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पात्रकेसरीस्तोत्र
पाप
कदर्थन, तथा जिनेन्द्रगुणस्तुति (पात्रकेसरी स्तोत्र ) ये दो ग्रन्थ लिखे। समय-पूज्यपादके उत्तरवर्ती और अकलं कदेवसे पूर्ववर्ती है-ई श६ (दे० इतिहास ७/१). (ती /२/२३८-२४०) २. श्लोकवार्तिककार आ. विद्यानन्दि (ई०७७५-८४०) की उपाधि । (दे० विद्यानन्दि) 1 ( जैन हितैषी, पं. नाथूराम)।
पात्रकेसरीस्तोत्र-आचार्य पात्र केसरी (ई श ६-७) द्वारा
सस्कृत श्लोकोमें निबद्ध जिनेन्द्रकी स्तुतिका पाठ है। इसमें ५० श्लोक है। (ती०२/२४०)। पात्र दत्ति-दे० दान। पाद-१. क्षेत्रका प्रमाण विशेष-दे० गणित///३; २.( प्रत्येक
शताब्दीमे चार पाद होते है। प्रत्येक पाद २५ वर्षका माना जाता है।); ३ वर्गमूलका अपरनाम -दे० गणितII/९/01 पादुकार-वसतिकाका एक दोष-दे० 'वसतिका'। पाद्य स्थिति कल्प-भ. आ./वि/४२१/६९६/१० पज्जो समण
कप्पो नाम दशम । वर्षाकालस्य चतुर्ष मासेषु एकत्रैवावस्थान भ्रमणत्यागः। स्थावरजंगमजोवाकुला हि तदा क्षिति । तदा भ्रमणे महानसंयम: इति विशत्यधिक दिवसशतं एकत्रावस्थानमित्ययमुत्सर्ग.। कारणापेक्षया तु होनाधिकं वावस्थान, संयतानां आषाढशुद्धदशम्या स्थिताना उपरिष्टाच्च कार्तिकपौर्णमास्यास्त्रिशद्दिवसावस्थानं। वृष्टिबहुलता, श्रुतग्रहणं, शक्त्यभाववैयावृत्त्यकरणं प्रयोजनमुद्दिश्य अवस्थानमेकत्रेति उत्कृष्ट काल । मार्यां, दुर्भिक्षे, ग्रामजनपदचलने वा गच्छनाशनिमित्ते समुपस्थिते देशान्तरं याति । पौर्णमास्यामाषाढयामतिक्रान्तायां प्रतिपदादिषु दिनेषु याति । यावच्च त्यक्ता विंशतिदिवसा एतदपेक्ष्य हीनता कालस्य एष । वर्षा कालमें चार मासमें एक ही स्थानमें रहना अर्थात् भ्रमणका त्याग यह पाद्य नामका दसवां स्थिति कल्प है। वर्षाकालमे जमीन स्थावर और त्रस जीवोसे व्याप्त होती है। ऐसे समयमे मुनि यदि विहार करेगे तो महा असयम होगा। इत्यादि दोषोसे बचने के लिए मुनि एक सौ बीम दिवस एक स्थानमें रहते है, यह उत्सर्ग नियम है। कारण वश इससे अधिक या कम दिवस भी एक स्थानमें ठहर सकते है । आषाढ शुक्ला दशमीसे प्रारम्भ कर कार्तिक पौर्ण मासीके आगे भी और तीस दिन तक एक स्थान में रह सकते है। अध्ययन, वृष्टिकी अधिकता, शक्तिका अभाव, वैयावृत्त्य करना इत्यादि प्रयोजन हो तो अधिक दिन तक रह सकते है। .. मारी रोग, दुर्भिक्षमें ग्रामके लोगोंका अथवा देशके लोगोका अपना स्थान छोडकर अन्य ग्रामादिकमें जाना, गच्छ का नाश होनेके निमित्त उपस्थित होना, इत्यादि कारण उपस्थित होनेपर मुनि चातुर्मासमें भी अन्य स्थानोंपर जाते है। • इसलिए आषाढ पूर्णिमा व्यतीत होनेपर प्रतिपदा वगैरह तिथिमें अन्यत्र चले जाते है। इस प्रकार बीस दिन एकसौ बीसमे कम किये जाते हैं, इस तरह कालकी हीनता है।
* वर्षायोग स्थापना निष्ठापना विधि (दे० कृतिकर्म/४ ) पान-मू.आ./६४४ पाणाणमणुग्गहं तहा पाणं। १६४४ अशनादि
चार प्रकारके आहारमें-से, जिससे दस प्राणोंका उपकार हो वह पान है।६४४ पानक-१-आहारका एक भेद-दे० आहार /1/१ भ.आ./मू/७००/८८२ सत्थं बहलं लेवडमलेवडं च ससित्ययमसिस्थं । छविहपाणयभेयं पाणयपरिकम्मपाओग्ग ७०० ='स्वच्छ (गर्म जल); बहल ( इमलीका पानी आदि), लेवड (जो हाथको चिपके); अलेवड (जो हाथको न चिपके जैसे माड): ससिक्थ ( भातके दानों
सहित मांड) ऐसा छह प्रकारका पानक आगममे कहा है। [इन
छहों के लक्षण-दे० वह वह नाम । ] पानदशमी व्रत-व्रतविधान संग्रह/१३० पान दशमि वीरा दश पान । दश श्रावक दे भोजन ठान । -दश श्रावकोको भोजन कराकर फिर स्वयं भोजन करे, वह पान दशमी व्रत कहलाता है। (नवल साहकृत वर्द्धमान पुराण) पानांग कल्पवृक्ष-दे० वृक्ष/१। पाप-निरुक्ति.स.सि./६/३/३२०/३ पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम् । तद सद्वेद्यादि। जो आत्माको शुभसे बचाता है, वह पाप है। जैसे
असाता वेदनीयादि । (रा. वा/६/३/१/५०७/१४) । भ. आ/वि /३७/१३४/२१ पाप नाम अनभिमतस्य प्रापक । - अनिष्ट पदार्थों की प्राप्ति जिससे होती है ऐसे कर्मको (भावोको) पाप कहते है। २. अशुभ उपयोग प्र सा /मू./१८१ सुहपरिणामो पुण्ण असुहो पावं त्ति भणियमण्णेसु ।
परके प्रति शुभ परिणाम पुण्य है, और अशुभ परिणाम पाप है। द्र.सं मु/३८ असुहभावजुत्ता. पावं हवं ति खलु जीवा 1१८ - अशुभ
परिणामोसे युक्त जीव पाप रूप होते है। स. म./२७/३०२/१७ पापं हिसादि क्रियासाध्यमशुभं कर्म । = पाप हिसादिसे होनेवाले अशुभकर्म रूप होता है।
३. निन्दित आचरण पं. का /मू./१४० सण्णाओ य तिलेस्सा इं दियवसदा य अत्तरदाणि । णाणं
च दुप्पउत्त मोहो पाक्प्पदा होति ११४०। चारो सज्ञाएँ, तीन लेश्याएँ, इन्द्रिय वशता, आर्त रौद्रध्यान, दु प्रयुक्त ज्ञान और मोह
यह भाव पाप प्रद है ।१४०। न. च. वृ./१६२ अहवा कारणभूदा तेसि च वयव्वयाइ इह भणिया। ते
खलु पुण्णं पावं जाण इम पवयणे भणिय ।१६२५ = अशुभ वेदादिके कारण जो अवतादि भाव है उनको शास्त्रमे पाप कहा गया है। यो सा. अ/8/३८ निन्दकत्वं प्रतीक्ष्येषु नै वृण्यं सर्वजन्तुषु । निन्दिते
चरणे राग. पापबन्धविधायक' ३८१ = अर्हन्तादि पूज्य पुरुषोकी निन्दा करना, समस्त जीवोमे निर्दय भाव रहना, और निन्दित आचरणों में प्रेम रखना आदि बधका कारण है।
२. पापका आधार बाह्य द्रव्य नहीं स, सि./६/११/३३०/१ परमकरुणाशयस्य नि शल्यस्य संयतस्योपरि
गण्डं पाटयतो दु स्वहेतुत्वे सत्यपि न पापबन्धो बाह्य निमित्तमात्रादेव भवति। - अत्यन्त दयालु किसी वैद्यके फोड़ेकी चीर-फाड और मरहम पट्टी करते समय नि शल्य संयतको दुख देने में निमित्त होनेपर भी केवल बाह्य निमित्त मात्रसे पाप बन्ध नही होता। दे० पुण्य/१/४ (पुण्य व पापमें अन्तरंग प्रधान है)।
३. पाप (अशुभ नामकर्म) के बन्ध योग्य परिणाम त.सू /६/३,२२.. अशुभ पापस्य ।। योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्न' ।२२। =अशुभ योग पापासवका कारण है ।३. योग वक्रता
और विसंवाद ये अशुभ नामकर्म के आस्रव है ।२२। प. का /म् /१३६ चरिया पमादबहुला कालुस्सं लोलदा य विसयेसु ।
परपरितावपवादो पावस्स य आसवं कुणदि ।१३६ = बहु प्रमादवाली चर्या, कलुषता, विषयोके प्रति लोलुपता, परको परिताप करना तथा परके अपवाद बोलना-वह पापका आस्रव करता है ।१३।। मू. आ./२३५ पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगो। विवरीदं पावस्स दु आसवहेउं वियाणादि ।२३५! - शुभसे विपरीत
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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