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पुण्य
पुण्यास्रव कथाकोश
सुख प्राप्त करानेकी सामर्थ्य है उसे स्वर्गसुखकी प्राप्ति कितनी दूर है अर्थात् कौन बडी बात है। का. अ./४११-४१२ जो अहिलसेदि पुण्णं सकसाओ 'बिसयसोवखतबहाए । दूरे तस्स विसोही विसोहिमू लाणि पुण्णाणि ।४११। पुण्णासाए ण पुण्ण जदो णिरीहरस पुण्णसंपत्ती। इय जाणिऊण जइणो पुण्णो वि म( ण ) आयरं कुणह ।४१२। जो कषाय सहित होकर विषयतृष्णासे पुण्यकी अभिलाषा करता है उससे विशुद्धि और विशुद्धिमूलक पुण्य दूर है।४११। तथा पुण्य की इच्छा करनेसे पुण्य नहीं होता, बल्कि निरीह ( इच्छा रहित) व्यक्तिको ही उसकी प्राप्ति होती है। अत ऐसा जानकर हे यतीश्वरो। पुण्यमें भी आदरभाव मत करो।४१२॥
उत्पन्न करता है तथा बुद्धिको भ्रष्ट करता है, परन्तु सम्यक्त्वादि गुणोसे सहित पुण्य ऐसा नहीं करता। जैसे कि भरत, सगर, राम व पाण्डवादिका पुण्य, जिसको प्राप्त करके भी वे मद और अहंकारादि विकल्पोंके त्यागपूर्वक मोक्षको प्राप्त हो गये। (प प्र./टी./२/५७/१७६/८)।
३. पुण्यके निषेधका कारण व प्रयोजन प्र सा /मू /११ धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो। पावदि णिव्वाणमुह सुहोवजुत्तो व सग्गसुह ।११। -धर्मसे परिणत स्वरूपवाला आत्मा यदि शुद्ध उपयोगमे युक्त हो तो मोक्ष सुरखको प्राप्त करता है, और यदि शुभोपयोग वाला हो तो स्वर्ग सुखको प्राप्त करता है ( इसलिए मुमुक्षुको शुद्धोपयोग ही प्रिय है शुभोपयोग नहीं।) (बा अ/४२), (ति.प/४/५७) । दे० पुण्य/२/६-(अशुद्धोपयोग होनेके कारण पुण्य व पाप दोनों
त्याज्य है।) का. अमू./४१० पुण्ण पि जो समिच्छदि ससारो तेण ई हिदो होदि। पुण्णं सुगई-हेदु पुण्ण-खएणेव णिव्वाणं ।४१० = जो पुण्यको चाहता है वह ससारको चाहता है क्योंकि पुण्य सुगतिका कारण है। पुण्य क्षय होनेसे ही मोक्ष होता है। (अत' मुमुक्ष भव्य पुण्यके क्षयका प्रयत्न करता है, उसकी प्राप्तिका नही।) नि.सा/ता. वृ/४१/क १६ सुकृतमपि समस्तं भोगिना भोगमूलं, त्यजतु परमतत्त्वाभ्यासनिष्णातचित्त । उभयसमयसारं सारतत्त्वस्वरूपं, भजतु भवविमुक्त्यै कोऽत्र दोषो मुनोश' IRRI =समस्त सुकृत ( शुभ कर्म ) भोगियोके भोगका मूल है, परमतत्त्वके अभ्यासमे निष्णात चित्तबाले मुनीश्वर भवसे विमुक्त होनेके हेतु उस समस्त शुभकर्म को छोडो और सारतत्वस्वरूप ऐसे उभय समयसारको भजो। इसमे क्या दोष है। प्र सा /ता वृ/१८०/२४३/१६ अय परिणाम' सर्वोऽपि सोपाधित्वात् बन्धहेतुरिति ज्ञात्वा बन्धे शुभाशुभसमस्तरागद्वेषविनाशार्थं समस्तरागाद्यपाधिरहिते सहजानन्दै कलक्षणसुखामृतस्वभावे निजात्मद्रव्ये भावना कर्तव्येति तात्पर्यम्। शुभ व अशुभ समस्त ही परिणाम उपाधि सहित होनेके कारण बन्धके हेतु है (दे० पुण्य/२/४)। ऐसा जानवर, बन्धरूप समस्त शुभाशुभ रागद्वेषका विनाश करनेके लिए, समस्त रागादि उपाधिसे रहित सहजानन्द लक्षणवाले सुखामृत स्वभावी निजात्मद्रव्यमें भावना करनी चाहिए ऐसा तात्पर्य है । (प का./ता.वृ/१२८-१३०/१६३/११) । दे० धर्म/७/२ ( शुद्धभावका आश्रय करनेपर ही शुभभावोंका निषेध
किया है सर्वथा नही।) मो, मा प्र 10/३१/१४ प्रश्न-शास्त्रविः शुभ-अशुभ को समान का है (दे० पुण्य/२), तात हमकों तौ विशेष जानना युक्त नाही. उत्तर-जे जीव शुभोपयागको मोक्षका कारण मानि, उपादेय मान, शुद्धोपयोगको नाही पहिचान है, तिनिकौं शुभ-अशुभ दोऊनिकों अशुद्धताकी अपेक्षा वा बन्धकारणकी अपेक्षा समान दिखाये है, बहुरि शुभ-अशुभका परस्पर विचार कीजिए, तौ शुभभावनि विर्षे कषाय मद हो है, तातै बन्ध हीन हो है । अशुभ भावनिवि कषाय तोत्र हो है, तातै बन्ध बहुत हो है। ऐसे विचार किए अशुभकी अपेक्षा सिद्धान्त विष शुभको भला भी कहिये है। (दे० पुण्य/४/१ तथा पुण्य/५/५)।
१. सम्यग्दृष्टिका पुण्य निरीह होता है इ. उ/४ यन्न भाव शिव दत्ते द्यौ कियद्दूरवर्तिनी। यो नयत्याशु
गम्युति कोशार्दू किं स सीदति ।४। जो मनुष्य किसी भारको स्वेच्छासे शीघ्र दो कोस ले जाता है, वह उसी भारको आधाकोस ले जानेमे कैसे खिन्न हो सकता है। उसी प्रकार जिस भावमें मोक्ष-
५. पुण्यके साथ पाप प्रकृतियोंके बन्ध सम्बन्धी समन्वय रा. वा /६/३/७/१०७/२३ स्यादेतव-शुभ. पुण्यस्येत्यनिर्देश, • कुतः ।
घातिकर्मबन्धस्य शुभपरिणामहेतुत्वादिति; तन्न; कि कारणम् । इतरपुण्यपापापेक्षत्वाद, अधातिकर्मसु पुण्यं पापं चापेक्ष्येदमुच्यते । कुतः। घातिकर्मबन्धस्य स्वविषये निमित्तत्वात् । अथवा नैवमवधारणं क्रियते---शुभ. पुण्यस्यैवेति । कथं तर्हि । शुभ एव पुण्यस्येति । तेन शुभ पापस्यापि हेतुरित्यविरोध । यद्येव शुभ पापस्यापि [हेतु ] भवतिः अशुभ. पुण्यस्यापि भवतीत्यभ्युपगम कर्तव्य', सर्वोत्कृष्टस्थितीनाम् उत्कृष्टसंक्लेशहेतुकत्वात । .. तत' सूत्रद्वयमनर्थकमिति; नानर्थकम, अनुभागबन्ध प्रत्येतदुक्तम् । अनुभागबन्धो हि प्रधानभूत. तन्निमित्तत्वात सुखदुःख विपाकस्य। तत्रोत्कृष्ट विशुद्धपरिणामनिमित्त सर्व शुभप्रकृतीनामुत्कृष्टाणुभागबन्धः । उत्कृष्टसंक्लेशपरिणामनिमित्त सर्वाशुभप्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागबन्ध' । शुभपरिणाम. अशुभजधन्यानुभागबन्धहेतुत्वेऽपि भूयस शुभस्य हेतुरिति शुभ' पुण्यस्येत्युच्यते, यथा अल्पापकारहेतुरपि बहूपकारसद्भाबादुपकार इत्युच्यते। एवमशुभ' पापस्येत्यपि। -प्रश्न-जब घाति कर्मोंका बन्ध भी शुभ परिणामोंसे होता है तो 'शुभ. पुण्यस्य' अर्थात् 'शुभपरिणाम पुण्यास्रवके कारण है' यह निर्देश व्यर्थ हो जाता है। उत्तर-१, अघातिया कर्मों में जो पुण्य और पाप प्रकृतियाँ है, उनको अपेक्षा ही यहाँ पुण्य व पाप हेतुताका निर्देश है, घातियाकी अपेक्षा नहीं। २. अथवा शुभ पुण्यका ही कारण है ऐसा अवधारण नहीं करते हैं, किन्तु 'शुभ ही पुण्यका कारण है' यह अवधारण किया गया है। इससे ज्ञात होला है कि शुभ पापका भी हेतु हो सकता है। प्रश्नयदि शुभ पापका और अशुभ पुण्यका भी कारण होता है; क्योंकि सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट संक्लेशसे होता है (दे० स्थिति/४), अत: दोनों सूत्र निरर्थक हो जाते है। उत्तरनहीं, क्योकि यहाँ अनुभागबन्धकी अपेक्षा सूत्रोको लगाना चाहिए। अनुभागबन्ध प्रधान है, वही सुख-दुखरूप फलका निमित्त होता है। समस्त शुभ प्रकृतियोका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामोसे और समस्त अशुभ प्रकृतियोका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोसे होता है (दे० अनुभाग/२/२)। यद्यपि उत्कृष्ट शुभ परिणाम अशुभके जघन्य अनुभागबन्धके भी कारण होते है, पर बहुत शुभके कारण होनेसे 'शुभ पुण्यस्य' सूत्र सार्थक है। जैसे कि घोडा अपकार करने पर भी बहुत उपकार करनेवाला उपकारक ही माना जाता है। इसी तरह अशुभ' पापस्य' इस सूत्र में
भी समझ लेना चाहिए। पुण्यप्रभ-क्षौद्रवर द्वीपका रक्षक देव-दे० व्यतर/४ । पुण्यास्रव कथाकोश-४५०० श्लोकोमें रचित । (ती./३१७) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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