामसे प्रसिद्ध हुए ( ८ / १४३ - १७५) । अन्तमे दीक्षा धारण कर तीन मुक्त हुए और दो समाधि पूर्वक स्वर्गने उत्पन्न हुए (१/१२७-१३८) । पांडुकंबला शिला- सुमेरुपर्वतपर एक शिला, जिसपर पश्चिम विदेहके तीर्थंकरों का जन्म कल्याणक सम्बन्धी अभिषेक किया जाता है।-३० लोक /३/८/४
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पांडुक१. १. विजयार्ध की उत्तर श्रेणीका एक नगर- दे० विद्याधर; २. कुण्डल पर्वतस्य माहेन्द्रका स्वामी नागेन्द्र देव दे० लोक १२० पांडुकवन - सुमेरु पर्वतका चतुर्थ मन इसमे ४ चैत्यालय है। - ३० सोन/२/६/४
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५१
पांडुर -
१. दक्षिण क्षीरवर द्वीपका रक्षक देव-दे० व्यन्तर । २ कुण्ड पर्वतस्य हिमवल्कूटका स्वामी मागेन्द्रदेव दे० लोक/४/१२/ पांडुशिला
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- सुमेरु पर्वत पर स्थित एक शिला जिसपर भरत - क्षेत्र के तीर्थंक्रोका जन्म कल्याण के अवसर पर अभिषेक किया जाता है । ३० लोक
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