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भोजन
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मंगल
भाजन- १२/४,२,८,७/२८२/१३ भुज्यत इति भोजनमोदन', भुक्तिकारणपरिणामो वा भोजनं 1-'भुज्यते इति भोजनम' अर्थात जो खाया जाता है वह भोजन है, इस निरुक्तिके अनुसार ओदनको भोजन कहा गया है। अथवा (भुज्यते अनेनेति भोजनम् । इस निरुक्तिके अनुसार आहार ग्रहणके कारणभूत परिणामको भी भोजन
कहा जाता है। भोजन कथा-दे० कथा । भोजनांग कल्पवृक्ष-दे० वृक्ष । भोजवंश-१ पुराणकी अपेक्षा इस वशका निर्देश ।- दे० इतिहास/
७/८, इतिहासकी अपेक्षा इस वंशका निर्देश-दे० इतिहास/३/४ । भौमनिमित्तज्ञान-दे. निमित्त/२। भ्रम-पाँचवें नरकका दूसरा पटल ( रा. वा.)-दे० नरक/५ । भ्रमक-पाँचवे नरकका दूसरा पटल (ति.प.)-दे० नरक/५ । भ्रमका-पाँचवे नरकका दूसरा पटल-दे० नरक/५॥ भ्रमराहार वृत्ति- दे० भिक्षा/१/७।। भ्रान्त-प्रथम पृथिवीका चतुर्थ पटल-दे० नरक/५ तथा रत्नप्रभा । भ्रान्ति-सि.वि./मु./२/४/१३७ अतस्मिस्तद्ग्रहो भ्रान्ति ।-वस्तुका जैसा स्वरूप नही है चैसा ग्रहण हो जाना भ्रान्ति है । ( न्या. वि./ वि/१/३/७०/१७)। स्या. म /१६/२१६/३ भ्रान्तिहि मुख्येऽर्थे क्वचिद् दृष्टे सति करणापाटवादिनान्यत्र विपर्यस्तग्रहणे प्रसिद्धा । यथा शुक्तौ रजतभ्रान्ति । - यथार्थ पदार्थको देखनेपर इन्द्रियो में रोग आदि हो जानेके कारण ही चाँदीमें सीपके ज्ञानकी तरह, पदार्थों में भ्रमरूप ज्ञान होता है। भ्रामरी वृत्ति-साधुको भिक्षावृत्तिका एक भेद-दे० भिक्षा/
मंगल निर्देश व तद्गत शंकाएँ १ मंगलके छह अधिकार ।
मंगलका सामान्य फल व महिमा । तीन बार मंगल करनेका निर्देश व उसका प्रयोजन । लौकिक कार्योंमें मंगल करनेका नियम है, पर शास्त्रमें
वह भाज्य है। स्वयं मंगलस्वरूप शास्त्रमें भी मंगल करनेकी क्या
आवश्यकता। मंगल व निर्विघ्नतामें व्यभिचार सम्बन्धी शंका। ७ मंगल करनेसे निर्विघ्नता कैसे।
लोकिक मंगलोंको मंगल कहनेका कारण । मिथ्यादृष्टि आदि सभी जीवोंमे कथंचित् मंगलपना ।
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[म]
मंखलि गोशाल-(दे० पूरण कश्यप ) मंगरस-नेमि जिनेश्वर संगति औरासम्यक्त्व कौमुदी क रचयिता
एक कन्नड कवि । समय-ई. १५०८ । (ती/४/३१०) । मंगराज-खगेन्द्रमणिदर्पण (चिकित्साशास्त्र) के रचयिताएक कन्नड
कवि । समय-ई. १५५० । (तो /४/३११) । मंगल-एक ग्रह । दे. ग्रह । लोक में अवस्थान-दे. ज्योतिष लोक/२ । मंगल-पाप विनाशक व पुण्य प्रकाशक भाव तथा द्रव्य नमस्कार
आदि मंगल है। निर्विघ्न रूपसे शास्त्रकी या अन्य लौकिक कार्योकी समाप्ति व उनके फल की प्राप्तिके लिए सर्व कार्योके आदिमें तथा शास्त्रके मध्य व अन्त में मंगल करनेका आदेश है।
१. मंगलके भेद व लक्षण
१. मंगल सामान्यका लक्षण ति, प./१/८-१७ पुण्णं पूदपवित्ता पसत्थ सिवभ६खेमकत्ताणा। सुहसो
खादी सव्वे णिहिट्ठा मगलस्स पज्जाया ।८। गालयदि विणासयदे धावे दि दहेदि हंति सोधयदे। विधसे दि मलाई जम्हा तम्हा य मगलं भणिदं हा अहवा मग सोक्खं लादि हू गेण्हेदि मंगलं तम्हा । एवेण कज्जसिद्धिं मंगइ गच्छेदि गंथकत्तारो।१५ पुव्य आइरिएहि मंगलपुव च वाचिदै भणिद । त लादि हु आदत्ते जदो तदो मगलं पवर।१६ पावं मलं ति भण्णइ उवचारसरूवएण जीवाणं । तं गालेदि विणास णेदि त्ति भणं ति मंगल केई ।१७। - १. पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण, शुभ और सौख्य इत्यादिक सब मंगलके ही पर्यायवाची शब्द है।८। (ध १/१,१,१/३१/१०)।२,क्योकि यह [ज्ञानावरणादि, द्रव्य मल और अज्ञान अदर्शन आदि भावमल(दे० मल) ] मलोंको गलाता है, विनष्ट करता है, धातता है, दहन करता है. हनता है, शुद्ध करता है और विश्वस करता है, इसलिए इसे 'मंगल' कहा गया है 11 (ध १/१,१,१/३२/५), (ध.६/४,१.१/ १०)। ३. अथवा चू कि यह मगको अर्थात् सुख या पुण्यको लाता है, इसलिए भी इसे मगल समझना चाहिए ।१५। (ध १/१,१.१/ श्लो. १६/३३); (ध. ११,१,२/३३/५); (पं. का./ता वृ./१/१/२) । ४. इसी के द्वारा ग्रन्थकर्ता अपने कार्यकी सिद्धिपर पहुँच जाता है। ।१५। पूर्व में आचार्यों द्वारा मगलपूर्वक ही शास्त्रका पठन-पाठन हुआ है। उसीको निश्चयसे लाता है अर्थात ग्रहण कराता है. इसलिए यह मंगल श्रेष्ठ है ।१६। (ध, १४९,१,१/३४/३)। ५. जीवोंके पापको उपचारसे मल कहा जाता है। उसे यह मगल गलाता है, विनाशको प्राप्त कराता है, इस कारण भी कोई आचार्य इसे मंगल कहते है।१७॥ (घ. १/१.१,१/श्लो. १७/३४), (पं. का./ता बृ./१/५/५)।
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मंगलके भेद व लक्षण मंगल सामान्यका लक्षण । मंगलके भेद। नाम स्थापनादि मंगलके लक्षण । निबद्धानिबद्धादि मंगलोंके लक्षण । अष्टमंगल द्रव्य।
-दे० चैत्य/१/१९ ।
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२. मंगलके भेद ति. प./१/१८ णामणिछावणा दबखेत्ताणि कालभावा य । इय
छब्भेयं भणियं मंगलमाणं दस जणणं ॥१८) = १. आनन्दको उत्पन्न करनेवाला यह मगल नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इस प्रकार छह भेदरूप कहा गया है । १८५ (ध. १/१,१,१/१०/४)।
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