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पाड्य
पात्रकेसरी
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पांडय-मध्य आर्यखण्डस्थ देश-दे० मनुष्य/४| पांड्यवाटक-मलयगिरिके मध्यभागमै एक पर्वत। -दे०
मनुष्य/४। पांड्य-मद्रासके अन्तर्गत वर्तमान केरल देश। (म पु./प्र. ५०/पं. पन्नालाल)।
शुतापि-आकाशोपपन्न देव।-दे० देव/II/३। पांशुमूल-विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर---दे० विद्याधर । पाक्षिक श्रावक-दे० श्रावक/३। पाटलीपुत्र-बिहार प्रान्तकी राजधानी बर्तमान पटना (म. पु./प्र
४/५. पन्नालाल)। पाणिमुक्तागति-दे० विग्रहगति/२ । पाताल-१. विमलनाथ भगवान्का शासक यक्ष-दे०तीर्थ कर/५/३ २ लवण समुद्रको तली में स्थित बडे-बडे खड।ये तीन प्रकारके है
उत्तम, मध्यम व जघन्य ( दे. लोक/४/१)। पातालवासा-रावा./४/२३//२४२/१४ पातालवासिनो लवणोदादिसमुद्रावासा सुस्थितप्रभासादय। -लवण आदि समुद्रोमें भली प्रकार रहनेवाले प्रभास आदि देव पातालवासी कहलाते है। पात्र-मोक्षमार्ग में दानादि देने योग्य पात्र सामान्य भिखारी लोग
नही हो सकते। रत्नत्रयसे परिणत अविरत सम्यग्दृष्टिसे ध्यानारूत योगी पर्यन्त ही यहाँ अपनी भूमिकानुसार जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट भेदरूप पात्र समझे जाते है। महावतधारी साधु भी यदि मिथ्यादृष्टि है तो कुपात्र है पात्र नहीं। सामान्य भिखारी जन तो यहाँ अपात्रकी कोटिमे गिने जाते है। तहाँ दान देते समय पात्रके अनुसार ही दातारकी भावनाएं होनी चाहिए ।
तत्त्वके विचार करनेवालोके भेदसे जिनेन्द्र भगवानने हजारों प्रकारके पात्र बतलाये है। वसु.श्रा./२२१ तिविहं मुणेह पत्तं उत्तम-मज्झिम-जहण्णभेएण । - उत्तम
मध्यम व जघन्यके भेदसे पात्र तीन प्रकारके जानने चाहिए । (पु.सि, उ./१७१); (प.वि /२/४८), (अ ग.श्रा./१०/२) ।
३. नाममात्रका जैन भी पान है सा. ध /२/१४ नामत स्थापनातोऽपि, जैन पात्रायतेतराम् । स लभ्यो द्रव्यतो धन्यै वितस्तु महात्मभिः ।५४ - नामनिक्षेपसे और स्थापनानिक्षेपसे भी जैन विशेष पात्रके समान मालूम होता है। वह जैन द्रव्यनिक्षेपसे पुण्यात्माओके द्वारा तथा भावनिक्षेपसे महास्माओके द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।५४|
४. उत्तम, मध्यम व जघन्य पात्रके लक्षण बा. अ./१७-१८ उत्तमपत्तं भणियं सम्मत्तगुणेण स जुदो साहू । सम्मादिट्ठी सावय मज्झिमपत्तोहु विण्णेयो ॥१५ णिद्दिट्ठो जिणसमये अविरदसम्मो जहण्णपत्तोत्ति ।१८। =जो सम्यक्त्व गुण सहित मुनि हैं, उन्हें उत्तम पात्र कहा है, और सम्यक्त्वदृष्टि श्रावक है, उन्हे मध्यम पात्र समझना चाहिए ।१७ तथा व्रतरहित सम्यग्दृष्टिको जघन्य पात्र कहा है ॥१८॥ (ज. प./२/१४४-१५१); ( प. वि./२/४८); (वसु. श्रा/२२१-२२२) (गुण, श्रा./१४८-१४६); (अ.ग श्रा./१०/४); (सा.ध./५/४४)। र.स./१२४ उवसम णिरीह झाणज्झयणाइमहागुणाजहादिट्ठा । जेसि ते मुणिणाहा उत्तमपत्ता तहा भणिया ।१२४। -उपशम परिणामोको धारण करनेवाले, बिना किसी इच्छाके ध्यान करने वाले तथा अध्ययन करने वाले मुनिराज उत्तम पात्र कहे जाते हैं ॥१२४॥
५. कुपात्रका लक्षण ज प/२/१५० उअवाससोसियतणू णिस्संगो कामकोहपरिहोणो। मिच्छत्तसं सिदमणो णायव्यो सो अपत्तो त्ति ।१५०। =उपासोसे शरीरको कृश करनेवाले, परिग्रहसे रहित, काम, क्रोधसे विहीन परन्तु मनमें मिथ्यात्व भावको धारण करनेवाले जीवको अपात्र (कुपात्र) जानना चाहिए।१५० वसु. श्रा./२२३ वय-तव-सोलसमग्गो सम्मत्तविवज्जियो कुपत्तं तु ।२२३।
-जो बत, तप और शीलसे सम्पन्न है, किन्तु सम्यग्दर्शनसे रहित है, वह कुपात्र है। ( गुण. श्रा./१५०), (अ.ग. श्रा./१०/३४-३६); (पं वि./२/४८)
६ अपात्रका लक्षण बा अ/१८ सम्मत्तरयणरहियो अपत्तमिदि संपरिक्खेजो। -सम्य
वत्वरूपी रत्नसे रहित जीवको अपात्र समझना चाहिए। वसु. श्रा./२२३ सम्मत्त-सील-वयवज्जिओ अपत्त हबे जीओ। २२३ ।
-सम्यक्त्व, शील और वतसे रहित जीव अपात्र है। (पं.वि./२/ ४८); (अ.ग. श्रा./१०/१६-३८) । * अन्य सम्बन्धित विषय १. पात्र अपात्र व कुपात्रके दानका फल
-दे० दान। २. नमस्कार योग्य पात्र अपात्र
-दे० विनय/४। ३. ज्ञानके योग्य पात्र अपात्रका लक्षण -दे० श्रोता। ४. शान किसे देना चाहिए और किसे नहीं -दे० उपदेश/३ । पात्रकसरी-१. आप ब्राह्मण कुलसे थे। न्यायशास्त्रमें पारंगत
थे। आचार्य विद्यानन्दिकी भाँति आप भ समन्तभद्र रचित देवागमस्तोत्र सुननेसे ही जैनानुयायी हो गये थे। आपने त्रिलक्षण
१. पात्र सामान्यका लक्षण र, सा./१२५-१२६ दसणसुबो धम्मकाणरदो संगवज्जिदो णिसल्लो।
पत्त विसेसो भणियो ते गुणहीणो दु विवरीदो ।१२। सम्माइ गुणविसेस पत्तविसेसं जिणेहि णिहिट्ठ 1१२६। -जो सम्यग्दर्शनसे शुद्ध है धर्म ध्यान में लीन रहता है, सब तरहके परिग्रह व मायादि शष्योसे रहित है, उसको विशेष पात्र कहते है उससे विपरीत अपात्र है । १२५। जिसमे सम्यग्दर्शनको विशेषता है उसमें पात्रपनेकी विशेषता समझनी चाहिए ।१२६। स. सि./9/३६/३७३/८ मोक्षकारणगुणसंयोग पात्र विशेषः। मोक्षके कारणभूत गुणोसे सयुक्त रहना यह पात्रकी विशेषता है। अर्थात जो मोक्षके कारणभूत गुणोसे संयुक्त होता है वह पात्र होता है । (रा.वा/७/38/५/५५६/३१)। सा ध/१/१३ यत्तारयति जन्मान्धे, स्वाश्रितान्मानपात्रवत । मुक्त्यर्थगुणसंयोग-भेदात्पात्र विधा मतम् ।४३। = जो जहाजकी तरह अपने
आश्रित प्राणियोको ससाररूपी समुद्रसे पार कर देता है वह पात्र वहलाता है, और वह पात्र मोक्षके कारणभूत सम्यग्दर्शनादि गुणोके
सम्बन्धसे तीन प्रकारका होता है ।४३॥ प्र सा./ता वृ./२६०/३५२/१५ शुद्धोपयोगशुभोपयोगपरिणतपुरुषा' पात्रं भवन्तीति । - शुद्धोपयोग अथवा शुभोपयोगसे परिणत जीव पात्र कहलाते है।
२. पात्रके भेद र. सा./१२३ अविरददेसमहन्वयआगमरुइणं विचारतच्चण्हं । पत्ततर
सहस्सं णिहिटठं जिणवरिदेहि ।१२३॥ = अविरत सम्यग्दृष्टि, देशवतो, श्रावक, महावतियोके भेदसे, आगममे रुचि रखनेवालों तथा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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