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भाव
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१. भेद व लक्षण
* | पारिणामिक, क्षायोपशमिक व सान्निपातिक भाव
निर्देश-दे० वह वह नाम । प्रतिबन्ध्य प्रतिबन्धक, सहानवस्था, बध्यघातक आदि भाव निर्देश।-दे० विरोध । व्याप्य-व्यापक, निमित्त-नैमित्तिक, आधार आधेय, भाव्य भावक, ग्राह्य-ग्राहक, तादात्म्य, संश्लेष आदि भाव निर्देश-दे० संबन्ध । शुद्ध-अशुद्ध व शुभादि भाव-दे० उपयोग/II | स्व-पर भावका लक्षण। निक्षेप रूप भेदोंके लक्षण। काल व भावमें अन्तर-दे० चतुष्टय ।
१.भेद व लक्षण
१. भाव सामान्यका लक्षण एक ग्रह है--दे० ग्रह। १. निरुक्ति अर्थ रा वा /९/१/२८/६ भवन भवतीति वा भाव । होना मात्र या जो
होता है सो भाव है। ध.५/१,७,१/१८४/१० भवनं भाव:, भूतिर्वा भाव इति भावसहस्स विउप्पति । - 'भवनं भाव' अथवा 'भूतिर्वा भाव ' इस प्रकार भाव शब्दकी व्युत्पत्ति है। २ गुणपर्यायके अर्थ में सि.वि./टी/४/१६/२६८/१६ सहकारिसंनिधौ च स्वतः कथं चित्प्रवृत्तिरेव भावलक्षणम् । विसदृश कार्य की उत्पतिमें जो सहकारिकारण होता है, उसकी सन्निधिमें स्वत हो द्रव्य कथंचित उत्तराकार रूपसे
जो परिणमन करता है, वही भावका लक्षण है। घ. १/१,१,८/गा १०३/१५१ भावो खलु परिणामो।पदार्थोके परिणाम___ को भाव कहते है । (पं. ध./उ २६ )। ध. १/१,१,७/१५६/६ कम्म-कम्मोदय-परूबणाहि विणा...छ-वष्टि-हाणिट्ठिय-भावसंखमतरेण भाववण्णणाणुववत्तीदो वा। - कर्म और कर्मोदयके निरूपणके बिना अथवा षट् गुण हानि व वृद्धिमें स्थित भावकी संख्याके बिना भाव प्ररूपणाका वर्णन नही हो सकता।
पंच भाव निर्देश द्रव्यको ही भाव कैसे कह सकते है। भावोंका आधार क्या है। पंच भावोंमें कथचित् आगम व अध्यात्म पद्धति
-दे० पद्धति । पंच भाव कथचित् जीवके स्वतत्त्व है। सभी भाव कथचित् पारिणामिक है। सामान्य गुण द्रव्यके पारिणामिक भाव है
-दे० गुण/२/११ । छहों द्रव्योंमें पच भावोंका यथायोग्य सत्त्व । पॉचों भावोकी उत्पत्तिमें निमित्त । पोच भावोंका कार्य व फल । सारणीमें प्रयुक्त सकेत सूची।
पंच भावोंके स्वामित्वकी ओष प्ररूपणा । १० पंच भावांके स्वामित्वकी आदेश प्ररूपणा ।
भावोंके सत्त्व स्थानोंकी ओष प्ररूपणा । अन्य विषयों सम्बन्धी सूचीपत्र ।
ध.५/१,७.१/१८७/8भावो णाम दव्वपरिणामो।-द्रव्यके परिणामको भाव कहते है। अथवा पूर्वापर कोटिसे व्यतिरिक्त वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित द्रव्यको भाव कहते है। दे०निक्षेप/७/१) (ध.१/४,१,३/ ४३/५)। प्र. सा/त. प्र./१२६ परिणाममात्रलक्षणो भाव । भाषका लक्षण __ परिणाम मात्र है । (स, सा/ता. वृ/१२६/१८०/)। त अनु./१०० भाव' स्याद्गुण-पर्ययौ ।१०० - गुण तथा पर्याय दोनों
भाव रूप है। गो जी./जी प्र/१६५/३६१/६ भाव' चित्परिणाम ।-चेतनके परिणाम
को भाव कहते है। पंध./पू /२७६,४७६ भाव परिणाम किल स चैव तत्त्वस्वरूपनिष्पत्ति ।
अथवा शक्तिसमूहो यदि वा सर्वस्वसार' स्यात् ।२७। भाव परिणाममम शक्तिविशेषोऽथवा स्वभाव स्यात् । प्रकृति स्वरूपमात्रं लक्षणमिह गुणश्च धर्मश्च १४७६-निश्चयसे परिणाम भाव है, और वह तत्त्वके स्वरूपकी प्राप्ति ही पड़ता है। अथवा गुणसमुदायका नाम भाव है अथवा सम्पूर्ण व्यके निजसारका नाम भाव है ।२७६। भाव परिणाममय होता है अथवा शक्ति विशेष स्वभाव प्रकृति स्वरूपमात्र आत्मभूत लक्षण गुण और धर्म भी भाव कहलाता है।४७४। ३. कर्मोदय सापेक्ष जीव परिणामके अर्थ में स. सि /१/८/२६/८ भाव औपशमिकादिलक्षण 1=भावसे औपशमिका
दि भावो का ग्रहण किया गया है। (रा, बा./२/८/६/४२/१७)। पं. का./त प्र/१५० भाव खल्वत्र विवक्षित कर्मावृतचैतन्यस्य क्रमप्रवर्तमानज्ञप्ति क्रियारूप । यहाँ जो भाव विवक्षित है वह कर्मावृत चैतन्यको क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञप्तिक्रिया रूप है। ४ चित्तविकारके अर्थमें पप्र/टी./१/१२१/१११/८ भावश्चित्तोस्थ उरते।=भाव अर्थात
चित्तका विवार।
| भाव-अमाव शक्तियाँ भावकी अपेक्षा वस्तुमें विधि निषेव-दे० सप्तभ गी/५ । जैन दर्शनमे वस्तुके कथचित् भावाभावकी सिद्धि
-दे० उत्पाद,व्यय धौव्य२/७/ | आत्माकी भावाभाव आदि शक्तियोके लक्षण ।
भाववती शक्तिके लक्षण। भाववान् व क्रियावान् द्रव्योका विभाग
-दे० द्रव्य/३/३। अभाव भी वस्तुका धर्म है-(दे० सप्तभ गी/४ )।
भा०३-२८
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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