________________
भाव
५. शुद्ध भावके अर्थ में
द्र.सं./टी./३६/१५०/१३ निर्विकारपरमचैतन्यचिच्च मत्कारानुभूतिसजातसहजानन्दस्वभावसुखामृतरसास्वादरूपो भाव इत्याध्याहार | - निर्विकार परम चैतन्य थिय नगरकारके अनुभव से उत्पन्न सहज आनन्द स्वभाव सुखामृत के आस्वाद रूप, यह भाव शब्दका अध्याहार किया गया है।
चैतन्य शुद्ध
प्र. सा./ता.वृ / ११५/१६१/१४ शुद्धचैतन्यं भाव' | = भाव है।
= शुद्ध
भा. पाटी /६६/२१०/१८ भाव आत्मरुचि जनसम्ययकारणभूत हेतुभूत - आत्माकी रुचिका नाम भाव है, जो कि सम्यक कारण है।
६. नव पदार्थ अर्थ
पं. का./त.प्र / १०७ भावाः खलु कालकलितपञ्चास्तिकायविकल्परूपा नव पदार्थाः । काल सहित पचास्तिकायके भेदरूप नवपदार्थ के वास्तव में भाव है।
२. माचके भेद
१. भाव सामान्यके भेद
रा. वा./५/२२/२१/४६१/११ द्रव्यस्य हि भावो द्विविध परिस्पन्दात्मक, अपरिस्पन्दात्मकश्च द्रव्यका भाव दो प्रकारका है परिस्पन्दारम और अपरिस्पन्दात्मक (रा. वा/६/६/२/१२/१३)। रा. वा. हि/४ चूलिका./पृ. ३६८ ऐसे भाव छह प्रकारका है। जन्मअस्तित्व-निवृत्ति-वृद्धि- अपक्षय और विनाश ।
२. निक्षेप की अपेक्षा
नोट- नाम स्थापनादि भेद-दे० निक्षेप / १
ध. ५/१,७,१/१९४/७ तव्वदिरित्त णोआगमदव्वभावो तिविहो सचित्ताचित्त- मिस्सएण | णोआगमभावभावो पचविहंनो आगमद्रव्य भावनिक्षेप, सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका है। नो आगम भावनिक्षेप पाँच प्रकार है । ( दे० अगला शीर्षक )
३. कालकी अपेक्षा
1
ध. ५ / १,७,१/१८८/४ अणादिओ अपज्जवसिदो जहा अभव्वाणमसिद्धदा, धम्मत्थि अस्स गमणहेदुत्तं, अधम्मत्थि अस्सठिदिउत्त, आगासस्स गाह का परिणामत्तमित्यादि अनाविश्री सपज्जनसिदो जहा - भव्वस्स असिद्धदा भव्वन मिच्छत्तमसंजदो इम्यादि सावित्री अजयसिदो जहा केपलगाण केवलसमिच्चादि । सादिओसपज्जबसिदो जहा सम्मत्तसंजम पच्छायदाण जमादि-१ भाव अनादि निधन है। जैसेअभव्य जीवोके असिद्धता, धर्मास्तिकाय गमनहेतुता, अधर्मास्तिकायके स्थितिहेतुता, आकाश द्रव्यके अवगाहना स्वरूपता, और काल के परिणमन हेतुता आदि । २. अनादि सान्तभाव जैसे- भव्य जीवकी असिद्धता, भव्यत्व, मिथ्यात्व असयम इत्यादि । ३. सादि अनन्तभाव - जैसे - केवलज्ञान, केवलदर्शन इत्यादि । ४ सादि सान्त भाव, जैसे सम्यक्त्व और सयम धारण कर पीछे आये हुए जीवीके मिथ्यात्व असंयम आदि ।
--
४. जीव भावकी अपेक्षा
पं.का./मू. ५६ उदयेण उक्समेग य खयेग दुहि मिस्सिदेहि परिणामे गुता जीवगुणा उदयमे, उपदानसे, ससे, क्षयोपशमसे और परिणामसे युक्त ऐसे ( पॉच) जीव गुण (जीवके परिणाम ) है। ( सू २/१) (४/१०/गा ५) १८०) (६.५ / १,००१ / १८४/
Jain Education International
२१८
२. पंचनव निर्देश
१३:१८८/६ ) ( सा/२/३ ) ( गो . / / ८१३/६८०) (४.घ. ख. / ६६५-६६६ ) ।
रा. वा /२/७/२२/११४/१ आर्षे सानिपातिकभाव उक्त - आर्षमे सान्निपातिक भाव भी कहा गया है।
एक
३. स्व पर भावका लक्षण
रा. वा / हि /९/७/६७२ मिथ्यादर्शनादिक अपने भाव (पर्याय ) सो स्वभाव है। ज्ञानावरणादि कर्मका रस सो पर भाव है ।
४. निक्षेप रूप भेदों का लक्षण
घ ५ / १,७,१/१८४/८ तत्थ सचित्तो जीवदव्त्रं । अचित्तो पोग्गल धम्माधम्म - कालागासदव्वाणि । पोरगल जीव दव्वाणं सुजोगो वधचिज्जच्चतरत्तमावण्णो णोआगममिस्सदव्वभावो णाम । जीव द्रव्य सचित भाव है। पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल और आकाश द्रव्य अचित्तभाव है । कथचित् जात्यन्तर भावको प्राप्त डुगल और जीव द्रव्योका सयोग नोआगममिश्र भावनिक्षेप है।
२. पंचभाव निर्देश
१. द्रव्यको ही भाव कैसे कह सकते हैं।
ध, ५/१,७,१/१८४/८ क्धं दव्त्रस्स भावव्यवएसो । ण, भवन भाव', भूतिर्वा भाव इति भावसदस्स विउप्पत्ति अवल बणादो। प्रश्नद्रव्यके 'भाव' ऐसा व्यपदेश कैसे हो सकता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, 'भवनं भाव ' अथवा 'भूतिर्वा भाव ' इस प्रकार भाव शब्दकी व्युत्पत्ति अलम्बनसे इनके भी 'भाव' ऐसा व्यपदेश मन जाता है ।
२. मावका आधार क्या है
-
घ. ५/१,७/१/१८८/४ कत्थ भावो, दव्बम्हि चेव, गुणिव्यदिरेगेण गुणाणमसभवा । प्रश्न-भाव कहॉपर होता है, अर्थात् भावका अधिकरण क्या है। उत्तर-भाव द्रव्यमे ही होता है, क्योकि गुणीके विना गुणोका रहना असम्भव है ।
३. पंचभावका कथंचित् जीवके स्वतस्व है।
"
त. सू./२/१ जोवस्य स्वतत्त्वम् 1१1 ( स्वो भावोऽसाधारणो धर्म. रा. वा ) । =ये पाँचो भाव जीवके स्वतत्त्व हैं । (स्वभाव) अर्थात् जीवके असाधारण धर्म ( गुण ) है | ( त सा /२/२ ) । रा.वा./१/२/१०/२०/२ स्यादेतद- सम्यवत्वकर्म पुद्गलाभिधायित्वेऽप्यदोष इति तन्न; कि कारणम् । मोक्षकारणत्वेन स्वपरिणामस्य विवतिरास औपशमिकादिसम्यग्दर्शनमात्मपरिणामवाद मोक्षकारणत्वेन विवक्ष्यते न च सम्यकर्मपर्याय. पौसिकत्वेऽस्य परपर्यायत्वात् प्रश्न- सम्य नामकी कर्मप्रकृतिका निपा होनेके कारण सम्यक्त्व नामका गुण भी कर्म पुद्गलरूप हो जावे । इसमें कोई दोष नहीं है उत्तर नहीं, कोकि, अपने आत्माके परिणाम ही मोक्ष के कारणरूपसे विवक्षित किये गये है औपशमिकादि सम्यग्दर्शन भी सीधे आग्मपरिणामस्वरूप होनेसे ही मोक्षके कारणरूपसे विवक्षित किये गये है, सम्यक्त्व नामकी कर्म. पर्याय नहीं, क्योंकि वह तो पौगलिक है । पं.का./५६ जी ऐसे (पाँच) जीवगुण ( जीवके भाव ) है । उनका अनेक प्रकारसे कथन किया गया है ( १/१,९/८/६०१७) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org